Thursday, June 30, 2016

सरलता

यह लेव तॉल्स्तॉय की बहुत प्रसिद्द कहानी है. रूस के ऑर्थोडॉक्स चर्च के आर्चबिशप को यह पता चला कि उसके नियमित प्रवचन में भाग लेने वाले बहुत से लोग एक झील के पास जाने लगे हैं. उस झील के बीच में छोटा सा एक टापू था जहाँ एक पेड़ के नीचे तीन बूढ़े रहते थे. गाँव वालों का यह कहना था कि वे तीनों संत हैं. आर्चबिशप को यह बात बहुत नागवार गुज़री क्योंकि ईसाई धर्म में संत केवल उन्हें ही माना जाता है जिन्हें वेटिकन द्वारा विधिवत संत घोषित किया गया हो.
आर्चबिशप क्रोधित हो गया – “वे तीनों संत कैसे हो सकते हैं? मैंने सालों से किसी को भी संतत्व की पदवी के लिए अनुशंसित नहीं किया है! वे कौन हैं और कहाँ से आये हैं?”. लेकिन आम लोग उन तीनों के दर्शनों के लिए जाते रहे और चर्च में आनेवालों की तादाद कम होती गयी.
अंततः आर्चबिशप ने यह तय किया कि वह उन तीनों को देखने के लिए जाएगा. वह नाव में बैठकर टापू की ओर गया. वे तीनों वहां मिल गए. वे बेहद साधारण अनपढ़ और निष्कपट देहातियों जैसे थे. दूसरी ओर, आर्चबिशप बहुत शक्तिशाली व्यक्ति था. रूस के ज़ार के बाद उस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण आदमी था वह. उन तीनों को देखकर वह खीझ उठा – “तुमें संत किसने बनाया?” – उसने पूछा. वे तीनों एक दूसरे का मुंह ताकने लगे. उनमें से एक ने कहा – “किसी ने नहीं. हम लोग खुद को संत नहीं मानते. हम तो केवल साधारण मनुष्य हैं”.
“तो फिर तुम लोगों को देखने के लिए इतने सारे लोग क्यों आ रहे हैं?”
वे बोले – “यह तो आप उन्हीं से पूछिए.”
“क्या तुम लोगों को चर्च की आधिकारिक प्रार्थना आती है?” – आर्चबिशप ने पूछा.
“नहीं. हम तो अनपढ़ हैं और वह प्रार्थना बहुत लंबी है. हम उसे याद नहीं कर सके.”
“तो फिर तुम लोग कौन सी प्रार्थना पढ़ते हो?”
उन तीनों ने एक-दूसरे की ओर देखा. “तुम बता दो” – एक ने कहा.
“तुम ही बता दो ना” – वे आपस में कहते रहे.
आर्चबिशप यह सब देखसुनकर अपना आप खो बैठा. “इन लोगों को प्रार्थना करना भी नहीं आता! कैसे संत हैं ये?” – उसने मन में सोचा. वह बोला – “तुम लोगों में से कोई भी बता सकता है. जल्दी बताओ!”
वे बोले – “दरअसल हम आपके सामने बहुत ही साधारण व्यक्ति हैं. हम लोगों ने खुद ही एक प्रार्थना बनाई है पर हमें यह पता नहीं था कि इस प्रार्थना को चर्च की मंजूरी मिलना ज़रूरी है. हमारी प्रार्थना बहुत साधारण है. हमें माफ़ कर दीजिये कि हम आपकी मंजूरी नहीं ले पाए. हम इतने संकोची हैं कि हम आ ही न सके.”
“हमारी प्रार्थना है – ईश्वर तीन है और हम भी तीन हैं, इसलिए हम प्रार्थना करते हैं – ‘तुम तीन हो और हम तीन हैं, हम पर दया करो’ – यही हमारी प्रार्थना है.”
आर्चबिशप बहुत क्रोधित हो गया – “ये प्रार्थना नहीं है! मैंने ऐसी प्रार्थना कभी नहीं सुनी!” – वह ज़ोरों से हंसने लगा.
वे बोले – “आप हमें सच्ची प्रार्थना करना सिखा दें. हम तो अब तक यही समझते थे कि हमारी प्रार्थना में कोई कमी नहीं है. ‘ईश्वर तीन है, और हम तीन हैं’, और भला क्या चाहिए? बस ईश्वर की कृपा ही तो चाहिए?
उनके अनुरोध पर आर्चबिशप ने उन्हें चर्च की आधिकारिक प्रार्थना बताई और उसे पढ़ने का तरीका भी बताया. प्रार्थना काफी लंबी थी और उसके ख़तम होते-होते उनमें से एक ने कहा – “हम शुरू का भाग भूल गए हैं”. फिर आर्चबिशप ने उन्हें दोबारा बताया. फिर वे आख़िरी का भाग भूल गए…
आर्चबिशप बहुत झुंझला गया और बोला – “तुम लोग किस तरह के आदमी हो!? तुम एक छोटी सी प्रार्थना भी याद नहीं कर सकते?”
वे बोले – “माफ़ करें लेकिन हम लोग अनपढ़ हैं और हमारे लिए इसे याद करना थोडा मुश्किल है, इसमें बहुत बड़े-बड़े शब्द हैं… कृपया थोड़ा धीरज रखें. यदि आप इसे दो-तीन बार सुना देंगे तो शायद हम इसे याद कर लेंगे”. आर्चबिशप ने उन्हें तीन बार प्रार्थना सुना दी. वे बोले – “ठीक है, अबसे हम यही प्रार्थना करेंगे, हांलाकि हो सकता है कि हम इसका कुछ हिस्सा कहना भूल जाएँ पर हम पूरी कोशिश करेंगे”.
आर्चबिशप संतुष्ट था कि अब वह लोगों को जाकर बताएगा कि उसका पाला कैसे बेवकूफों से पड़ा था. उसने मन में सोचा – ‘अब लोगों को जाकर बताऊँगा कि वे जिन्हें संत कहते हैं उन्हें तो धर्म का क-ख-ग भी नहीं पता. और वे ऐसे जाहिलों के दर्शन करने जाते हैं!’. यही सोचते हुए वह नाव में जाकर बैठ गया. नाव चलने लगी और वह अभी झील में आधे रास्ते पर ही था कि उसे पीछे से उन तीनों की पुकार सुनाई दी. उसने मुड़कर देखा, वे तीनों पानी पर भागते हुए नाव की तरफ आ रहे थे! उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वे लोग पानी पर भागते हुए आये और नाव के पास पानी में खड़े हुए बोले – “माफ़ कीजिये, हमने आपको कष्ट दिया, कृपया चर्च की प्रार्थना एक बार और दोहरा दें, हम कुछ भूल गए हैं”.
आर्चबिशप ने कहा – “तुम लोग अपनी प्रार्थना ही पढो. मैंने तुम्हें जो कुछ भी बताया उसपर ध्यान मत दो. मुझे माफ़ कर दो, मैं बहुत दंभी हूँ. मैं तुम्हारी सरलता और पवित्रता को छू भी नहीं सकता. जाओ, लौट जाओ.”
लेकिन वे अड़े रहे – “नहीं, ऐसा मत कहिये, आप इतनी दूर से हमारे लिए आये… बस एक बार और दोहरा दें, हम लोग भूलने लगे हैं पर इस बार कोशिश करेंगे कि इसे अच्छे से याद कर लें.”
लेकिन आर्चबिशप ने कहा – “नहीं भाइयों, मैं खुद सारी ज़िंदगी अपनी प्रार्थना को पढ़ता रहा पर ईश्वर ने उसे कभी नहीं सुना. हम तो बाइबिल में ही यह पढ़ते थे कि ईसा मसीह पानी पर चल सकते थे पर हम भी उसपर शंका करते रहे. आज तुम्हें पानी पर चलते देखकर मुझे अब ईसा मसीह पर विश्वास हो चला है. तुम लोग लौट जाओ. तुम्हारी प्रार्थना संपूर्ण है. तुम्हें कुछ भी सीखने की ज़रुरत नहीं है”.

Wednesday, June 29, 2016

त्यागी कौन?


