Saturday, July 23, 2016

सुग्रीव जी का मोह

कहते है कि जब सुग्रीव और भगवान श्री राम जी की मित्रता हो गई तो सुग्रीव ने प्रभु जी को माता सीता की खोज कर उन्हें वापिस ले के आने का वायदा किया। कुछ समय बीत गया श्री राम जी ने लक्ष्मण से कहा वर्षा ऋतु गई और शरद ऋतु आ गई परन्तु अभी तक जानकी जी की कोई सुध न मिली। जैसे कैसे एक बार कही से पता चल जाए कि जानकी फलां जगह पर है तो मुझे काल से क्यों न लड़ना पड़े, एक पल में उसे जीत कर सीता जी को वापस ले आऊं।
हे तात। जो जानकी कहीं भी हुई परन्तु जीती होगी तो चतन करके अवश्य ले आऊंगा। मालूम होता है सुग्रीव ने भी राज्य तख्त, शहर, स्त्री और खजाना पाकर हमारी सुधि विसार दी है अर्थात सुग्रीव भी माया में फंस कर हमको भूल गया है। जिस बाण से मैंने बाली को मारा है। इस मुर्ख का भी उसी बाण से नाश करूंगा।

जासु कृपा छूटे मद मोहा।
ताकहु उमा कि सपनेहु कोहा।।

शिवजी कहते है, हे पार्वती। जिनकी कृपा मात्र से ही संसार के मद, मान, मोह, छूट जाते है। उसमे सुपने के अन्दर भी क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता। यह केवल भय दिखाया है ताकि दास सावधान रहे। क्योंकि भय के बिना भक्ति नहीं हो सकती। भय तथा क्रोध के अन्तर्गत भी दास पर उनका प्यार भरा होता है। लक्ष्मण ने भगवान को क्रोधवंत जान धनुष बाण हाथ में लिया। भगवान ने देखा कि लक्ष्मण तो तैयार हो गया है, कहीं बेचारे सुग्रीव को मार ही ना डाले। तब करुणा सागर भगवान ने लक्ष्मण को समझाया कि हे भाई। सुग्रीव को केवल भय दिखाकर मेरे पास ले आओ, मारना नहीं क्योंकि वह मेरा मित्र है। उधर तो भगवान की मौज उठी कि लक्ष्मण जी के द्वारा वह सुग्रीव को अपने पास बुलाकर उससे अपना कारज करवाने की सोच रहे है तो इधर हनुमान जी के दिल में ख्याल हुआ कि भगवान का कार्य सुग्रीव ने विसार दिया है, उसे चेतन्य करना चाहिये।

