Friday, July 8, 2016

जो लिया गुरु से-दो बता गुरु का

श्री प्रथम पादशाही जी ने एक बार वचन फरमाये कि एक तालाब के किनारे एक बगुला रहता था उसका यह स्वभाव था कि जब कभी मछली पकड़ता, उसको अपनी चोंच से पकड़ कर आकाश की ओर उछालकर फिर उसे अपनी चोंच से रोकता और निगल जाया करता। एक व्यक्ति ने उसे ऐसा करते देखकर मन में विचार किया कि इस करतब को सीखना चाहिए और वह मुहं से लकड़ी उछालकर दांतों पर रोकने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसे अभ्यास हो गया। वह लोहे के भाले को उछालकर दांतों पर रोकने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसे ऐसा अभ्यास हो गया वह लोहे के भाले को उछालकर अपने दांतों पर रोकने लगा। उसके इस करतब की प्रसिद्धी दूर-दूर तक फ़ैल गई। एक राजा ने भी उस व्यक्ति के विषय में सुना और यह तमाशा देखने के लिए उसको अपने दरबार में बुलवाया। उसके करतब को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने पूछा कि तुमने यह करतब कहां से सीखा और तुम्हारा गुरु कौन है। उस व्यक्ति को बगुले का नाम बताने में शर्म महसूस हुई। अत: वास्तविकता को छिपा कर कहने लगा- "राजा साहिब। मैंने यह करतब किसी से नहीं सीखा, यूँही अपने आप ही मुझको आ गया है राजा बड़ा दूरदर्शी था। वह अपने मंत्री से कहने लगा-इसको अपने गुरु का नाम लेने में शर्म आ रही है इसका कभी कल्याण ना होगा"। और हुआ भी ऐसा ही। दोबारा करतब दिखाते हुए जब वह भाला दांतों पर रोकने लगा, तो उसके शरीर का संतुलन बिगड़ गया जिससे उसका मुहं खुल गया और भाला उसके गले से नीचे उतर गया और उसकी मृत्यु हो गई। यह कथा सुनकर श्री परमहंस दयाल जी ने फ़रमाया- सतगुरु तो तत्वज्ञान का उपदेश देते और भक्ति की दात बक्शते है, परन्तु उनके अतिरिक्त परमार्थी जीव को जहाँ कहीं से भी शिक्षा मिले, उसे वह शिक्षा ग्रहण कर लेनी चाहिए और उस प्राणी अथवा पदार्थ को अपना गुरु मान लेने तथा उसका नाम लेने में झिझकना नहीं चाहिए।।

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