राजा ने योगी को नमस्कार किया। योगी ने पूछा, "आपने मेरा इतना सम्मान क्यों किया?' राजा ने कहा, "भगवन! आप घर-परिवार का त्याग कर एकांत में साधना करते हैं, इसलिए आप पूज्य हैं।' योगी बोला, "लेकिन आपका त्याग मुझसे कहीं ज्यादा है।' राजा ने आश्चर्यचकित होकर कहा, "कैसे?' योगी ने कहा, "किसी व्यक्ति के पास एक भव्य भवन है। अगर वह रोज झाड़ू लगाकर उसमें से कूड़ा-कचरा बाहर निकालता है तो क्या वह त्यागी कहलाएगा?' राजा ने कहा, "इसमें त्याग कैसा। कूड़ा तो बाहर निकालने की ही चीज़ है।' योगी ने फिर कहा, "राजन्! यदि कोई दूसरा व्यक्ति घर की बहुमूल्य वस्तुएं दूसरों को दे देता है तो उसे आप क्या कहेंगे?' राजा ने कहा, "निश्चय ही वह महान त्यागी है?' योगी ने मुस्कराते हुए कहा, "राजन्! इसलिए तो मैने आपको महान त्यागी कहा है। आपने ध्यान, आत्मचिंतन और साधना जैसी महान चीज़ों का त्याग किया है और सोना-चांदी जैसी बहुमूल्य वस्तुएं अपने पास रखी हैं, जबकि मैने तो बस परिवार का ही त्याग किया है। फिर आपका त्याग तो ज्यादा बड़ा हुआ न।' राजा योगी का आशय समझ गया। उस दिन से वह ईश्वरोपासना और जनकल्याण में जुट गया।

Saturday, June 25, 2016

अक्लमंद हंस


एक बहुत बडा विशाल पेड था। उस पर बीसीयों हंस रहते थे। उनमें एक बहुत स्याना हंस था,बुद्धिमान और बहुत दूरदर्शी। सब उसका आदर करते ‘ताऊ’ कहकर बुलाते थे। एक दिन उसने एक नन्ही-सी बेल को पेड के तने पर बहुत नीचे लिपटते पाया। ताऊ ने दूसरे हंसों को बुलाकर कहा “देखो,इस बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सबको मौत के मुंह में ले जाएगी।”
एक युवा हंस हंसते हुए बोला “ताऊ, यह छोटी-सी बेल हमें कैसे मौत के मुंह में ले जाएगी?”
स्याने हंस ने समझाया “आज यह तुम्हें छोटी-सी लग रही हैं। धीरे-धीरे यह पेड के सारे तने को लपेटा मारकर ऊपर तक आएगी। फिर बेल का तना मोटा होने लगेगा और पेड से चिपक जाएगा, तब नीचे से ऊपर तक पेड पर चढने के लिए सीढी बन जाएगी। कोई भी शिकारी सीढी के सहारे चढकर हम तक पहुंच जाएगा और हम मारे जाएंगे।”
दूसरे हंस को यकीन न आया “एक छोटी सी बेल कैसे सीढी बनेगी?”
तीसरा हंस बोला “ताऊ, तु तो एक छोटी-सी बेल को खींचकर ज्यादा ही लम्बा कर रहा है।”
एक हंस बडबडाया “यह ताऊ अपनी अक्ल का रौब डालने के लिए अंट-शंट कहानी बना रहा हैं।”
इस प्रकार किसी दूसरे हंस ने ताऊ की बात को गंभीरता से नहीं लिया। इतनी दूर तक देख पाने की उनमें अक्ल कहां थी?
समय बीतता रहा। बेल लिपटते-लिपटह्टे ऊपर शाखों तक पहुंच गई। बेल का तना मोटा होना शुरु हुआ और सचमुच ही पेड के तने पर सीढी बन गई। जिस पर आसानी से चढा जा सकता था। सबको ताऊ की बात की सच्चाई सामने नजर आने लगी। पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था क्योंकि बेल इतनी मजबूत हो गई थी कि उसे नष्ट करना हंसों के बस की बात नहीं थी। एक दिन जब सब हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे तब एक बहेलिआ उधर आ निकला। पेड पर बनी सीढी को देखते ही उसने पेड पर चढकर जाल बिछाया और चला गया। सांझ को सारे हंस लौट आए पेड पर उतरे तो बहेलिए के जाल में बुरी तरह फंस गए। जब वे जाल में फंस गए और फडफडाने लगे, तब उन्हें ताऊ की बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का पता लगा। सब ताऊ की बात न मानने के लिए लज्जित थे और अपने आपको कोस रहे थे। ताऊ सबसे रुष्ट था और चुप बैठा था।
एक हंस ने हिम्मत करके कहा “ताऊ, हम मूर्ख हैं, लेकिन अब हमसे मुंह मत फेरो।’
दूसरा हंस बोला “इस संकट से निकालने की तरकीब तू ही हमें बता सकता हैं। आगे हम तेरी कोई बात नहीं टालेंगे।” सभी हंसों ने हामी भरी तब ताऊ ने उन्हें बताया “मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब बहेलिया आएगा, तब मुर्दा होने का नाटक करना। बहेलिया तुम्हें मुर्दा समझकर जाल से निकाल कर जमीन पर रखता जाएगा। वहां भी मरे समान पडे रहना। जैसे ही वह अन्तिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब उड जाना।”
सुबह बहेलिया आया। हंसो ने वैसा ही किया, जैसा ताऊ ने समझाया था। सचमुच बहेलिया हंसों को मुर्दा समझकर जमीन पर पटकता गया। सीटी की आवाज के साथ ही सारे हंस उड गए। बहेलिया अवाक होकर देखता रह गया।
सीखः बुद्धिमानों की सलाह गंभीरता से लेनी चाहिए।

Thursday, June 23, 2016

जो भृगु मारी लात


          क्षमा बड़न  को  चाहिये, छोटन को उतपात।।
          कहा विस्नु को घटि गये, जो भृगु मारी लात।।
बड़प्पन क्षमाशील होने में है।ओछे,दुर्जन,और खल पुरुष तो उपद्रव करते ही रहते हैं। श्रेष्ठ पुरुष उनकी चंचलताओं पर ध्यान हीं नहीं देते। यदि महर्षि भृगु ने भगवान विष्णु जी की छाती में लात मार दी तो उनका क्या घट गया? उनके विष्णु पद की महत्ता सौगुनी और बढ़ गई-भृगु स्वयं उनकी ऐसी विराट् उदारता को देख कर मुग्ध रह गये।
     एक बार कुछ ऋषि एक स्थान पर बैठे हुए विचार कर रहे थे कि ब्राहृा-विष्णु और महेश में सबसे श्रेष्ठ कौन है? उस समय महर्षि भृगु जी ने कहा कि हम अमरावती जाते हैं और उन तीनों की श्रेष्ठता का पता लगाते हैं। भृगु जी पहले गये ब्राहृ लोक में-उस समय श्री ब्राहृा जी वेद पाठ में लगे थे। वीणा पाणि सरस्वती समीप में बैठी थीं। महर्षि ने द्वार खटखटाया, ब्राहृा जी की एकाग्रता में बाधा आ गई और वे तिलमिला से उठे। आगे थे महर्षि भृगु-वे तुरन्त भाँप गये कि ब्राहृा जी ने मेरेआने को बुरा मना लिया है। महर्षि इसे अपना अनादर समझकर बिना कुछ कहे शिवलोक की ओर बढ़ गये।
     श्रीमहादेव जी योगमुद्रा में समासीन थे।भृगु जी ने शिव भगवान के द्वार पर दस्तक दी। महादेव जी को किसी का ध्यान अवस्था में आकर विक्षेप पैदा करना रुचा नहीं। वे व्याकुल से हो गये।और वहीं से पूछ लिया कि द्वार पर कौन है?भृगु के उत्तर मिलने पर यही कहा कि यह द्वार अब शिवजी का नहीं-यह कुटिया रूद्र महादेव की अर्थात् संहारकारी की है-त्रिशूल हमारा अस्त्र है। आपका इस समय पर आना हमें बुरा लगा है। भृगु ऋषि वहां से भी खिन्न होकर विष्णु पुरी को चल दिये।
     क्षीरसागर में पौढ़े हुए थे भगवान् श्री विष्णु-लक्ष्मी उनके चरण पलोट रही थी। द्वार पहले से ही खुला था। महर्षि भृगु को कोई आवश्यकता न पड़ी दरवाज़ा थपथपा कर अन्दर से आज्ञा की, सीधे ही अन्दर चले गये और भगवान नारायण के वक्षःस्थल के बाएं भाग पर ज़ोर से लात मार दी। लात लगते ही भगवान मुरारि उठ बैठे और उन महर्षि का चरण अपने कोमल कर कमलों से लगे सहलाने। फिर मुधर वाणी में बोले-""पूज्य देव! मेरा वक्षःस्थल तो बड़ा कठोर था और आप ब्राहृदेव के चरण अत्यन्त कोमल हैं। कहीं आप को चोट तो नहीं लगी? आप मुझे क्षमा कर दें।बड़ा ही उपकार कियाआपने जो मेरे ह्मदयदेश को अपने चरण आघात से पवित्र कर दिया।मैंआज से सदा के लियेआप का चरण-चिन्ह अपने वक्षःस्थल पर आभूषण की भांति सुसज्जित रखूँगा।भृगु जी तो क्षमा की ही कसौटी पर तीनों देवताओं की परीक्षा लेने गये थे।परन्तु भगवान हरि कीअगाध क्षमाशीलता को निहार कर ऋषि चकित रह गयेऔर भगवान के चरणों में लोटकर लगे प्रार्थना करने। ""नाथ!आप चाहते तो मुझे कड़े से कड़ा दण्ड प्रदान कर सकते थे। आप ने उसकी जगह कैसा विलक्षण व्यवहार किया धन्य हैं आप और प्रशंसनीय है आप की विशाल उदारता।
     इस प्रकार भगवान विष्णु ने सारे संसार को क्षमा का ऐसा अनुपम पाठ पढ़ा दिया और अपने आचरण से बता दिया कि मानव का सौन्दर्य क्षमा में ही है।