सेवक स्वामी एक मत, जो मत में मत मिल जाय।
चतुराई रीझे नहीं, रीझे मन के भाये।।

हनुमान जी ने सुग्रीव के पास जाकर सिर निवाया और राज्य नीति के चारो नियमो साम, दाम, भेद और दण्ड को कह कर समझाया। हे राजन। साम (समान दृष्टि) से भगवान आप के साथ मित्रता बना चुके है। दाम (धन दौलत) के साथ राज्य आदि दे चुके है। अब रहे भेद और दण्ड के लिए भगवान का बाण है, जिससे बाली को मारा था। इसलिए शीघ्र ही जानकी जी की खोज का कार्य आरम्भ करना चाहिये। तब सुग्रीव ने सुनकर बड़ा भय माना। कहने लगा सच है, विषयो ने मेरी बुद्धि मार दी और ज्ञान हर लिया। अब हे हनुमान। शीघ्र ही जहाँ तहां दूत भेजे जावे और जानकी जी की कोई खोज निकाली जाये। उसके पश्चात लक्ष्मण जी भगवान की आज्ञा से शहर में आते है और सुग्रीव पर क्रोध करते है। परन्तु इधर तो भगवान की प्रेरणा से हनुमान जी ने पहले ही मार्ग साफ़ कर रखा था। सुग्रीव जी, लक्ष्मण जी से श्रमा मांगते है और सब मिलकर भगवान के पास जाते है, तब सुग्रीव जी भगवान के चरणकमलो में सिर निवाय हाथ जोड़कर प्रार्थना करते है। हे नाथ। मेरा कोई दोष नहीं है आपकी माया अति प्रबल है, जिसने मुझे भूला दिया है। हे देव। यह तब ही छूटती है जब आप दया करते है जैसे अब मै माया में फंस गया था और आपने दया करके मुझे छुड़ा लिया। हे स्वामी। सुर, नर, मुनि लोग भी विषयों के वश में है तो फिर मै अति नीच कामी पशु बन्दर की क्या गिनती है। हे नाथ। मेरा तो अनुभव यह है कि जिस मनुष्य को स्त्री के नेत्रों का बाण नहीं लगा, और जो मनुष्य क्रोध रुपी अँधेरी रात में जागा हुआ है अर्थात क्रोध और मोह अज्ञान से साफ़ है। हे प्रभु। जिसने लोभ रुपी फांसी में अपना गला नहीं बंधाया है वह मनुष्य तो आपके समान है अर्थात तुम में और उसमे कोई भेद नहीं है। परन्तु यह गुण जीव को अपनी साधना और कमाई से प्राप्त नहीं हो सकती, ये तो केवल आप की दया से ही कोई कोई पा सकते है।
        तब भगवान सुग्रीव की इस प्रकार ज्ञान, वैराग युक्त वाणी सुनकर हँसे। हे सुग्रीव। चिन्ता मत करो, तुम मुझे अपने भाई भरत के समान प्यारे हो। हे सखा अब मन लगाकर यही यतन करो जिससे जानकी की सुधि मिले। अब सीता जी की खोज शुरू हो जाती है, सुग्रीव जी आज्ञा पाते हुए, अनेक शूरवीर योद्धा अपनी-अपनी सेनाओ के सहित सब दिशाओ को चल पड़ते है। सबसे पीछे अंगद, नील, जाम्बवन्त और हनुमान आदि योद्धाओ को मुखातिव करते हुए सुग्रीव इस प्रकार शिक्षा देकर उनको दक्षिण दिशा को भेजते है। हे तात। भगवान अन्तर्यामी है, वह सब किसी के दिल की अवस्था को जानते है। अगर जीव कपट रख कर सेवा करता है तो भी वह अपने अन्तरीव रूप से उस कपट को जानते है। यदि वह बाहर से छल कपट से वर्ताव करता है तो भी वह जानते है। इसलिए भाइयो अन्दर और बाहर दो प्रकार से छल- हीन होकर सच्चाई के साथ जो सेवा का अवसर आपको मिला है उसे सफल बनाओ अर्थात स्वामी के सन्मुख रहकर सेवा करो, सन्मुख रहने से आपको शक्ति मिलेगी। इतनी वार्ता सुग्रीव के मुख से सुनकर वह सब योद्धा आज्ञा मांग और चरणों में सिर निवा कर हृदय में भगवान का ध्यान और सुमिरण करते हुए चल पड़े। सब से पीछे हनुमान जी ने सिर निवाया। तब भगवान ने यह विचार कर कि कार्य तो इनसे होगा, अपने निकट बुलाया। सिर के ऊपर कमल सा हाथ धर कर और अपना दास जान कर सीता की पहचान के निमित्त अंगूठी उतर कर दी और बोले- हे महावीर। जानकी जी को बहुत प्रकार से समझा कर हमारा विरह तथा बल बताना और धैर्य देकर शीघ्र वापस लौटना। यह