Monday, September 26, 2016

शिवाजी द्वारा किला बनवाना


आम संसारी मनुष्य अज्ञानवश आजीविका की चिंता में पड़कर व्यर्थ ही स्वयं को दुःखी और परेशान किये रहता है। उसे हर समय यही चिंता सताती रहती है कि यदि वह आजीविका का प्रबन्ध न करे, तो शायद वह, उसका परिवार तथा आश्रितजन-सभी भूखे मर जायें। किन्तु सत्पुरुषों का कथन है कि यह मनुष्य की भूल एवं अज्ञानता है।
     छत्रपति शिवाजी के समय की घटना है। वे एक पहाड़ी के ऊपर किला बनवा रहे थे, जिसके निर्माण में सैंकड़ों व्यक्ति लगे हुये थे। एक दिन शिवाजी केले का निरीक्षण कर रहे थे। इतने व्यक्तियों को काम में लगे देखकर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे किला बनवाने से कितने लोगों की रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध हो रहा है। यदि मैं यह किला न बनवाता, तो पता नहीं इनका गुज़ारा कैसे चलता? शिवाजी के गुरुदेव समर्थ स्वामी गुरु रामदास जी समय के पूर्ण महापुरुष थे। महापुरुष तो त्रिकालवदर्शी और घट-घट की जानने वाले होते हैं, फिर भला शिवाजी के मन की बात उनसे कहां छिपी रह सकती थी? शिवा जी के मन से इस भ्रम को दूर करने के लिये वे तुरन्त किले की ओर चल दिये। वे जैसे ही किले के निकट पहुँचे, एक सैनिक ने तत्काल शिवाजी को उनके आने की सूचना दी। गुरुदेव के आगमन का समाचार पाकर शिवाजी किले के नीचे उतर आये और गुरुदेव के चरणों में प्रणाम कर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। समर्थ स्वामी गुरु रामदास जी ने एक बड़े पत्थर की ओर संकेत करते हुये फरमाया-शिवा! इस पत्थर को बीच से तुड़वाओ। शिवाजी ने तुरन्त मिस्त्रियों को पत्थर तोड़ने का आदेश दिया। पत्थर के टूटने पर सब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि वह पत्थर बीच में से पोला है, अर्थात उसमें एक गड्ढा बना है जिसमें पानी भरा है और एक मेंढक उसमें बैठा हुआ है। श्री गुरुदेव ने शिवाजी को सम्बोधित करते हुये फरमाया-शिवा! इस मेंढक को खाना-पीना कौन दे रहा है?
     गुरुदेव के ये वचन सुनते ही शिवाजी चौंक उठे और उन्हें अपने मन में उत्पन्न वह विचार स्मरण हो आया कि मेरे किला बनवाने से कितने लोगों की रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध हो गया। उन्हें अपनी भूल का अनुभव हुआ, अतः उन्होने गुरुदेव के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी। श्री गुरुदेव ने फरमाया ऐसा विचार पुनः कभी भी मन में न लाना।  सबको रोज़ी-रोटी देने वाला परमात्मा है। जबकि वह पत्थरों में रहने वाले जीवों का भी ध्यान रखता है, तो क्या जो किले के निर्माण में कार्यरत हैं, उनका ध्यान वह न रखेगा? शिवाजी ने अपनी भूल के लिये पुनः क्षमायाचना की। इसी विषय में गुरुवाणी में फरमान हैः-
     सैल पथर महि जँत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ।
कहने का अभिप्राय यह कि सबकी आजीविका तथा पालन पोषण का दायित्व मालिक का है और वही सबको रोज़ी रोटी देता है। इसलिये इस विषय में मनुष्य को अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। इसका अर्थ कोई यह न समझ ले कि धनोपार्जन करने अथवा कामकाज करने से मना किया जा रहा है तथा आलसी एवं निकम्मा बन जाने की और काम काज से जी चुराने की शिक्षा दी जा रही है। नहीं, ऐसा कदापि नहीं है पुरुषार्थ करना तथा संसारिक कर्तव्यकर्मों से जी चुराने की शिक्षा सन्त सत्पुरुष कभी नहीं देते, परन्तु हर समय आजीविका की चिंता में गलतान रहकर जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल जाना यह कदापि उचित नहीं है।