Tuesday, June 21, 2016

अहंकार की खूंटी


   कौन सी चीज़ है जो हमें बाँधे है जिसके कारण हम पशु हो जाते हैं? छोटी सी कहानी, शायद इशारा ख्याल में आ सके कि कौन सी चीज़ हमें बाँधे हुए है, कौन सी चीज़ के इर्द गिर्द हम जीवन भर घूमते हैं और नष्ट हो जाते हैं। कुछ ऐसी चीज़ है, जिसके पीछे हम पागल की तरह चक्कर लगाते हैं और व्यर्थ नष्ट हो जाते हैं।
     एक जंगल के पास एक छोटा सा गाँव था। और एक दिन सुबह एक सम्राट शिकार खेलने में भटक गया और उस गांव में आया। रात भर का थका मांदा था और उसे भूख लगी थी। वह गाँव के पहले ही झोंपड़े पर रुका और उस झोंपड़े के बूढ़े आदमी से कहा, क्या मुझे दो अण्डे उपलब्ध हो सकते हैं। थोड़ी चाय मिल सकती है? उस बूढ़े आदमी ने कहा ज़रूर, स्वागत है आपका। आइये। वह सम्राट बैठ गया उस झोंपड़े में। उसे चाय और दो अण्डे दिये गये। नाश्ता कर लेने के बाद उसने पूछा कि इन अण्डों के दाम कितने हुए। उस बूढ़े आदमी ने कहा, ज्यादा नहीं, केवल सौ रूपये। सम्राट तो हैरान हो गया। उसने बहुत महँगी चीज़ें खरीदी थी, लेकिन कभी सोचा भी नहीं था कि दो अण्डों के दाम भी सौ रूपये हो सकते हैं। उस सम्राट ने उस बूढ़े आदमी को पूछा, क्या इतना कठिन है अण्डे का मिलना यहाँ? वह बूढ़ा आदमी बोला, नहीं। अण्डे तो बहुत मुश्किल नहीं है, बहुत होते हैं, लेकिन राजा मिलना बहुत मुश्किल है। राजा कभी कभी मिलते हैं। उस सम्राट ने सौ रुपये निकालकर उस बूढ़े को दे दिये और अपने घोड़े पर सवार होकर चला गया।
       उस बूढ़े की औरत ने कहा, कैसा जादू किया तुमने कि दो अण्डे के सौ रुपये वसूल कर लिये। क्या तरकीब थी तुम्हारी? उस बूढ़े ने कहा, मैं आदमी की कमज़ोरी जानता हूँ। जिसके आस पास आदमी जीवन भर घूमता है वह खूँटी मुझे पता है। और खूँटी को छू दो और आदमी एकदम घूमना शुरु हो जाता है। मैने वह खूँटी छू दी और राजा एकदम घूमने लगा। उसकी औरत ने कहा, मैं समझी नहीं, कौन सी खूँटी? कैसा घूमना? उस बूढ़े ने कहा, तुझे मैं एक और घटना बताता हूँ अपनी ज़िन्दगी की। शायद उससे तुझे समझ में आ जाये। जब मैं जवान था तो मैं एक राजधानी में गया। मैने वहां एक सस्ती सी पगड़ी खरी़दी जिसके दाम पाँच रूपये थे। लेकिन पगड़ी बड़ी रंगीन और चमकदार थी। जैसा कि सस्ती चीज़ें हमेशा रंगीन और चमकदार होती हैं, जहां बहुत रंगीनी हो और बहुत चमक हो, समझ लेना भीतर सस्ती चीज़ होनी ही चाहिए। सस्ती थी लेकिन तब भी बहुत चमकदार थी। मैं उस पगड़ी को पहनकर सम्राट के दरबार में पहुँच गया। सम्राट की आँख एकदम से उस पगड़ी पर पड़ी। क्योंकि दुनियाँ में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो कपड़े के अलावा कुछ और देखते हों। आदमी को कौन देखता है? आत्मा को कौन देखता है? पगड़ियां भर दिखाई पड़ती हैं। उस सम्राट की नज़र एकदम पगड़ी पर आ गई और उसने कहा, कितने में खरीदी है? बड़ी सुन्दर, रंगीन है। मैने उस सम्राट से कहा, पूछते हैं कितने में खरीदी है? पाँच सौ रूपये खर्च किये हैं। इस पगड़ी के लिए। सम्राट तो एकदम हैरान हो गया लेकिन इससे पहले कि सम्राट कुछ कहता, वज़ीर ने उसके सिंहासन के पास झुक कर सम्राट के कान में कुछ कहा, कि सावधान। आदमी धोखेबाज़ मालूम होता है। चार पाँच रूपये की पगड़ी के पाँच सौ दाम बता रहा है, बेइमान है। लूटने के इरादे हैं। उस बूढ़े ने अपनी पत्नी को कहा, मैं फौरन समझ गया कि वज़ीर क्या कह रहा है। जो लोग किसी को लूटते रहे हैं वे दूसरे लूटने वाले से बड़े सचेत हो जाते हैं। लेकिन मैं भी हारने को राज़ी नहीं था। मैं वापिस लौटने लगा। मैने उस सम्राट को कहा कि मैं जाऊँ? क्योंकि मैने जिस आदमी से यह पगड़ी खरी़दी है उसने मुझे यह वचन दिया है कि इस पृथ्वी पर एक ऐसा सम्राट भी है जो इस पगड़ी के पाँच हज़ार भी दे सकता है। मैं उसी सम्राट की खोज में निकला हुआ हूँ। तो मैं जाऊँ? आप वह सम्राट नही हैं। यह राजधानी वह राजधानी नहीं है। यह दरबार वह दरबार नहीं है, जहाँ यह पगड़ी बिक सकेगी। लेकिन कहीं बिकेगी, मैं जानता हूँ।
      उस सम्राट ने कहा, पगड़ी रख दो और पाँच हज़ार रूपये ले लो। वज़ीर बहुत हैरान हो गया। जब मैं पाँच हज़ार रूपये लेकर लौटने लगा, दरवाज़े पर वज़ीर मुझे मिला और कहा हद कर दी। हम भी बहुत कुशल हैं लूटने में लेकिन यह तो जादू हो गया। मामला क्या है? तो मैने वज़ीर के कान में कहा कि तुम्हें पता होगा कि पगड़ियों के दाम कितने होते हैं, लेकिन मुझे आदमियों की कमजोरियों का पता है। मुझे उस खूँटी का पता है जिसको छू दो और आदमी एकदम घूमने लगता है।
आप पहचान गये होंगे आदमी किस खूँटी से बँधा है। अहंकार के अतिरिक्त आदमी के जीवन में और कोई खूँटी नहीं है। और जो अहंकार से बँधा है वह और हज़ार तरह से बँध जाएगा। और जो अहंकार से मुक्त हो जाता है वह और सब भाँति भी मुक्त हो जाता है। एक ही स्वतंत्रता है जीवन में, एक ही मुक्ति है, एक ही मोक्ष है, और एक ही द्वार है प्रभु का, और वह है अहंकार की खूँटी से मुक्त हो जाना। एक ही धर्म है, एक ही प्रार्थना है, एक ही पूजा है, और वह है अहंकार से मुक्त हो जाना। एक ही मन्दिर है, एक ही मस्जिद है, एक ही शिवालय है। जिस ह्मदय में अहंकार नहीं वही मन्दिर है, वही मस्जिद है, वही शिवालय है। जीवन को जीने के दो ही ढंग है या तो अहंकार के इर्दगिर्द जियो या निरहंकार के। जो अहंकार से बँधा है वह पृथ्वी से बँधा रह जाता है। और निरहंकार में जो उठते हैं आकाश उनका हो जाता है। जो क्षुद्र से मुक्त होता है वह विराट से संयुक्त हो जाता है। जो क्षुद्र से बँधा है वह विराट से वंचित हो जाएगा। और जो क्षुद्र से मुक्त हो जाता है वह विराट में प्रविष्ट हो जाता है।