वचन सुन कर हनुमान जी ने अपना जन्म सफल माना और कृपा निधान भगवान के सुन्दर रूप को हृदय में धर कर चल पड़े। हनुमान, अंगद, नल, नील, जाम्बवन्त आदि सब योद्धा अपनी सेना को साथ लिये हुए सीता जी की खोज कर रहे है। जंगल, पहाड़, गुफा, नदियाँ, तालाब और कुंए सब ढूंढे परन्तु सीता जी का कहीं भी पता जब नहीं मिलता, तब कुछ निराश होकर चिन्तातुर हो जाते है। समुन्द्र के किनारे डर्ब बिछाकर बैठे हुए सोचते है कि अब क्या किया जाये, तब अंगद नेत्रों में जल भर के कहता है- हे भाईयो। अब दोनों और से हमारी मृत्यु पास आ गई है क्योंकि इधर तो सीता जी का कुछ पता नहीं चल रहा और उधर वापिस जाने सुग्रीव मारेंगे। अंगद जी के इस प्रकार के वचन सुनकर सब शूरवीर नीचे मुहं करके नेत्रों से जल बरसाने लगते है। इस सब में जाम्बवन्त बुजुर्ग थे और पुराने होने के कारण भगवान की महिमा को जानते थे। सब को दुखी देखकर बोले भाईयो। घबराओ नहीं, इस समय आप परीक्षा के एक ऐसे दौर से गुजर रहे है, जो दौर भक्ति और सेवकाई के रस्ते में अक्सर भक्तो पर आया करते है इसलिए जो कुछ भी रास्ते में आता जाये उसे भगवान की इच्छा समझो और अपने कर्त्तव्य का पालन करते चलो। मोक्ष पद का सुख सबसे ऊपर है, बाकी सम्पूर्ण सुख इसमें आ जाते है। किन्तु भक्ति मार्ग में सेवक को एक छोटे से सुख से लेकर मोक्ष तक के सुख का भी त्याग कर देना चाहिये।
इस प्रकार जब परस्पर वचन हो रहे थे, तब पहाड़ की गुफा में संपाती इनकी बाते सुन रहा था। बाहर निकल आया और इन सब को देखकर दिल में खुश हुआ कि आज विधाता ने बहुत अच्छा आहार दिया है। आज इन सब को भश्रण करूँगा। बहुत दिन से भूखा मरा जाता था। कभी पेट भर भोजन नहीं मिला था। सो आज विधाता ने एक ही बार दे दिया। गीध के वचन सुनकर सब वानर डरे कि अब निश्चय ही मरण होगा। तब जाम्बवन्त सोचने लगे कि संपाती को देखकर यह दशा हुई तो आगे क्या बनेगा। अंगद चूँकि पहले से जानते थे कि यह संपाती जटायु के समान दूसरा कौन भाग्यवान होगा जो श्री रामचन्द्र जी के कार्य में अपना शरीर त्यागकर बैकुण्ठ को गया। यह बाते ऐसे ऊँचे स्वर से कहीं गई कि संपाती सुन ले। फिर अंगद बोले- जो जटायु के समान श्री राम चन्द्र जी के चरण कमलो में चित्त लगता है उसके समान कोई धन्य नहीं है। यह हर्ष शोक युक्त वाणी सुनकर संपाती निकट आ गया। तब सब वानर सुनकर संपाती निकट आ गया। तब सब वानर डरे। जानकी जी की सुधि न मिलने और सुग्रीव के भय से कुछ तो पहले ही घबराये हुए थे, परन्तु अब संपाती को देखकर रहा सहा खून भी खुश्क हो गया। जब उसे देखकर सब भागने लगे तब संपाती ने सौगन्ध दिला कर खड़े किये। उन्हें अभयदान देकर संपाती बोला डरो मत। मै भी श्री रामचन्द्र जी का सेवक हूँ। तुम कौन हो अपनी कथा सुनाओ। तब उन्होंने जटायु के मरने का और सीता की सुधि के निमित्त अपने आने का वृतान्त सुनाया। तब संपाती ने भाई की करनी सुनकर बहुत प्रकार से भगवान की महिमा वर्णन की, तब वह अपनी कथा सुनाने लगा। हे शूरवीरो। सुनो, हम दोनों भाई पहले जोबन अवस्था में इर्ष्या वश सूर्ये के निकट उड़ गये। जटायु तो तेज न सह सका और वापस लौट आया। मै अभिमान के वश हो सूर्ये के निकट होने लगा। परन्तु सूर्ये के अपार तेज से मेरे पंख जल गये और घोर चीत्कार कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। एक चन्द्रमा नाम के महात्मा थे, मुझे देखकर उनके दिल में दया आई। बहुत प्रकार से उन महात्मा ने सत्संग सुनाया और देह से उत्पन्न हुए अभिमान को दूर