Thursday, September 22, 2016

दूनी चन्द


     दूनीचन्द ने श्री गुरुनानक देव जी के चरणों में विनय की-मेरे पास सात लाख रुपये हैं,जिन में हर समय मेरा मन लगा रहता है। आप मुझे कोई ऐसी युक्ति बताएं, जिससे यह माया परलोक में मेरे साथ जा सके।
सतपुरुष तो जगत में आते ही जीवों को प्रमाद की निद्रा से जगाने और उन्हें सत्पथ पर लगाने के लिये हैं, अतएव उन्होने उसे एक सुई देते हुए फरमाया- तुम पहले हमारा एक काम करो। यह सुई संभालकर रख लो, परलोक में हम यह सुई तुम से वापस ले लेंगे।
     दुनीचन्द ने सुई ले ली और अपनी स्त्री के पास जाकर बोला-महापुरुषों ने यह सुई दी है और फरमाया है कि इसे परलोक में वापिस ले लेंगे,इसलिये इस सुई को कहीं सम्भाल कर रख लो। उनकी पत्नी ने कहा-जब कि संसार की कोई भी वस्तु यहां तक कि मनुष्य की देह भी उसके साथ नहीं जाती,तो फिर आप यह सुई  कैसे साथ ले जायेंगे?यह सुई उन्हें वापिस कर दीजिए। ज्ञात होता है कि यह सुई उन्होने केवल आपकी आँखें खोलने के लिए ही आपको दी है ताकिआपको इस बात का ज्ञान हो जाये कि एक सुई तक भी यहाँ से मरते समय साथ नहीं जाती। वे अवश्य  ही पूर्ण महापुरुष हैं और हमारे कल्याण के लिये ही हमारे घर में पधारे हैं।इसलिये मेरी मानिये तो उनकी शरण ग्रहण कर जीवन का उद्धार कीजिये। तत्पश्चात दोनों ने श्री गुरु नानकदेव जी के चरणों में उपस्थित होकर विनय की-गुरुदेव! ये सुई मैं आपको परलोक में कैसे दे सकता हूँ क्योंकि इसे परलोक में मैं कैसे ले जा सकता हूँ। श्री गुरुनानक देव जी ने फऱमाया जैसे एकत्र किया हुआ सारा धन ले जाओगे वैसे ये सुई भी ले जाना। दूनीचन्द तुम अमीर नहीं हो तुम गरीब हो क्योंकि साथ ले जाने वाला धन तुम्हारे पास नहीं है।सम्पत्ति वही होती है जो विपत्ति में काम आये। तब श्री गुरुनानकदेव जी ने यह बाणी उच्चारण की।
          लख मण सुइना लख मण रूपा लख साहा सिरि साह।।
          लख लसकर लख बाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह।।
          जिथै साइरु लंघणा अगनि पाणी असगाह।।
          कंधी  दिसि न आवई  धाही  पवै  कहाह।।
          नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह।।
अर्थः-किसी के पास लाखों मन सोना हो,लाखों मन चांदी हो,लाखों शाहों का भी वह शाह हो,लाखों की सेना हो,लाखों वादन हों,तथा उस बादशाह के पास लाखों घोड़े हों, परन्तु जहां संसार-सागर को पार करना है, जहाँ अथाह आग-पानी विद्यमान है,जहां किनारा दिखाई नहीं पड़ता, जहां लोग चीख-चीखकर शोर मचाते हैं, श्री गुरुनानक देव जी फरमाते हैं कि वहां पता चलता है कि वास्तविक अर्थों में बादशाह कौन है?बादशाह वास्तव में वही है,जो गुरु कीआज्ञानुसार नाम की कमाई करके भवसागर से पार हो जाता है। श्री गुरुनानकदेव जी के वचन सुनकर दोनों ने श्रद्धासहित उनकी स्तुति कर विनय की हम आपकी शरण हैं हमें भव से पार कीजिए।आपने हमारे ऊपर अत्यन्त कृपा की हैआज हम कृतार्थ हो गये। हमेंअपने शिष्यत्व में लीजिये।श्री गुरुनानकदेव जी ने उन्हेंनाम का सच्चा धन बख्शीश किया। आज्ञानुसार नाम की कमाई कर वे अपना जन्म सफल कर गये और लोक-परलोक संवार गये।