Sunday, June 19, 2016

चोर का संग भी सतसंग

एक फकीर बहुत दिन तक एक चोर के साथ रहता था। बहुत दिन उस चोर के साथ रहा ।लोगों ने कहा तुम इस चोर के साथ रहते हो बड़ा असतसंग है। ये बड़ा दुष्ट संग है। तुम साधु आदमी, तुम चोर के साथ रहते हो उसके झोंपड़े पे ठहरते भी हो। वो बोला, कि इस चोर से मैने इतना सीखा कि जितना किसी साधु से भी नहीं सीखा। लोगों ने पूछा, कि तुमने चोर से क्या सीखा होगा, चोर के पास भी सीखने को क्या है , उसको ही कुछ सीखना है सब, तुम उससे क्या सीखोगे? बो बोला,  मैने इससे बहुत कुछ सीखा। मेरी जीवन धारा ही इसने बदल दी। ये मेरा गुरु है। जब पहली पहली दफा मैं इसके पास रुका। मैने कई अद्भुत बातें देखीं। पहली बात तो ये देखी कि इसका काम जब सो जाते हैं तब शुरु होता है। मैं इससे सीख लिया। अपना जो काम है परमात्मा की खोज का वो किसी की आँख में न पड़े। वो चोरी है परमात्मा की। वो किसी की आँख में न पड़े नहीं तो पकड़े जायेंगे मामला खराब हो जायेगा। तो मैने इससे सीख लिया कि अपनी साधना शुरु तब होनी जब सारी दुनियाँ सो जाये। और अपनी साधना उस तरह होनी कि किसी को पता न चले। पता चलाने की जो आकाँक्षा है वो साधना में बाधक है पता चलाने की आकांक्षा कि पता चल जाये  कि मैं ध्यान साधता हूँ मैं, भजन करता हूँ मैं ये करता हूँ मैं वो करता हूँ, तो आप साधक नहीं है। आप केवल अहंकार के लिये नये आभूषण खोज रहे हैं। ये दम्भ है।  इससे मैने सीखाकि अन्धेरे में काम शुरु करना कि किसी को पता न चले। और इससे मैने सीखा कि ये जाता था लौट आता था। घुस नहीं पाता था दूसरे दिन जाता था घुस नहीं पाता था। लौट आता था। पहरे पे लोग थे । रात को जगे थे आपस में बातें कर रहे थे। दीया जलता था। घुस नहीं पाता था लेकिन जाना नहीं छोड़ता था। खाली वापिस लौटता था। निराश नहीं होता था, चेहरे पे कोई मलाल नहीं होता था। न थकान होती थी। मैंने भी कहा कि पक्का अनेक बार भीतर जाता हूँ घुस नहीं पाता हूँ ताला नहीं तोड़ पाता है। मैने सोचा कि ये चोर है कि कोशिश किये चला जाता है। मुझे भी कोशिश किये चले जाना है। मैं कोशिश किये ही चला गया। ये चोर मेरा गुरु है। सारी दुनियाँ इसको कहती थी कि छोड़ इसको। सब बन्द कर कि ये क्या पागलपन है। सारी दुनियाँ मुझसे भी कहती कि छोड़ो ये परमात्मा, मोक्ष, आत्मा की बातें सब पागलपन है। इसने नहीं छोड़ा तो हमने भी छोड़ा, जो चोरी नहीं छोड़ता हम क्यों छोड़ें। इससे मुझे तीन बातें सीखने को मिली। जितना इससे मुझे सीखने को मिला कहीं नहीं मिला। चोर का संग भी सत्संग हो सकता है साधु का संग भी असत्संग हो सकता है वो आपकी वृत्ति पर निर्भर है। वो वृत्ति आपकी सम्यक हो। दृष्टि सम्यक हो।