किया। तब वे बोले हे गीधराज। त्रेतायुग में भगवान मनुष्य का शरीर धारण करेंगे और उनकी स्त्री को रावण हर लेगा। उनकी खोज करने को वे दूत भेजेंगे तब उनके मिलने से तुम पवित्र हो जाओगे। तुम्हारे पंख नये जम आवेंगे, तुम चिन्ता मत करो। उन्हें तुम सीता दिखा देना। यह कहकर वह महात्मा अपने आश्रम को गये, उस समय हृदय में कुछ ज्ञान हुआ। फिर संपाती बोला हे भाईयो। मेरी एक कथा और सुनो। जो आपके लिए परम हितकारी है। मेरा सुर्षण नाम का पुत्र इस स्थान पर मेरी सेवा करता था। भूख से व्याकुल होकर एक दिन मैने उससे कहा, बेटा। शीघ्र कहीं से भोजन लाओ, नहीं तो प्राण निकलते है। पुत्र सिर पर आज्ञा धर कर चला। आकाश के मार्ग से एक घोर घने जंगल में जाकर उसने जंगल के अनेक जानवरों को मारा। सूर्ये के अस्त होने पर जब वह भोजन लेकर वापस आया तब मारे भूख के मुझे बड़ा क्रोध आया। मै नीच और क्रोध के वश पुत्र को शाप देने लगा। तब उसने मेरी बाँह पकड़ कर समझाया और कहा पिताजी। मेरी बात चित्त लगाकर सुनो। जब मै वन को शिकार के लिए गया तो वहाँ एक बड़ा उत्पात देखा। एक पुरुष जिसके दस सिर थे और बीस भुजा थी और शीघ्रता से मार्ग में चला जाता था उसके संग में एक सुंदर स्त्री थी। जिसका रूप कोई वर्णन नहीं कर सकता। उस पुरुष को भी एक जन्तु जानकर पीछे से पकड़ा और मारने लगा। परन्तु उस स्त्री को देखकर दया आई और उसे छोड दिया। मेरी बड़ी विनती करके और मुझसे छुटकारा पाकर वह दक्षिण दिशा को चला गया। इस कारण मुझे देर लग गई। वचन सुनते ही मुझे अंगार सा लगा अर्थात क्रोध आ गया। परन्तु अपनी गति न होने के कारण जी में हार गया कि मै अब पंखहीन क्या कर सकता हूँ। पुत्र से कहा अरे। मेरे तो पंख नहीं, तू ऐसा अवसर पाकर क्यों चूक गया। यह कह कर पुत्र के बल को धिक्कार दिया। अरे। तू उसे पकड़ कर मेरे पास क्यों नहीं लाया। वह तो रावण था और श्री रामचन्द्र जी की स्त्री को हरे जाता था। फिर मुझे उस महात्मा जी के वचन हृदय में फर आये कि भगवान सीता की खोज के लिए अपने दूत भेजेंगे। उनके दर्शन पाकर तुम्हारे पंख जम आवेंगे और तुम उनको मिलकर पवित्र होगे। ऐसा विचार कर मन को धीरज हुआ, सो उस दिन से प्रेम के साथ आपका मार्ग देखता था। सो आज उन महात्मा के वचन सत्य हुए। इसलिए मेरे वचनों को हृदय में धारण करो और भगवान का कार्य करो। और सुनो। त्रिकुट पर्वत के ऊपर लंकापुरी है। उस लंकापुरी में रावण का राज्य है। वहाँ अशोक नाम का एक बाग़ है वहाँ रावण की कैद में बैठी हुई जानकी जी सोचती रहती है। संपाती की वाणी सुनकर सब वानर दक्षिण दिशा को देखने लगे। संपाती बोला तुम यहाँ से उसे नहीं देख सकते परन्तु मै देखता हूँ। क्योंकि गीध की दृष्टि बड़ी अपार होती है। अब मै बूढा हो गया हूँ, नहीं तो आपकी कुछ सहायता अवश्य करता। सौ योजन समुन्द्र की चौडाई है जो कोई बुद्धिमान सौ योजन समुन्द्र लाँघ सके वही भगवान का कार्य कर सकता है जो कोई श्री भगवान का कार्य कर सके, उसके समान कोई बडभागी नहीं है। मुझे देखकर मन में धीरज धरो कि भगवान की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया, फिर पंख जम आये। जब भगवान के सेवको के दर्शन से इतना लाभ हो सकता है तो तुम उस भगवान के सेवक होकर चिंता न करो। यह समुन्द्र सौ योजन का है किन्तु तुम उस भगवान के सेवक जिनका नाम सुमिरण से अनेक पापी संसारी रुपी समुन्द्र से पार हो जाते है जिसका कोई पारावार ही नहीं है।।
          

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