Sunday, September 18, 2016

अहंकार की पोटली


एक सम्राट एक रथ से गुज़रता था। जंगल से आता था शिकार करके। राह पर उसने एक भिखारी को देखा,जो अपनी पोटली को सिरपर रखे हुए चल रहा था।उसे दया आ गई। बूढ़ा भिखारी था। राजपथ पर मिला होता,तो शायद सम्राट देखता भी नहीं। इस एकान्त जंगल में-उस बूढ़े के थके-माँदे पैर,जीर्ण देह,उस पर पोटली का भार-उसे दया आ गई। रथ रोका, भिखारी को ऊपर रथ पर ले लिया। कहा, कि हाँ तुम्हें जाना है, हम राह में तुझे छोड़ देंगे। भिखारी बैठ गया।सम्राट हैरान हुआ पोटली वह अब भी सिर पर रखे हुए है?उसने कहा,""मेरे भाई,तू पागल तो नहीं है? पोटली अब क्यों सिर पर रखे है?अब तो नीचे रख सकता है। राह पर चलते समय पोटली सिर पर थी,समझ में आती है। पर अब रथ पर बैठकर किसलिए पोटली सिर पर रखे है?'' उस गरीब आदमी ने कहा, ""अन्नदाता,आपकी इतनी ही कृपा क्या कम है कि मुझे रथ पर बैठा लिया। अब पोटली का भार और रथ पर रखूँ क्या यह योग्य होगा?'' लेकिन तुम सिर पर रखे रहो, तो भी भार तो रथ पर ही पड़ रहा है।
     ठीक वैसी ही दशा है सन्देह और श्रद्धा की। तुम सोचते हो-सोच तो वही रहा है। तुम करते हो-कर भी वही रहा है। तुम नाहक ही बीच में निर्मित हो जातो हो। तुम यह जो पोटली सिर पर ढो रहे होअहंकार की और दबे जा रहे हो,और अशान्त,और परेशान।और रथ उसका चल ही रहा है, तुम कृपा करो। रथ पर ही पोटली भी रख दो, जिस पर तुम बैठे हो। तुम निÏश्चत होकर बैठ जाओ।श्रद्धा का इतना ही अर्थ है।श्रद्धा इस जगत में परम बोध है। सन्देह अज्ञान है। वह बूढ़ा आदमी मूढ़ था। थोड़ी सी समझ हो, तो पोटली तुम नीचे रख दोगे। सब चल ही रहा है। जब तुम नहीं थे,तुम कल नहीं रहोगे,तब भी सब चलता रहेगा।तुम क्षण भर को हो यहाँ। तुम क्यों व्यर्थ अपने को अपने सिर पर रखे हुए हो? उतार दो पोटली। जीवन,मरण दोनों उसी के हैं। सुख भी उसी का, दुःख भी उसी का। बीमारी भी उसी की,स्वास्थ्य भी उसी का। अगर तुम बीच से बिलुकल हट जाओ,तो बड़ी से बड़ी क्रान्ति घटित होती है। जिस दिन तुम कहते हो,सब तेरा, उसी दिन दुःख मिट जाता है,उसी दिन मृत्यु मिट जाती है। क्योंकि दुःख और मृत्य अस्वीकार में है।
एक बात स्मरण रखें, जो दूसरे को दुःख देता है, वह अंततः दुःखी हो जाते हैं। और जो दूसरे को सुख देता है, वह अंततः बहुत सुख को उपलब्ध होता है।इस वजह से यह कह रहा हूँ कि जो सुख देने की चेष्टा करता है,उसके भीतर सुख के केन्द्र विकसित होते हैं।फल बाहर से नहीं आते हैं, फल भीतर पैदा होते हैं। हम जो करते हैं, उसी की रिसेप्टिविटी हमारे भीतर विकसित हो जाती है।जो प्रेम चाहता है,प्रेम को फैला देऔर जो आनंद चाहता है,वह आनंद को लुटा दे।और जो चाहता है,उसके घर पर फूलों की वर्षा हो जाये, वह दूसरों के आंगनों में फूल फेंक दे,और कोई रास्ता नहीं है।करुणा का एक भाव प्रत्येक को विकसित करना ज़रूरी है साधना के लिए।इसके साथ ही प्रमुदिता-उत्फुल्लता,प्रसन्नता, आनंद का एक बोध, विषाद का अभाव। हम सब विषाद से भरे हैं। हम सब उदास लोग, थके लोग हैं।हम सब हारे हुए,पराजित,रास्ते पर चलते हैं और समाप्त हो जाते हैं। हम ऐसे चलते हैं, जैसे आज ही मर गये हैं। हमारे चलने में कोई गतिऔर प्राण नहीं है,हम सुस्त हैं,और उदास हैं, और टूटे हुए हैं,और हारेहुए हैं।यह गलत है। जीवन कितना ही छोटा हो, मौत कितनी ही निश्चित हो,जिसमें थोड़ी समझ है, वह उदास नहीं होगा।