Thursday, June 16, 2016

मृत्यु

गवान बुद्ध सरावस्ती नगर के बाहर ठहरे थे। उनके निकट ही नदी तट पर एक युवा वणिक भी ठहरा था। उसके पास पाँच सौ बैलगाड़ियाँ थीं। जो बहुमूल्य वस्त्रों और अन्य प्रसाधन साधनों से भरी हुई थीं। वह सरावस्ती में अपना सामान बेच कर खूब कमाई कर रहा था। उसके पास ही भगवान ठहरे थे लेकिन अब तक उसने उनकी ओर ध्यान भी नहीं दिया था। शायद दिखाई तो पड़े ही होंगे। हज़ारों भिक्षुओं का वहाँ निवास था। न दिखाई पड़े हों ऐसा तो नहीं हो सकता था। लेकिन उसके मन से संगति नहीं थी। जहाँ धन की यात्रा पर निकला हो उसका ध्यान की तरफ ध्यान नहीं जाता। जो अभी महत्वकाँक्षा से भरा हो, उसे सन्यासी दिखाई नहीं पड़ता। जिसके मन पर संसार के मेघ घिरे हो, उसे निर्वाण का प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। आच्छादित अपने ही मेघों में रहा होगा। भगवान पास ही ठहरे थे लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया था। या कभी कभार ध्यान चला भी गया हो। उसके बावजूद सोचा होगा पागल हैं, तो सोचा होगा इन सबको क्या हो गया? तो सोचा होगा कि लोग कैसे कैसे व्यर्थ की बातों में उलझ जाते हैं। और हज़ार दलीलें दी होंगी अपने मन को। कि मैं भी भला मैं ही स्वस्थ, मैं ही तर्कयुक्त।
     एक दिन नदी पर टहलता हुआ, भविष्य की बड़ी बड़ी कल्पनायें कर रहा था। सोचता था कि धन्धा यदि ऐसा ही चलता रहा, तो वर्ष भर में ही लखपति हो जाऊँगा। फिर विवाह करुँगा। अनेक स्त्रियों के सुन्दर चित्र उसकी आँखों में घूमने लगे। और ऐसा महल बनाऊँगा, वसन्त के लिये अलग हेमन्त के लिये अलग,वर्षा ऋतु के लिये अलग, और यह करुँगा, वह करुँगा। और जब ऐसे पूरे शेखचिल्ली-पन में खोया था और कल्पनाओं के लड्डूओं का भोग कर रहा था,तब भगवान ने उसे देखा और वे हँसे। भगवान बैठे हैं एक वृक्ष के तले। उनके पास ही बैठा है भिक्षुआनन्द। अकारण, बिना किसी बात के, बिना किसी प्रकट आधार के, भगवान को हँसते देखकर आनन्द चकित हुआ। उसने पूछा, भगवान! आप हँसते हैं न मैने कुछ कहा, न मैने कुछ कहा, न यहाँ कुछ हुआ। अकारण क्यों हँसते हैं? किस कारण हँसते हैं? किस बात पर हँसते हैं? भगवान ने कहा, आनन्द! उस युवा को देखते हो दूर नदी के तट पर? उसके चित्त के कल्पना तरंगों को देखकर ही मुझे हँसी आ गई। वह लम्बी योजनाएं बना रहा है, किन्तु उसकी आयु केवल सप्ताह भर की और शेष है। मृत्यु द्वार पर दस्तक दे रही है। पर उसको अपनी वासनाओं के कोलाहल के कारण कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। उसकी मूर्छा पर मुझे हँसी भीआती है और दया भी। भगवान की आज्ञा लेकर आनन्द उस युवक के पास गये। और उसे सन्निकट मृत्यु से अवगत कराया। मृत्यु की बात सुनते ही वह थर थर काँपने लगा। खड़ा था भयभीत होकर बैठ गया।  अभी सुबह ही थी, शीतल हवा बहती थी। सब शान्त था। उसके माथे पर पसीने की बूँदे झलक आर्इं। भूल गया सुन्दर स्त्रियों को, भूल गया संगमरमरी महल, भूल गया हेमन्त वसन्त, भूल गया सब। मृत्यु सामने खड़ी हो, मृत्यु का एक दफा स्मरण भी आ जाये। तो सारे जीवन से प्राण निकल जाते हैं। इस जीवन में कुछ अर्थ नहीं रह जाता। इस जीवन में अर्थ तभी तक है जब तक तुमने मृत्यु को नहीं देखा। जब तक तुमने मृत्यु का विचार नहीं किया। जब तक मृत्यु का बोध तुम्हें नहीं हुआ,तब तक इस जीवन का खेल है। तभी तकइन सपनों को फुलाये जाओ। तैराये जाओ नावें कागज़ की। बनाये जाओ कागज़ के महल। लेकिन जैसे ही मृत्यु का समरण आ जाएगा, सब ढह जाता है। बड़े उसके स्वपन थे, अभी युवा था. बड़ी उसकी कामनायें थीं, जीवेष्णायें थी। बड़ी उसका संसार फैलाने का मन था, सब भूमिसात हो गया, सब खण्डहर हो गया। जो भवन कभी बने ही नहीं थे सब खण्डहर हो गये। और जो सुन्दर स्त्रियां कभी मिली ही नहीं थी, वे तिरोहित हो गई। वे मन पे तैरते हुये इन्द्रधनुष से ज्यादा न थीं। मौत ने एक झपट्टा मारा, और सब व्यर्थ हो गया, वो युवक बैठ कर रोने लगा। आनन्द ने उससे कहा, युवक उठ। मौत पर बात समाप्त नहीं हो जाती। भगवान के चरणों में चल। मौत के पार भी कुछ है। जीवन मौत पर समाप्त नहीं होता। असली जीवन मौत के बाद ही शुरु होता। औओर धन्यभागी हैं वे जिन्हें इस जीवन में मौत दिखाई पड़ जाये तो इसी क्षण दूसरा जीवन शुरु होजाता है। सन्यास का और कुछ अर्थ बी नहीं है। जीते जी मौत से प्रत्यक्ष साक्षात् हो गया। जिसे येदिखाई पड़ गया कि मरना होगा।  कि मृत्यु आती है क्या फर्क पड़ता है कि सात दिन बाद आती है, कि सात वर्ष बाद आती है, कि सत्तर वर्षबाद आती है। मृत्यु है, ये तीर चुभ जाये ह्मदय में, तो संसार व्यर्थ हो जाता है। आनन्द नेउसे संभाला। और कहा, हार मत थक मत। मौत से कुछ भी मिटता नहीं, मौत से वही मिटता है जो झूठ था। मौत से वही मिटता है जो भ्रामक था, मौत से सिर्फ सपने मिटते हैं सत्य नहीं मिटता, घबरा मत। उठ। वो युवक भगवान के चरणों में आया। मृत्यु सामने खड़ी हो तो बुद्ध के अतिरिक्त और कोई मार्ग भी तो नहीं। मृत्यु न होती तो शायद कोई बुद्धों के चरणों जाता ही न। मृत्यु न होती तो मन्दिर न होते, मस्जिद न होती , गुरुद्वारे न होती। मृत्यु जगाती है, मृत्यु अलार्म का काम करती है। मृत्यु न हो तो किसलिये प्रार्थना करेगा। कौन प्रार्थना करेगा, कौन ध्यान करेगा।अगर तुम मृत्यु को ठीक से समझ लोउसी से तुम्हारे जीवन में अमूल्य क्रान्ति हो जायेगी। मृत्यु जगाती है, जीवन सुला देता है। जीवन में तो तुम सोये सोये चलते रहते हो। मौत आती है झकझोर देती है। झंझावात की तरह आती है। विचार की, वासना की, धूल झड़ जाती है। तुम चौंक कर खड़े हो जाते हो, पुनर्वीचार करना होता है। फिर से सोचना पड़ता है। फिर से जीवन के आधार रखने होते हैं। किसी दूसरे जीवन के आधार रखने होते हैं जिसे मौत न मिटा सके। उस जीवन का नाम ही मोक्ष है। संसार और निर्वाण काइतना ही अर्थ है। संसार, ऐसा जीवन जिसे मौत छीन लेती है। निर्वाण ऐसा जीवन जिसे मौत नहीं छीन पाती। संसार ऐसा जीवन आज नहीं तोकल हाथ से जायेगा हीष उसको बनाने में जितना समय लगाया व्यर्थ गया। उतने में जीतनी रातें और दिन खोये व्यर्थ गये। एक ऐसा भी जीवन है जहाँ मृत्यु असमर्थ है। जहाँ मृत्यु का कोई प्रवेश नहीं। वही निर्वाण का जीवन है।


Wednesday, June 15, 2016

वृद्ध को सन्यास के लिये कहा


एक बूढ़े आदमी सन्तों के पास आए। उनकी उम्र कोई होगी अठहत्तर वर्ष। उनके लड़के ने सन्यास ले लिया। लड़का भी कोई लड़का नहीं है, लड़के की उम्र है कोई पचास वर्ष। वे बड़े नाराज़ आए। वे कहने लगे, आप लड़के-बच्चों को सन्यास दे रहे हैं? कौन सा लड़का बच्चा? अपने लड़के को भी साथ लाए थे। उसकी उम्र पचास साल की है। वे कहने लगे, यह तो वेद के प्रतिकूल है। शास्त्र में साफ लिखा है कि अंतिम चरण में सन्यास होना चाहिए। पहला चरण ब्राहृचर्य, दूसरा गृहस्थ, तीसरा वानप्रस्थ, चौथे आखिरी चरण में आदमी को सन्यस्थ होना चाहिए। सन्तों ने कहा, छोड़ो लड़के को, आपका क्या इरादा है? आपका आखिरी चरण आया अगर आप सन्यास लेते हों तो लड़के को मैं समझाता हूं कि न ले। कहने लगे, ज़रा सोचूंगा। फिर दुबारा आऊँगा। ज़रा सोचने-समझने दें। अठहत्तर वर्ष की उम्र में भी अभी सोचने-समझने के लिए रास्ते बना रखे हैं हमने। बेटा ले तो कहते हैं कि आखिरी में लेना, वे खुद आखिरी में हैं। बेटे को आखिरी में लेना, यह नहीं कह रहे हैं, वह सिर्फ इतना कह रहे हैं, अभी मत ले। उसके लिए आखिरी का बहाना है। सन्यास कहीं उम्र देखता है? जागने के लिए कोई उम्र का कहीं बंधन हो सकता है? और अगर तुम जवानी में न जाग सके तो बुढ़ापे में जागना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि, जागने के लिए भी ऊर्जा चाहिए। जब तुम अशक्त हो जाओगे, सूख चुके होओगे, जब तुम्हारे पास कुछ भी न बचेगा, तब तुम परमात्मा के चरणों में अपने को चढ़ाने जाओगे। चढ़ाना था तब जब फूल अपनी उमंग में था, चढ़ाना था तब जब कोई सुगन्ध थी जीवन में, चढ़ाना था तब जब कुछ देने योग्य था पास। जब कुछ भी न बचेगा, जब मौत तुमसे छीनने को दरवाज़े पर ही खड़ी रहेगी, तब तुम चढ़ाओगे? वह चढ़ाना झूठा होगा। धोखा तुम किसको दे रहे हो।

