Sunday, September 18, 2016

अहंकार की पोटली


एक सम्राट एक रथ से गुज़रता था। जंगल से आता था शिकार करके। राह पर उसने एक भिखारी को देखा,जो अपनी पोटली को सिरपर रखे हुए चल रहा था।उसे दया आ गई। बूढ़ा भिखारी था। राजपथ पर मिला होता,तो शायद सम्राट देखता भी नहीं। इस एकान्त जंगल में-उस बूढ़े के थके-माँदे पैर,जीर्ण देह,उस पर पोटली का भार-उसे दया आ गई। रथ रोका, भिखारी को ऊपर रथ पर ले लिया। कहा, कि हाँ तुम्हें जाना है, हम राह में तुझे छोड़ देंगे। भिखारी बैठ गया।सम्राट हैरान हुआ पोटली वह अब भी सिर पर रखे हुए है?उसने कहा,""मेरे भाई,तू पागल तो नहीं है? पोटली अब क्यों सिर पर रखे है?अब तो नीचे रख सकता है। राह पर चलते समय पोटली सिर पर थी,समझ में आती है। पर अब रथ पर बैठकर किसलिए पोटली सिर पर रखे है?'' उस गरीब आदमी ने कहा, ""अन्नदाता,आपकी इतनी ही कृपा क्या कम है कि मुझे रथ पर बैठा लिया। अब पोटली का भार और रथ पर रखूँ क्या यह योग्य होगा?'' लेकिन तुम सिर पर रखे रहो, तो भी भार तो रथ पर ही पड़ रहा है।
     ठीक वैसी ही दशा है सन्देह और श्रद्धा की। तुम सोचते हो-सोच तो वही रहा है। तुम करते हो-कर भी वही रहा है। तुम नाहक ही बीच में निर्मित हो जातो हो। तुम यह जो पोटली सिर पर ढो रहे होअहंकार की और दबे जा रहे हो,और अशान्त,और परेशान।और रथ उसका चल ही रहा है, तुम कृपा करो। रथ पर ही पोटली भी रख दो, जिस पर तुम बैठे हो। तुम निÏश्चत होकर बैठ जाओ।श्रद्धा का इतना ही अर्थ है।श्रद्धा इस जगत में परम बोध है। सन्देह अज्ञान है। वह बूढ़ा आदमी मूढ़ था। थोड़ी सी समझ हो, तो पोटली तुम नीचे रख दोगे। सब चल ही रहा है। जब तुम नहीं थे,तुम कल नहीं रहोगे,तब भी सब चलता रहेगा।तुम क्षण भर को हो यहाँ। तुम क्यों व्यर्थ अपने को अपने सिर पर रखे हुए हो? उतार दो पोटली। जीवन,मरण दोनों उसी के हैं। सुख भी उसी का, दुःख भी उसी का। बीमारी भी उसी की,स्वास्थ्य भी उसी का। अगर तुम बीच से बिलुकल हट जाओ,तो बड़ी से बड़ी क्रान्ति घटित होती है। जिस दिन तुम कहते हो,सब तेरा, उसी दिन दुःख मिट जाता है,उसी दिन मृत्यु मिट जाती है। क्योंकि दुःख और मृत्य अस्वीकार में है।
एक बात स्मरण रखें, जो दूसरे को दुःख देता है, वह अंततः दुःखी हो जाते हैं। और जो दूसरे को सुख देता है, वह अंततः बहुत सुख को उपलब्ध होता है।इस वजह से यह कह रहा हूँ कि जो सुख देने की चेष्टा करता है,उसके भीतर सुख के केन्द्र विकसित होते हैं।फल बाहर से नहीं आते हैं, फल भीतर पैदा होते हैं। हम जो करते हैं, उसी की रिसेप्टिविटी हमारे भीतर विकसित हो जाती है।जो प्रेम चाहता है,प्रेम को फैला देऔर जो आनंद चाहता है,वह आनंद को लुटा दे।और जो चाहता है,उसके घर पर फूलों की वर्षा हो जाये, वह दूसरों के आंगनों में फूल फेंक दे,और कोई रास्ता नहीं है।करुणा का एक भाव प्रत्येक को विकसित करना ज़रूरी है साधना के लिए।इसके साथ ही प्रमुदिता-उत्फुल्लता,प्रसन्नता, आनंद का एक बोध, विषाद का अभाव। हम सब विषाद से भरे हैं। हम सब उदास लोग, थके लोग हैं।हम सब हारे हुए,पराजित,रास्ते पर चलते हैं और समाप्त हो जाते हैं। हम ऐसे चलते हैं, जैसे आज ही मर गये हैं। हमारे चलने में कोई गतिऔर प्राण नहीं है,हम सुस्त हैं,और उदास हैं, और टूटे हुए हैं,और हारेहुए हैं।यह गलत है। जीवन कितना ही छोटा हो, मौत कितनी ही निश्चित हो,जिसमें थोड़ी समझ है, वह उदास नहीं होगा।

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