Tuesday, September 13, 2016

सुखी होने की तरकीब


दूसरों का सुख दिखायी पड़ता है, अपना दुःख दिखायी पड़ता है।अपना सुख दिखायी नहीं पड़ता दूसरे का दुःख दिखायी नहीं पड़ता।सब दुःखी हैं अपने दुःख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण। और जब तक आपकी यह वृत्ति है तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुःख अगर आपको दिखायी पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरु हो गये। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखायी पड़ेगा।
     एक फकीर था जून्नून।कोई भी आदमी उसके पास मिलनेआता,तो वह हँसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है ?वह कहता एक तरकीब मैने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूँ,जिससे मैं सुखी हो जाऊँ। एक आदमी आया, उसके पास एक आँख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है?उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया,मेरे पास दोआंखें हैं,हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद।एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गज़ब अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिये हैं। एक मुर्दे की लाश को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा,हम अभी जिन्दा हैं,और पात्रता कोई भी नहीं है।और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गये होते इस आदमी की जगह तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।
     जुन्नून दुःखी नहीं था,कभी दुःखी नहीं हो सका क्योंकि उसने दूसरे का दुःख देखना शुरु कर दिया।और जब कोई दूसरे का दुःख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि मेंअपना सुख दिखायी पड़ता है।और जबकोई दूसरा का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुःख दिखायी पड़ता है।
प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करने का एक अन्य उपाय यह है कि मनुष्य को परमात्मा ने जो कुछ दे रखा है,सदा उसमें ही सन्तुष्ट रहे। परमात्मा का आभारी रहकर मन में यह विचार करता रहे कि अनेकों ऐसे मनुष्य भी संसार में होंगे, जिन्हे ये वस्तुयें भी उपलब्ध नहीं हैं।