Monday, June 13, 2016

भेडें सम्मोहित कर रखी थीं


एक जादूगर ने भोजन के लिए बहुत-सी भेड़ें पाल रखी थीं। उस जादूगर ने उन भेड़ों को बेहोश करके, सम्मोहित करके, हिपनोटाईज़ करके यह कह दिया था कि तुम भेड़ें नहीं हो। इससे पहले भेड़ें हमेशा भयभीत रहा करती थीं कि उनको खिलाया पिलाया जायेगा और फिर अंततः काट दिया जायेगा। उस जादूगर ने उन्हें बेहोश करके कह दिया कि तुम भेड़ हो ही नहीं। तुम तो सिंह हो, भेड़ नहीं। उनके चित्त में यह बात बैठ गई। उस दिन से वे अकड़ कर जीने लग गर्इं। उस दिन से उन्होने यह बात भुला दी कि उन्हें काटने के लिए पाला जा रहा है। जब उनमें से एक भेड़ काट दी जाती थी तब बाकी रह गर्इं भेड़ें सोचती थीं कि वह तो भेड़ थी हम तो सिंह हैं। सब सोचती कि मैं नहीं काटी जाने वाली हूँ। रोज भेड़ें कम होती जाती थीं लेकिन हर भेड़ यह सोचती थी कि दूसरी तो भेड़ थी, इसलिए काटी गई और मैं ? मैं तो सिंह हूँ, मैं काटी जाने वाली नहीं हूँ। उस जादूगर के घर उसका एक मित्र मेहमान हुआ तो उसने पूछा कि हम भी भेड़ें पालते हैं, हम भी उनको काटते हैं, और उनके मांस को बेचते हैं। लेकिन हमारी भेड़ें तो बड़ी भयभीत और परेशान रहती हैं। तुम्हारी भेड़ें तो बड़ी शान से घूमती हैं। आखिर बात क्या है? उस जादूगर ने कहा मैने एक तरकीब काम में लाई है। उनको बेहोश करके मैंने कह दिया है कि तुम भेड़ नहीं हो। इसलिए वे मौज में घूमती रहती है। उनको भागने का, भयभीत होने का अब मुझे कोई डर नहीं है और जब एक भेड़ कटती है तो बाकी भेड़ें सोचती हैं कि वह भेड़ थी, मैं भेड़ नहीं हूँ। इसी प्रकार हर आदमी यह समझता है कि मैं मरने वाला नहीं हूँ।

Saturday, June 11, 2016

धन, पुत्र, वही जो परमार्थ में लगे


    एक सेठ बड़ा साधु सेवी था। जो भी सन्त महात्मा नगर में आते वह उन्हें अपने घर बुला कर उनकी सेवा करता। एक बार एक महात्मा जी सेठ के घर आये। सेठानी महात्मा जी को भोजन कराने लगी। सेठ जी उस समय किसी काम से बाज़ार चले गये। भोजन करते करते महात्मा जी ने स्वाभाविक ही सेठानी से कुछ प्रश्न किये। पहला प्रश्न यह था कि तुम्हारा बच्चे कितने हैं? सेठानी ने उत्तर दिया कि ईश्वर की कृपा से चार बच्चे हैं। महात्मा जी ने दूसरा प्रश्न किया कि तुम्हारा धन कितना है? उत्तर मिला कि महाराज! ईश्वर की अति कृपा है लोग हमें लखपति कहते हैं। महात्मा जी जब भोजन कर चुके तो सेठ जी भी बाज़ार से वापिस आ गये और सेठ जी महात्मा जी को विदा करने के लिये साथ चल दिये। मार्ग में महात्मा जी ने वही प्रश्न सेठ से भी किये जो उन्होंने सेठानी से किये थे। पहला प्रश्न था कि तुम्हारे बच्चे कितने हैं? सेठ जी ने कहा महाराज! मेरा एक पुत्र है। महात्मा जी दिल में सोचने लगे कि ऐसा लगता है सेठ जी झूठ बोल रहे हैं। इसकी पत्नी तो कहती थी कि हमारे चार बच्चे हैं और हमने स्वयं भी तीन-चार बच्चे आते-जाते देखे हैं और यह कहता है कि मेरा एक ही पुत्र है। महात्मा जी ने दुबारा वही प्रश्न किया, सेठ जी तुम्हारा धन कितना है? सेठ जी ने उत्तर दिया कि मेरा धन पच्चीस हज़ार रूपया है। महात्मा जी फिर चकित हुए इसकी सेठानी कहती थी कि लोग हमें लखपति कहते हैं। इतने इनके कारखाने और कारोबार चल रहे हैं और यह कहता है मेरा धन पच्चीस हज़ार रुपये है। महात्मा जी ने तीसरा प्रश्न किया कि सेठ जी! तुम्हारी आयु कितनी है? सेठ ने कहा-महाराज मेरी आयु चालीस वर्ष की है महात्मा जी यह उत्तर सुन कर हैरान हुए सफेद इसके बाल हैं, देखने में यह सत्तर-पचहत्तर वर्ष का वृद्ध प्रतीत होता है और यह अपनी आयु चालीस वर्ष बताता है। सोचने लगे कि सेठ अपने बच्चों और धन को छुपाये परन्तु आयु को कैसे छुपा सकता है? महात्मा जी रह न सके और बोले-सेठ जी! ऐसा लगता है कि तुम झूठ बोल रहे हो? सेठ जी ने हाथ जोड़कर विनय की महाराज! झूठ बोलना तो वैसे ही पाप है और विशेषकर सन्तोंं के साथ झूठ बोलना और भी बड़ा पाप है। आपका पहला प्रश्न मेरे बच्चों के विषय में था। वस्तुतः मेरे चार पुत्र हैं किन्तु मेरा आज्ञाकारी पुत्र एक ही है। मैं उसी एक को ही अपना पुत्र मानता हूँ। जो मेरी आज्ञा में नहीं रहते वे मेरे पुत्र कैसे? दूसरा प्रश्न आपका मेरा धन के विषय में था। महाराज! मैं उसी को अपना धन समझता हूँ जो परमार्थ की राह में लगे। मैने जीवन भर में पच्चीस हज़ार रुपये ही परमार्थ की राह में लगाये हैं वही मेरी असली पूँजी है। जो धन मेरे मरने के बाद मेरे बन्धु-सम्बन्धी ले जावेंगे वह मेरा क्योंकर हुआ? तीसरे प्रश्न में आपने मेरी आयु पूछी है। चालीस वर्ष पूर्व मेरा मिलाप एक आप जैसे साधु जी से हुआ था। उनकी चरण-शरण ग्रहण करके मैं तब से भजन-अभ्यास और साधु सेवा कर रहा हूँ। इसलिये मैं इसी चालीस वर्ष की अवधि को ही अपनी आयु समझता हूँ।
              कबीर संगत साध की, साहिब आवे याद।
              लेखे में सोई घड़ी, बाकी दे दिन बाद। ।
जब कभी सन्त महापुरुषों का मिलाप होता है-उनकी संगति में जाकर मालिक की याद आती है, वास्तव में वही घड़ी सफल है। शेष दिन जीवन के निरर्थक हैं।

Tuesday, June 7, 2016

नि:स्वार्थ लोक सेवा के बल पर संत को मिला स्वर्ग


एक संत थे, जो दुनिया से बेखबर, अपने भगवद्-भजन में लीन रहते और किसी से कोई सरोकार नहीं रखते थे। वृद्धावस्था में एक दिन वे मृत्यु को प्राप्त हुए। मरने के पश्चात संत स्वर्गलोक पहुंचे। स्वर्गलोक के द्वार पर चित्रगुप्त अपना हिसाब-किताब लेकर बैठे थे। उन्होंने साधु का नाम-पता पूछा। तब साधु ने बड़े गर्व से कहा - क्या आप नहीं जानते कि मैं धरती का अमुक संत हूं?

