Monday, September 26, 2016

शिवाजी द्वारा किला बनवाना


आम संसारी मनुष्य अज्ञानवश आजीविका की चिंता में पड़कर व्यर्थ ही स्वयं को दुःखी और परेशान किये रहता है। उसे हर समय यही चिंता सताती रहती है कि यदि वह आजीविका का प्रबन्ध न करे, तो शायद वह, उसका परिवार तथा आश्रितजन-सभी भूखे मर जायें। किन्तु सत्पुरुषों का कथन है कि यह मनुष्य की भूल एवं अज्ञानता है।
     छत्रपति शिवाजी के समय की घटना है। वे एक पहाड़ी के ऊपर किला बनवा रहे थे, जिसके निर्माण में सैंकड़ों व्यक्ति लगे हुये थे। एक दिन शिवाजी केले का निरीक्षण कर रहे थे। इतने व्यक्तियों को काम में लगे देखकर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे किला बनवाने से कितने लोगों की रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध हो रहा है। यदि मैं यह किला न बनवाता, तो पता नहीं इनका गुज़ारा कैसे चलता? शिवाजी के गुरुदेव समर्थ स्वामी गुरु रामदास जी समय के पूर्ण महापुरुष थे। महापुरुष तो त्रिकालवदर्शी और घट-घट की जानने वाले होते हैं, फिर भला शिवाजी के मन की बात उनसे कहां छिपी रह सकती थी? शिवा जी के मन से इस भ्रम को दूर करने के लिये वे तुरन्त किले की ओर चल दिये। वे जैसे ही किले के निकट पहुँचे, एक सैनिक ने तत्काल शिवाजी को उनके आने की सूचना दी। गुरुदेव के आगमन का समाचार पाकर शिवाजी किले के नीचे उतर आये और गुरुदेव के चरणों में प्रणाम कर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। समर्थ स्वामी गुरु रामदास जी ने एक बड़े पत्थर की ओर संकेत करते हुये फरमाया-शिवा! इस पत्थर को बीच से तुड़वाओ। शिवाजी ने तुरन्त मिस्त्रियों को पत्थर तोड़ने का आदेश दिया। पत्थर के टूटने पर सब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि वह पत्थर बीच में से पोला है, अर्थात उसमें एक गड्ढा बना है जिसमें पानी भरा है और एक मेंढक उसमें बैठा हुआ है। श्री गुरुदेव ने शिवाजी को सम्बोधित करते हुये फरमाया-शिवा! इस मेंढक को खाना-पीना कौन दे रहा है?
     गुरुदेव के ये वचन सुनते ही शिवाजी चौंक उठे और उन्हें अपने मन में उत्पन्न वह विचार स्मरण हो आया कि मेरे किला बनवाने से कितने लोगों की रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध हो गया। उन्हें अपनी भूल का अनुभव हुआ, अतः उन्होने गुरुदेव के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी। श्री गुरुदेव ने फरमाया ऐसा विचार पुनः कभी भी मन में न लाना।  सबको रोज़ी-रोटी देने वाला परमात्मा है। जबकि वह पत्थरों में रहने वाले जीवों का भी ध्यान रखता है, तो क्या जो किले के निर्माण में कार्यरत हैं, उनका ध्यान वह न रखेगा? शिवाजी ने अपनी भूल के लिये पुनः क्षमायाचना की। इसी विषय में गुरुवाणी में फरमान हैः-
     सैल पथर महि जँत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ।
कहने का अभिप्राय यह कि सबकी आजीविका तथा पालन पोषण का दायित्व मालिक का है और वही सबको रोज़ी रोटी देता है। इसलिये इस विषय में मनुष्य को अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। इसका अर्थ कोई यह न समझ ले कि धनोपार्जन करने अथवा कामकाज करने से मना किया जा रहा है तथा आलसी एवं निकम्मा बन जाने की और काम काज से जी चुराने की शिक्षा दी जा रही है। नहीं, ऐसा कदापि नहीं है पुरुषार्थ करना तथा संसारिक कर्तव्यकर्मों से जी चुराने की शिक्षा सन्त सत्पुरुष कभी नहीं देते, परन्तु हर समय आजीविका की चिंता में गलतान रहकर जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल जाना यह कदापि उचित नहीं है।

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