Saturday, September 10, 2016

बिल्ली भर मत पालना।

एक फकीर मर रहा था तो उसने अपने शिष्य से कहा कि देख, एक बात का ख्याल रखना, बिल्ली भर मत पालना। वह फकीर मर गया इतना ही कहकर।इसकी व्याख्या भी न कर गया। शिष्य तो बड़ा परेशान हुआ। बिल्ली न पालना,आखिरी संदेश!कोई ब्राहृज्ञान की बात करनी थी। जीवन भर इस बुद्धू की सेवा कीऔर आखिर में मरते वक्त यह कह गया कि बिल्ली न पालना। बिल्ली हम पालेंगे ही क्यों?बिल्ली से लेना-देना क्या है। और बिल्ली पाल भी ली तो इससे मोक्ष में कौन-सी बाधा पड़ती है। किसी शास्त्र में लिखा नहीं कि बिल्ली मत पालना। बड़े-बड़े आदेश दिए हैं। ऐसा मत करना, वैसा मत करना, दस आज्ञाएँ हैं-मगर बिल्ली मत पालना।चोरी मत करना,बेईमानी मत करना,झूठ मत बोलना -समझ में आता है, मगर बिल्ली मत पालना, यह कौन सी नैतिकता का आधार है। उसे हैरान देखकर एक दूसरे बूढ़े आदमी ने कहा, तू परेशान मत हो। मैं तेरे गुरु को जानता हूँ, वह ठीक कह गया है। और मैं भी तुझसे कहता हूँ कि अगर उसकी बात मानकर चला तो बच जाएगा।
उसकी बात न मानी तो मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि वह मुश्किल में पड़ा था।शिष्य ने पूछा मुझे पूरी बात समझाकर कह दें,कैसी मुश्किल?क्योंकि मेरी अकल में ही नहीं बात बैठती। मैने बड़े शास्त्र पढ़े हैं, मगर बिल्ली मत पालना। तो उसने कहा,सुन तेरा गुरु कैसी मुसीबत में पड़ा।तेरे गुरु ने संसार छोड़ दिया डर से कि यहां फंस जाऊंगा,जैसे लोग छोड़ देते हैं डर से। शादी नहीं की,दुकान नहीं की बाज़ार में नहीं बैठा,भाग गया। जंगल में जाकर रहने लगा। एक मुसीबत आई। सिर्फ दो लंगोटियाँ थीं उसके पास।बस उतनी दो लंगोटियाँ ले गया था। वह सूखने डालता,रात को चूहे लंगोटी काट देते। उसने गांव के लोगों से पूछा कि क्या करना?
     उऩ्होने कहा एक बिल्ली पाल लो। बस वहीं से सारा उपद्रव शुरु हुआ, सारा संसार शुरु हुआ। बात जंची गुरु को,उसने बिल्ली पाल लीं। बिल्ली चूहे तो खा गई, लेकिन जब चूहे खा गई तब बिल्ली भूखी बैठी रहे वहां सूखने लगी। अब उसकी हत्या का पाप लगेगा। तो उस फकीर ने लोगों से पूछा कि भाई यह तो ठीक है,तुमने सुझाव दिया,तुम्हारी बात काम कर गई, चूहे खत्म कर दिए बिल्ली ने। मगर अब बिल्ली का क्या हो? तो उन्होने कहा, ऐसा करो,एक गाय पाल लो, तुम्हें भी दूध मिल जाएगा, बिल्ली को भी दूध मिल जाएगा। तुम यह जो रोज़ रोज़ भीख मांगने जाते हो, इस झंझट से भी बचोगे। और गाय हम दे देते हैं, हमारी भी झंझट मिटेगी कि तुम्हें रोज़-रोज़ आना,रोज़ तुम्हें हमें भिक्षा देना।गायें गांव के पास बहुत है, हम एक गाय तुम्हें गांव की तरफ से दे देते हैं।      फकीर को बात जंची, बात सीधी गणित की थी। गाय पाल ली, लेकिन झंझट-अब गाय के लिए घास चाहिए, भोजन चाहिए, गांव के लोगों ने
कहा, अच्छा यह हो कि ज़मीन तो यहां पड़ी ही है ढेर तुम्हारे पास,थोड़ी खेती-बाड़ी करने लगो,बैठे-बैठे करते भी क्या हो।तो घास भी हो जाएगा, गेहूँ भी हो जाएंगे,तुम्हारी रोटी का भी इंतजाम हो जाएगा। बिल्ली भी मज़ा करेगी, गाय भी मज़ा करेगी,तुम भी मज़ा करो। तो बेचारे ने खेती-बाड़ी शूरु की। अब खेती-बाड़ी करे कि भजन कीर्तन करे? गायों को सम्हाले,बिल्ली को सम्हाले कि शास्त्र पढ़े?फुर्सत ही न मिले भजनकीर्तन की। शास्त्र इत्यादि भूलने लगे।उसने गांव के लोगों से कहा,तुमने तो यह झंझट बना दी।मुझे समय ही नहीं मिलता।तो उन्होने कहा,ऐसा कामकरो कि गांव में एक विधवा है,उसका कोई है भी नहीं, वह भी परेशान है। उसको हम रख देते हैं यहां,तुम्हारी सेवा भी करेगी,रोटी भी--तुम मज़े से भजन करना, तुम कीर्तन करना, वह रोटी भी बना देगी। और मज़बूत विधवा है और किसान रही है, खेती-बाड़ी भी कर देगी।
     यह बात भी जंची। गणित फैलता चला गया। विधवा भी आ गई। उसने खेती-बाड़ी भी शुरु कर दी, हाथ-पैर भी दबा देती,बीमारी होती तो सिर भी दबा देती। फिर जो होना था सो हुआ। फिर विधवा से प्रेम लग गया। कुछ बुरा भी न था,आखिर इतनी सेवा करती थीऔर उस पर प्रेम न उमगे तो क्या हो। वे ही गांव के लोग आ गये कि यह बात ठीक नहीं अब अच्छा यही होगा कि आप इससे विवाह कर लो,क्योंकि इससे बड़ी बदनामी हो रही है,हमारे गांव की बदनामी हो रही है।तो विवाह हो गया, बच्चे हुए। फिर उपद्रव फैलता चला गया,फैलता चला गया। फिर बच्चों का विवाह हुआ। और उस बूढ़े आदमी ने कहा, तुम्हारा गुरु ठीक कहगया है कि बिल्ली मत पालना,यह उसकी ज़िन्दगी भर का सार है।
उस  बिल्ली से ही सब उपद्रव शुरु हुआ था।उपद्रव तो कहीं से भी शुरु हो सकते हैं।और बिल्ली की भीऔर गहराई में जाओ तो लंगोटी से शुरु हुआ।गुरु को असल में कहना था कि लंगोटी मत रखना। मगर कुछ तो रखोगे। लंगोटी,भिक्षापात्र,कुछ तो रखोगे। नहीं तो ज़िन्दगी चलेगी कैसे? जीओगे कैसे?कोई राजमहल ही नहीं बांधते हैं,कोई भी चीज़ बांध लेगी। तो असली सवाल यह नहीं है कि क्या तुम्हारे पास है,असली सवाल यह है कि क्या तुम्हारे पास वह कला है जिससे तुम वस्तुओं के बीच रहते हुए भी वस्तुओं से मुक्त रह सको?