चित्रगुप्त ने प्रश्न किया - आपने अपने जीवन में कौन-से उल्लेखनीय कार्य किए? संत ने उत्तर दिया - मैं जीवन के आरंभिक आधे भाग में तो लोगों से प्रेम करता रहा और दुनियादारी में डूबा रहा। जीवन के अंतिम आधे भाग में मैंने सब कुछ छोड़कर तपस्या की और पुण्य लाभ लिया। यह सुनकर चित्रगुप्त बोले - आपसे जीवन के आरंभिक भाग में ही पुण्य हुए हैं, पिछले भाग में तो कुछ भी नहीं है।

संत ने कहा - यह तो उल्टी बात है। आरंभिक जीवन तो मैंने संसार से प्रेम करने में बिताया। यथासंभव सभी की सेवा और सहायता की, किंतु जीवन के अंतिम भाग में सांसारिकता से परे रहकर एकांत में परमात्मा की आराधना की, तो वही तो जीवन की सार्थकता है।

तब चित्रगुप्त बोले - धरती पर प्रेम, आत्मीयता और परहित में लगे रहना ही पुण्य है। ईश-पूजा और मानव सेवा के कारण ही तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। वस्तुत: नि:स्वार्थ जनसेवा ही सच्चे अर्थो में प्रभुसेवा है, क्योंकि यह दुनिया प्रभु की बनाई हुई है। इसलिए इसके प्रति समर्पित व्यक्ति निश्चित रूप से प्रभु को प्रिय होता है।

Sunday, June 5, 2016

दृढ़ शिव भक्ति से गरीब उपमन्यु सामथ्र्यवान बन गया


अपने मामा के पुत्र को दूध पीते देख उपमन्यु के बाल हृदय में भी दूध पीने की इच्छा हुई। लगभग 12-13 वर्षीय उपमन्यु अपनी विधवा माता के पास तीर की तरह पहुंचा और बोला - मां, मैं भी दूध पीऊंगा। पुत्र की बात सुनकर मां बोली - बेटा, तुम्हारे भाग्य में दूध पीना नहीं लिखा है।

मां की ओर नाराजगी से देखते हुए बालक उपमन्यु ने कहा - मेरे भाग्य में दूध पीना क्यों नहीं लिखा? मां ने लाचार होकर आटे को पानी में घोलकर उपमन्यु को दे दिया। उसने जैसे ही एक घूंट पिया, मुंह बिगाड़कर उसे दूर रखते हुए कहा - यह दूध नहीं है।

मां बोली - मैं गरीब हूं, तुम्हें दूध कहां से दूं? उपमन्यु ने दुखी होकर कहा - मां, क्या कोई उपाय है? मां ने कहा - यदि तुम वन में जाकर शिवजी को प्रसन्न करो तो तुम्हारा भाग्य बदल जाएगा। उपमन्यु समर्पित भाव से वन में जाकर शिव-शिव का जाप करने लगा। उसकी दृढ़ भक्ति देख शिवजी इंद्र का वेश धारण कर उपमन्यु के पास आकर बोले - तुम व्यर्थ ही शिव भक्ति कर रहे हो, वे भला तुम्हें क्या देंगे? मैं तीनों लोकों का स्वामी हूं, तुम मेरा नाम लो, मैं तुम्हारी सभी इच्छाएं पूर्ण करूंगा। उपमन्यु यह पूछते हुए कि तुम कौन हो, उन पर झपट पड़ा।

यह देख शिवजी प्रसन्न हो अपने असली स्वरूप में प्रकट हुए और उपमन्यु के घर में दूध का सागर बहने का वर दिया। वास्तव में यही हुआ और उपमन्यु प्रतिदिन हजारों लोगों को दूध बांटने लगा। शिवजी की कृपा से उपमन्यु बहुत बड़ा विद्वान बना और उसने पर्याप्त यश अर्जित किया। दरअसल अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ भक्ति सदैव शुभ फलदायी होती है। इसलिए जिसके प्रति आस्था हो, वह अटूट रहनी चाहिए।

Saturday, June 4, 2016

सुन सतगुरु के बैन


     कहते हैं कि एक व्यक्ति ने एक तोता पाल रखा था। यह उन दिनों की बात है जब काशी जी में श्री कबीर साहिब अपने सदुपदेशों द्वारा जीवों को चिता रहे थे। उस व्यक्ति के अड़ोस-पड़ोस से भी कई लोग श्री कबीर साहिब का सत्संग सुनने के लिये जाया करते थे। वे उस व्यक्ति को भी वहां चलने के लिये कहते, परन्तु वह सदा टाल जाता। एक दिन उसके मन में क्या विचार आया कि उसने भी सत्संग में जाने का निश्चय किया। घर से चलते समय स्वाभाविक ही वह तोते से बोला-अच्छा भाई मियाँ मिट्ठु, राम-राम! आज तो हम सत्संग सुनने के लिये जा रहे हैं। तोते ने कहा-आप सत्संग सुनने कहाँ जा रहे हैं?
     उस व्यक्ति ने उत्तर दिया आजकल श्री कबीर साहिब जी की यहाँ बड़ी ख्याति है कि वे लोगों को चौरासी के बन्धन से मुक्त कराने के लिये संसार में आए हैं। उन्हीं का सत्संग सुनने जा रहा हूँ। तोते ने कहा, क्या मेरा एक काम करेंगे? उस व्यक्ति ने कहा-क्यों नहीं करेंगे? तुम काम बताओ। तोता बोला-आप मेरी तरफ से श्री कबीर साहिब जी के चरणों में विनती करके पूछें कि मेरा उद्धार कैसे होगा? अच्छी बात है। यह कहकर वह व्यक्ति सत्संग सुनने चला गया। सत्संग की समाप्ति के बाद एकान्त होने पर उस व्यक्ति ने तोते का सन्देश श्री कबीर साहिब जी को दिया। सुनते ही श्री कबीर साहिब जी ने आँखें मूँद लीं, उनका सारा शरीर थर-थर काँपने लगा और वे अचेत होकर धरती पर लुढ़क गये। उनकी यह दशा देखकर उनके शिष्य घबरा गये। कोई हकीम की ओर दौड़ा तो कोई वैद्य की ओर। श्री कबीर साहिब जी कुछ पल के उपरान्त उठकर बैठ गये, परन्तु मुख से कुछ बोले नहीं। उस व्यक्ति ने भी कुछ पूछना उचित न समझा। और घर की ओर चल दिया। मार्ग में सोचने लगा कि उस तोते का सन्देश सुनते ही श्री कबीर साहिब जी की ऐसी दशा क्यों हुई? बहुत सिर मारा, परन्तु कुछ समझ न सका। जब वह घर पहुँचा तो तोता बोला-राम-राम! आपने श्री कबीर साहिब जी को मेरा सन्देश दिया?
     उस व्यक्ति ने सम्पूर्ण वृत्तांत तोते को कह सुनाया। सुनते ही तोता चुप हो गया, उसकी आँखें बन्द हो गर्इं, शरीर थर-थर काँपने लगा और फिर वह एक ओर लुढ़क गया जैसे शरीर छोड़ गया हो। यह देखकर वह व्यक्ति सोचने लगा कि यह क्या बात है? क्या श्री कबीर साहिब जी और इस तोते में कोई सम्बन्ध है? पहले इसका सन्देश सुनकर उनकी ऐसी दशा हुई और अब उन का सन्देश सुनने पर इसकी भी वही हालत हुई। अब तो ऐसा मालूम होता है जैसे यह तोता मर गया हो। उसने पिंजरे को नीचे उतारा, द्वार खोलकर तोते को बाहर निकाला और इस पर उसे उलट पलटकर देखा और बोला-अफसोस! यह तो मर गया। तोते को मरा हुआ जानकर उसने खाली पिंजरे को अपने स्थान पर टाँगा और तोते को बाहर फेंकने के लिए उसे उठाने को जैसे ही झुका कि क्या देखता है कि तोता वहाँ नहीं है। उसने इधर-उधर देखा तो तोता सामने दीवार पर बैठा था। वह व्यक्ति अत्यन्त विस्मित हुआ और बोला-भाई तोते! यह क्या चक्कर है? तोते ने कह‏ा चक्कर-वक्कर कुछ नहीं है। आपने सत्संग पर जाते समय जब यह कहा कि श्री कबीर साहिब जी चौरासी के बन्धन से मुक्त कराने के लिए संसार में आए हैं तो मैने यह सोचा कि मैं भी इस पिंजरे से छूटने की युक्ति पूछूं। सो मैने श्री कबीर साहिब जी के लिए यह सन्देश दिया कि मेरा उद्धार कैसे होगा। अर्थात मैं इस पिंजरे के बन्धन से कैसे छूटूँगा? मेरी विनती के उत्तर में उन्होंने सांकेतिक भाषा में इस बन्धन से छूटने की युक्ति बता दी, जिसे आपके मुख से सुनकर मैने वही कुछ किया, जिसका श्री कबीर साहिब जी ने संकेत किया था। कि जब तक मुर्दे नहीं बन जाओगे तब तक नहीं छूट सकते। अगर आज़ाद होना है तो मुर्दा बन जाओ। परिणाम आपके सामने है कि उनकी युक्ति पर आचरण करके मैं इस बन्धन से मुक्त हो गया हूँ। श्री कबीर साहिब सचमुच ही बन्धन से मुक्त कराने वाले हैं। इसका मुझे पूरा निश्चय हो गया है। इसलिये यदि आपके मन में चौरासी के बन्धन से मुक्त होने की आकांक्षा है, तो फिर उनकी शरण में जाइये और उनसे मुक्ति प्राप्त करने की युक्ति पूछिये। तोते की बात मानकर उस व्यक्ति ने श्री कबीर साहिब जी की शरण ली और उनकी बताई हुई युक्ति पर आचरण करके संसार के बन्धन से मुक्त हो गया।

