बौद्ध भिक्षु श्रोण को देखने-सुनने
हज़ारों व्यक्ति नगर के बाहर एकत्र हुए थे। उनका चित्त निर्वात् स्थान में
जलती दीपशिखा की भांति थिर था। उस समूह में एक धनी महिला कातियानी भी बैठी
थी। संध्या हो चली तो उसने अपनी दासी से कहा,"तू जाकर घर में दीया जला दे।
मैं तो यह अमृतोपम उपदेश छोड़कर उठूंगी नहीं।' दासी घर पहुंची तो वहां सेंध
लगी हुई थी। अंदर चोर सामान उठा रहे थे और बाहर उनका सरदार रखवाली कर रहा
था। दासी उल्टे पांव वापस लौटी। चोरों के सरदार ने भी उसका पीछा किया। दासी
ने कातियानी के पास जाकर घबराए स्वर में कहा; "मालकिन, घर में चोर बैठे
हैं।' किन्तु कातियानी ने कुछ ध्यान न दिया। वह किसी और ही ध्यान में थी।
वह तो जो सुनती थी, सो सुनती रही। जहां देखती थी, वहां देखती रही, वह तो
जहां थी, वहीं बनी रही। वह किसी और ही लोक में थी उसकी आँखों में आनंदाश्रु
बहे जाते थे, दासी ने घबराकर उसे झकझोरा,"माँ! माँ! चोरों ने घर में सेंध
लगाई है। वे समस्त स्वर्णाभूषण उठाए लिए जा रहे हैं।' कातियानी ने आँखें
खोलीं और कहा,"पगली! चिन्ता न कर, जो उन्हें ले जाना है, ले जाने दे। वे
स्वर्णाभूषण सब नकली हैं। मैं अज्ञान में थी। इसलिए वे असली थे। जिस दिन
उनकी आँखें खुलेंगी, वे भी पायेंगे कि नकली हैं। आँखें खुलते ही वह स्वर्ण
मिलता है, जो न चुराया जा सकता है, न छीना ही जा सकता है। मैं उस स्वर्ण
को ही देख रही हूँ। वह स्वर्ण स्वयं में ही है।' दासी तो कुछ भी न समझ सकी।
वह तो हतप्रभ थी और अवाक् थी। उसकी स्वामिनी को यह क्या हो गया था? लेकिन
चोरों के सरदार का ह्मदय झंकृत हो उठा। उसके भीतर जैसे कोई बंद द्वार खुल
गया। उसकी आत्मा में जैसे कोई अनजला दीप जल उठा। वह लौटा और अपने मित्रों
से बोला," मित्रो! गठरियाँ यहीं छोड़ दो, यह स्वर्णाभूषण सब नकली हैं और आओ,
हम भी उसी सम्पदा को खोजें जिसके कारण गृहस्वामिनी ने इन स्वर्णाभूषणों को
नकली पाया है। मैं स्वयं भी उस स्वर्णराशि को देख रहा हूँ। वह दूर नहीं,
निकट ही है। वह स्वयं में ही है।'
No comments:
Post a Comment