Tuesday, September 6, 2016

सन्त हृदय

 
मौलाना रुम साहिब एक बार एक धनी व्यक्ति के घर गये मार्ग में चलते चलते उन्हें काफी देर हो गई।जब वे लगभग रात के दस बजेउस व्यक्ति के घर पहुँचे,द्वार बन्द हो चुका था। उस समय सर्दी भी अत्यधिक पड़ रही थी। रूम साहिब का शरीर ठंड के मारे थर-थर काँप रहा था, परन्तु आँखों से प्रभु प्रेम के अश्रु गिर रहे थे।सर्दी के कारण वे अश्रुकण रूम साहिब की दाढ़ी पर गिरकर बर्फ बनते जा रहे थे। उन्होने इतना कष्ट सहन कर लिया, परन्तु द्वार खटखटाना उचित न समझा ताकि उसे कष्ट न हो और उसके आराम मंे बाधा न पड़े। दरअसल उस व्यक्ति ने हज़रत मौलाना रुम साहिब जी को एक दिन पहले अपने घर पर भोजन के लिये निमन्त्रण दिया था।लेकिन अगले दिन उसे स्मरण ही न रहा कि उसने रुम साहिब को भोजन के लिये निमन्त्रण दिया है और रात उनके आने की प्रतीक्षा किये बिना ही सो गया था।
     जब प्रातः उसने द्वार खोला,तो रूम साहिब की दाढ़ी पर बर्फ जमी देख कर उसका माथा ठनका। कि बहुत भारी भूल हुई। उसने रूमसाहिब के चरणों में गिर कर अपनी भूल के लिये क्षमा मांगी कि मुझसे बहुत भारी अपराध हुआ मुआफ करें। और विनय की,हुज़ूर आप यदि एक बार भी द्वार खटखटा देते, तो हम लोग तुरन्त द्वार खोल देते।आप इस कष्ट से बच जाते और हमें आपके दर्शन तथा सेवा का सौभाग्य प्राप्त हो जाता। रूमसाहिब ने हंसते हुये फरमाया-आपके आराम में बाधा डालने की अपेक्षा मुझे अपने शरीर पर कष्ट वहन करनाअधिक श्रेष्ठ प्रतीत हुआ। और हमारी इस कुर्बानी के बदले अगर तुम परमात्मा की राह में चल पड़ो तो समझो कि ये सौदा बहुत सस्ता है। इस प्रकार के क्रियात्मिक जीवन से सन्त महापुरुष लोगों के सम्मुख प्रमाण प्रस्तुत कर जाते हैं।