Thursday, June 2, 2016

अहंकार इक छाया।


एक सन्यासी एक घर के सामने से निकल रहा था। एक छोटा सा बच्चा घुटने टेक कर चलता था। सुबह थी और धूप निकली थी और उस बच्चे की छायाआगे पड़ रही थी।वह बच्चा छाया में अपने सिर को पकड़ने के लिए हाथ ले जाता है, लेकिन जब तक उसका हाथ पहुँचता है छाया आगे बढ़ जाती है। बच्चा थक गया और रोने लगा। उसकी माँ उसे समझाने लगी कि पागल यह छाया है, छाया पकड़ी नहीं जाती। लेकिन बच्चे कब समझ सकते हैं कि क्या छाया है और क्या सत्य है? जो समझ लेता है कि क्या छाया है और क्या सत्य,वह बच्चा नहीं रह जाता। वह प्रौढ़ होता है। बच्चे कभी नहीं समझते कि छाया क्या है, सपने क्या हैं झूठ क्या है।वह बच्चा रोने लगा।कहा कि मुझे तो पकड़ना है इस छाया को।वह सन्यासी भीख माँगनेआया था।उसने उसकी माँ को कहा,मैं पकड़ा देता हूँ। वह बच्चे के पास गया। उस रोते हुए बच्चे की आँखों में आँसू टपक रहे थे। सभी बच्चों की आँखों से आँसू टपकते हैंज़िन्दगी भर दौड़ते हैं और पकड़ नहीं पाते। पकड़ने की योजना ही झूठी है। बूढ़े भी रोते हैं और बच्चे भी रोते हैं। वह बच्चा भी रो रहा था तो कोई नासमझी तो नहीं कर रहा था। उस सन्यासी ने उसके पास जाकर कहा,बेटे रो मत।क्या करना है तुझे? छाया पकड़नी है न?उस सन्यासी ने कहा, जीवन भर भी कोशिश करके थक जायेगा, परेशान हो जायेगा। छाया को पकड़ने का यह रास्ता नहीं है। उस सन्यासी ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और उसके सिर पर हाथ रख दिया।इधर हाथ सिर पर गया, उधर छाया के ऊपर भी सिर पर हाथ गया। सन्यासी ने कहा,देख, पकड़ ली तूने छाया। छाया कोई सीधा पकड़ेगा तो नहीं पकड़ सकेगा। लेकिन अपने को पकड़ लेगा तो छाया पकड़ में आ जाती है।
     जो अहंकार को पकड़ने को लिए दौड़ता है वह अहंकार को कभी नहीं पकड़ पाता। अहंकार मात्र छाया है। लेकिन जो आत्मा को पकड़ लेता है, अहंकार उसकी पकड़ में आ जाता है।वह तो छाया है। उसका कोई मुल्य नहीं। केवल वे ही लोग तृप्ति को, केवल वे ही लोग आप्त कामना को उपलब्ध होते हैं जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं।

Wednesday, June 1, 2016

लोई फाड़कर तीनों सेवकों को दी


     भेंट वही होती है जोअहंकार रहित निष्कामभाव से की जाए।किसी वस्तु को समर्पित करने के पश्चात् यदिआशा की जाए कि बदले में हमें कुछ मिलेगा,चाहे वह वस्तु के रूप में हो अथवा कृपा के रूप में,तो वह वस्तु समर्पण की सीमा में नहीं रह जाती। वह मात्र लौकिक लेन-देन की वस्तु ही  रह  जाती है। विचारशील को  तो उसकी याद भी नहीं आनी चाहिए याद आने का अर्थ है कि उस वस्तु से अब भी लगाव बना हुआ है, सच पूछा जाए तो यह समर्पण नहीं हुआ। समर्पण तभी कहा जा सकता है कि उस वस्तु की स्मृति ही न रहे।
     एक समय की बात है कि एक बार श्री श्री 108 श्री परमहँस दयाल जी महाराज एक वृक्ष की छाया में बैठकर सेवकों के साथ सत्संग एवं परमार्थ के विषय में वार्तालाप कर रहे थे। इतने में वहां श्री दर्शन एवं सतसंग का लाभ प्राप्त करने के लिए एक धनी सेठ जी काआगमन हुआ। सेठ जी ने आते ही श्री चरण कमलों में दण्डवत् प्रणाम करने के पश्चात् श्रद्धा व भक्ति-भाव पूर्वक एक बहुमूल्य शाल भेंट की तथा श्री वचनामृत पान करने के लिए वहीं बैठ गया। अकस्मात् तेज़ हवा चलने लगी।थोड़ी ही देर मेंआकाश बादलों से भर गया।वर्षा के साथ ओले भी बरसने लगे। अन्ततः बरसात तो रुक गई,किन्तु ठण्डी हवा चल पड़ी। दोनों सेवकों के वस्त्र पानी से भीग गये। ठण्डी हवा से वह काँपने लगे, लेकिन वे अपने परमप्रिय श्री गुरुदेव जी के दर्शन करने एवं उनके मुखारबिन्द से उच्चरित वचनों को ह्मदयंगम करने में लीन रहे।
     महापुरुष तो करूणागार एवं दयासिन्धु होते हैं शरणागतों कीसुरक्षा तथा कुशल-क्षेम में वे सदैव सजग रहते हैं। उन्होंने वह लोई उठाई और देखते ही देखते निज करकमलों से फाड़कर उसके तीन टुकड़े कर दिए। एक-एक टुकड़ा दोनों सेवकों को ओढ़ने के लिए दे दियाऔर तीसरे टुकड़े को स्वयंअपने श्री विग्रह के ऊपरओढ़ लिया। सेठ जी ने अपने द्वारा लाई गई बहुमुल्य लोई(शाल) की यह दशा देखी तो तुरन्त बोल उठे-""श्री महाराज जी! यह पश्मीने की लोई बहुत मुल्यवान है। इसके इस प्रकार टुकड़े होते देखकर मुझे तो बहुत खेद हो रहा है।''सेठ जी के यह वाक्य सुनकर दीनदयालु,परम हितैषी श्री सतगुरुदेव जी ने फरमाया, ""आपने तो वह लोई हमें अर्पण कर दी, तो फिर भी उसका मोह आपके ह्मदय में बना हुआ है। जो वस्तु अर्पण कर दी उस पर क्या अधिकार रहा। आप स्वयं देख रहे हैं कि लोई के टुकड़ों से इन दोनों सेवकों को कितनाआराम मिल रहा है।हमें सेवकों से प्यार है हम इन्हें कष्ट में कैसे देख सकते हैं। फिर एक टुकड़ा तो स्वयं हमने भीअपने ऊपरओढ़ लिया है।''जो वस्तुअर्पण कर दी जाए फिर उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं, चाहे वह जिस भी उपयोग में लायी जाए।अपितु निष्काम भाव से परिपूर्ण व आन्तरिक प्रेम से सनी हुई विनम्र भेंट होनी चाहिए। तभी उसे समर्पण कहा जाता है।श्री वचन सुनकर सेठ ने साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर क्षमा याचना की।