Wednesday, June 1, 2016

लोई फाड़कर तीनों सेवकों को दी


     भेंट वही होती है जोअहंकार रहित निष्कामभाव से की जाए।किसी वस्तु को समर्पित करने के पश्चात् यदिआशा की जाए कि बदले में हमें कुछ मिलेगा,चाहे वह वस्तु के रूप में हो अथवा कृपा के रूप में,तो वह वस्तु समर्पण की सीमा में नहीं रह जाती। वह मात्र लौकिक लेन-देन की वस्तु ही  रह  जाती है। विचारशील को  तो उसकी याद भी नहीं आनी चाहिए याद आने का अर्थ है कि उस वस्तु से अब भी लगाव बना हुआ है, सच पूछा जाए तो यह समर्पण नहीं हुआ। समर्पण तभी कहा जा सकता है कि उस वस्तु की स्मृति ही न रहे।
     एक समय की बात है कि एक बार श्री श्री 108 श्री परमहँस दयाल जी महाराज एक वृक्ष की छाया में बैठकर सेवकों के साथ सत्संग एवं परमार्थ के विषय में वार्तालाप कर रहे थे। इतने में वहां श्री दर्शन एवं सतसंग का लाभ प्राप्त करने के लिए एक धनी सेठ जी काआगमन हुआ। सेठ जी ने आते ही श्री चरण कमलों में दण्डवत् प्रणाम करने के पश्चात् श्रद्धा व भक्ति-भाव पूर्वक एक बहुमूल्य शाल भेंट की तथा श्री वचनामृत पान करने के लिए वहीं बैठ गया। अकस्मात् तेज़ हवा चलने लगी।थोड़ी ही देर मेंआकाश बादलों से भर गया।वर्षा के साथ ओले भी बरसने लगे। अन्ततः बरसात तो रुक गई,किन्तु ठण्डी हवा चल पड़ी। दोनों सेवकों के वस्त्र पानी से भीग गये। ठण्डी हवा से वह काँपने लगे, लेकिन वे अपने परमप्रिय श्री गुरुदेव जी के दर्शन करने एवं उनके मुखारबिन्द से उच्चरित वचनों को ह्मदयंगम करने में लीन रहे।
     महापुरुष तो करूणागार एवं दयासिन्धु होते हैं शरणागतों कीसुरक्षा तथा कुशल-क्षेम में वे सदैव सजग रहते हैं। उन्होंने वह लोई उठाई और देखते ही देखते निज करकमलों से फाड़कर उसके तीन टुकड़े कर दिए। एक-एक टुकड़ा दोनों सेवकों को ओढ़ने के लिए दे दियाऔर तीसरे टुकड़े को स्वयंअपने श्री विग्रह के ऊपरओढ़ लिया। सेठ जी ने अपने द्वारा लाई गई बहुमुल्य लोई(शाल) की यह दशा देखी तो तुरन्त बोल उठे-""श्री महाराज जी! यह पश्मीने की लोई बहुत मुल्यवान है। इसके इस प्रकार टुकड़े होते देखकर मुझे तो बहुत खेद हो रहा है।''सेठ जी के यह वाक्य सुनकर दीनदयालु,परम हितैषी श्री सतगुरुदेव जी ने फरमाया, ""आपने तो वह लोई हमें अर्पण कर दी, तो फिर भी उसका मोह आपके ह्मदय में बना हुआ है। जो वस्तु अर्पण कर दी उस पर क्या अधिकार रहा। आप स्वयं देख रहे हैं कि लोई के टुकड़ों से इन दोनों सेवकों को कितनाआराम मिल रहा है।हमें सेवकों से प्यार है हम इन्हें कष्ट में कैसे देख सकते हैं। फिर एक टुकड़ा तो स्वयं हमने भीअपने ऊपरओढ़ लिया है।''जो वस्तुअर्पण कर दी जाए फिर उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं, चाहे वह जिस भी उपयोग में लायी जाए।अपितु निष्काम भाव से परिपूर्ण व आन्तरिक प्रेम से सनी हुई विनम्र भेंट होनी चाहिए। तभी उसे समर्पण कहा जाता है।श्री वचन सुनकर सेठ ने साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर क्षमा याचना की।                 


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