Friday, September 2, 2016

मेरी हालत खुद देख लो


प्रतीक्षा करो।इसका अर्थ यह नहीं है कि, प्यासे मत बनो। प्यास तो तीव्र हो, प्रतीक्षा अनंत हो। प्यास तो ऐसी हो, जैसे अभी चाहते हो और प्रतीक्षा ऐसी हो कि जैसे कभी भी मिलेगा, तो भी जल्दी है। ये दो गुण तुम्हारी जीवन-धारा में जुड़ने चाहियें। सूफी फकीर बायज़ीद अपने शिष्यों से कहा करता था, कि हर काम ऐसे करो, जैसे यह आखिरी दिन है। आलस्य का उपाय नहीं है। यह सूर्यास्त आखिरी सूर्यास्त है। अब कोई सूर्योदय नहीं होगा। कोई कल नहीं है, बस आज सब समाप्त है। और हर काम ऐसे भी करो कि जीवन अनंतकाल तक चलेगा। कोई जल्दी नहीं है। बड़ा विरोधाभास है। ये तुम दोनों बात एक साथ कैसे साध सकोगे। ये साधी जाती हैं। ये सध जाती हैं। और जिस दिन ये सधती है, तुम्हारे भीतर एक ऐसा अपूर्व संगीत जन्मता है, जिसमें प्यास तो प्रबल होती है, प्रतीक्षा भी उतनी ही प्रबल होती है। प्यास तो तुम्हारी होती है, तुम जलते हो, आग की लपट बन जाते हो, व्याकुलता गहन होती है। यह तुम्हारी दशा है, लेकिन इस कारण तुम परमात्मा से यह नहीं कहते कि तू अभी मिल। तुम परमात्मा से कहते हो, यह प्यास मेरी है, मैं जलूँगा, लेकिन मैं राज़ी हूँ, जब तुझे मिलना हो, तेरी सुविधा से मिल। मैं द्वार पर बैठा रहूँगा। मैं दस्तक भी न दूँगा। मैं प्यासा रहूँगा। मेरी प्यास एक अग्नि बन जायेगी अगर वही मेरे द्वार दस्तक बन जाये तो पर्याप्त है, लेकिन मैं और जल्दी न करूंगा। यह भक्ति का रसायन है। यह भक्ति का पूरा शास्त्र है कि तुम माँगो भी और जल्दी भी न करो। प्रार्थना भी हो, और होंठ पर माँग भी नआये।
     बायजीद जब प्रार्थना करता था, तो कभी उसके होंठ न हिलते थे। शिष्यों ने पूछा, हम प्रार्थना करते हैं, कुछ कहते हैं, तो होंठ हिलते हैं आपके होंठ नहीं हिलते? आप पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं भीतर? क्योंकि भीतर भी आप कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता। बायजीद ने कहा, कि मैं एक बार एक राजधानी से गुज़रता था, और एक राजमहल के सामने सम्राट के द्वार पर मैंने एक सम्राट को भी खड़े देखा, और एक भिखारी को भी खड़े देखा। वह भिखारी बस खड़ा था। फटे-चीथड़े थे शरीर पर। शरीर ढंका नहीं है उन कपड़ों से। उससे तो नंगा भी होता तो भी ज्यादा ढंका होता। पेट सिकुड़कर पीठ मेे लग गया है, हड्डियाँ निकल आयी हैं, आँखें धंस गयी हैं। जीर्ण-जर्रजर्र देह थी, जैसे बहुत दिन से भोजन न मिला हो। शरीर सूख कर काँटा हो गया। बस आँखें  ही दीयों की तरह जगमगा रही  थीं। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा-अब गिरा! सम्राट उससे बोला कि बोलो क्या चाहते हो? उस फकीर ने कहा, अगर मेरे, आपके द्वार पर खड़े होने से, मेरी माँग का पता नहीं चलता, अगर मुझे देखकर तुम्हें दया नहीं आती तो मेरी बात सुनकर भी क्या फर्क पड़ेगा। तो कहने की कोई ज़रूरत नहीं। क्या कहना है और? मैं द्वार पर खड़ा हूँ, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है। बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना बन्द कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूँ। वह देख लेगा। मैं क्या कहूँ? और अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे? और अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकता, तो मेरे शब्दों को क्या समझेगा।
      लबे-इज़हार की ज़रूरत क्या। आप हूँ अपने दर्द की फरियाद। ।
भक्त जलता है। बड़ी गहन पीड़ा है उसकी। गहनतम पीड़ा है भक्ति की। उससे बड़ी कोई  पीड़ा नहीं। और मिठास भी बड़ी है उस पीड़ा में, क्योंकि वह एक मीठा दर्द है, और परम प्रतीक्षा भी है उसमें। भक्त रुक सकता है, अनंतकाल तक रुक सकता है। और जिस दिन तुम अनंतकाल तक रुकने को तैयार हो, उसी दिन उसी शान्ति में द्वार खुलता है। प्रकृति बड़ी शांति से बहती है। फूल जल्दी नहीं करते। वृक्ष जल्दी नहीं पकते-रुकते हैं, राह देखते हैं चांद-तारे भागते नहीं, अपनी गती को स्थिर रखते हैं।