Friday, December 30, 2016

दुनीचन्द का पिता लक्कड़बग्घे के रूप में

दुनीचन्द का पिता लक्कड़बग्घे के रूप में
एक बार श्री गुरुनानकदेव जी भ्रमण करते हुये एक गांव में पहुँचे। वहाँ दूनीचन्द नाम का एक अत्यन्त धनाढ¬ व्यक्ति रहता था,जो उस ज़माने में सात लाख रुपये का स्वामी था। जिस दिन श्री गुरुनानकदेव जी उस के गाँव में पहुँचे,उस दिन दूनीचन्द अपने पिता की याद में श्राद्ध कर रहा था। श्री गुरुनानकदेव जी के शुभागमन का समाचार सुनकर वह उनके चरणों में उपस्थित हुआ और विनय कर अत्यन्त सम्मान से उन्हें अपने घर ले गया।जब उसने अनेक प्रकार के व्यंजन उनके सामने परोसे, तो उन्होने दुनीचन्द से पूछा-आज तुम्हारे घर क्या है?दूनीचन्द ने विनय की-आज मेरे पिता का श्राद्ध है। उनके निमित्त आज मैने सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है। अन्तर्यामी श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-दूनीचन्द! तुम्हारे पिता कोआज तीन दिन से भोजन प्राप्त नहीं हुआ।वह भूखा बैठा है और तुम कहते हो कि उसके निमित्त तुमने सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है। दूनीचन्द ने पूछा-मेरे पिता इस समय कहाँ हैं?
     श्री गुरुनानक देव जी ने फरमाया-यहाँ से पचास कोस की दूरी पर अमुक स्थान पर एक बघियाड़ के रूप में तुम्हारे पिता बैठे हैं। तुम वहाँ प्रसाद लेकर जाओ,परन्तु डरना नहीं।तुम्हारे वहाँ जाने से उसकी मनुष्य-बुद्धि हो जायेगीऔर वह प्रसाद खा लेगा। दुनीचन्द ने वहाँ पहुँचकर देखा कि एक लकड़बग्घा एक पेड़ के नीचे बैठा है।वह उसके निकट चला गया,प्रसादआगे रखा और प्रणाम कर कहा-पिता जी!आपके निमित्त मैने आज सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है।सत्पुरुषों की कृपा से लकड़बग्घे की मनुष्य-बुद्धि हो गई। तब दुनीचन्द ने कहा-पिता जी! लकड़बग्घे की देहआपने क्यों पाई?उसने उत्तर दिया-""मेरी यह दशा इसलिए हुई,क्योंकि मैने किसी पूर्ण सतगुरु की शरण ग्रहण नहीं की थी,जिससे मन तथा मन के विकारों के अधीन होकर मैने जीवन बिताया।जब मेरा अन्तिम समय निकटआया,उस समय मेरे घर के निकट ही किसी ने गोश्त पकाया,जिस की गन्ध मुझ तक पहुँचीऔर मेरे मन में गोश्त खाने की इच्छा पैदा हुई। अन्तिम समय की उस वासना के अनुसार ही मुझे यह योनि मिली। इसलिये तुमको चाहिये कि पूर्णगुरु की शरणग्रहण कर उनके पवित्र शब्द की कमाई करो ताकिअन्त समय तुम्हारा ध्यान मालिक की ओर लगा रहे और तुम्हारा जन्म सँवर जाये।'' यह कहकर उसने प्रसाद खा लिया। दुनीचन्द घर वापस आया और श्री गुरुनानकदेव जी के चरणों में समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। और उनका शिष्य हो गया।
          देह छुटै मन में रहै, सहजो जैसी आस।
          देह जन्म तैसो मिलै, तैसे ही घर बास।।

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