Thursday, March 17, 2016

पुण्यात्मा जनक के प्रभाव से नरकवासियों को मुक्ति


     एक पुण्यात्मा राजा की मृत्यु हुई। शरीर तो है ही नाशवन्त वस्तु। चाहे कोई बड़े से बड़ा पापी-अपराधी हो या चाहे कोई महान पुण्यवान और तपोधन हो, सबके लिये मृत्यु का एक दिन निश्चित है और उससे कोई भी बच नहीं सकता। परन्तु मृत्यु होते ही उसके जीवन में किये हुये सत्कर्म अथवा दुष्कर्म का फल तुरन्त ही उसके सामने आ जाता है।उस राजा का भी जब मृत्यु समय आया,तो धर्मराज के पार्षदअति सुन्दर रूप धारण करके उन्हें लेने को आये और बड़े आदरपूर्वक ले चले। मनुष्य आखिर मनुष्य है।कितना ही धर्मात्मा और पुण्यवान हो,जीवन में कोई न कोई भूल उससे हो ही जाया करती है।राजा से भी अपने जीवन-काल में एक छोटी सी भूल हो गई थी।उस थोड़े से अपराध का भी दण्ड तो उन्हें मिलना ही था। धर्मराज ने अपने दूतों को यह आज्ञा दी थी कि पुण्यात्मा राजा को मृत्यु लोक से यहाँ लाते समय किसी प्रकार का कष्ट हरगिज़ न होने देना। उन्हें सब भाँति आदर सत्कार पूर्वक लाना। परन्तु लाना उन्हे नरकों के मार्ग से। ताकि उनकी उस छोटी सी भूल का दण्ड उन्हें यहीं मिल जाये कि वे नरकों की तपती हुई ज्वाला और घिनौनी दुर्गन्ध का एक झोंका-मात्र सहन कर लें। उसके बाद उन्हें स्वर्ग में ले आना। उनका असली आसन यहाँ बनाया गया है।
     दूतों को तो अपने स्वामी की आज्ञा माननी थी। उन्होने वैसा ही किया। जब वे राजा नरकों के नज़दीक से गुज़रने लगे तो स्वयं उनके लिये तो नरकों का कोई भी ताप दुःखदायी नहीं बन सका, परन्तु वहां से गुज़रते समय उन्होने चारों तरफ से उठती हुई लाखों-करोड़ों प्राणियों की हाहाकार की आवाज़ सुनी।नरक की घोर यातनायें भोगते हुये प्राणी वहाँ भयानक चीखें मार रहे थेऔर घुटी घुटी सिसकियाँ भर रहे थे। राजा के साथ जो दूत मौजूद थे,उन्होने उनसे पूछा, यहां यह चीखने-चिल्लाने और सिसकियां भरने का करुण शब्द कैसा सुनाई दे रहा है? दूतों ने कहा-राजन्! ये सब वे जीव हैं, जिन्होने अपने जीवन में घोर पाप कर्म किये हैं और वे उनका दण्ड भुगत रहे हैं।
     परन्तु उसी समय एक विलक्षण घटना घटित हुई। वह यह कि जब राजा वहाँ रुककर ये सब बातें दूतों से पूछ रहे थे, तभी एकदम चीख पुकार और दारूण क्रन्दन के शब्द उभरने बंद हो गये। राजा ने दोबारा  उन दूतों से प्रश्न किया,""परन्तु अब उन दुःखी प्राणियों की चीख पुकार की आवाज़ें एकदम से रुक क्यों गई हैं?'' ""आप जैसे पुण्यात्मा और उपकारी के तेज़ का ही यह प्रताप है।'' धर्मराज के दूतों ने सच्ची बात कह सुनाई।आपके यहाँ से गुज़रते समय आपके पवित्र और पुण्यवान शरीर से निकलने वाली शीतल सुगन्धित वायु ने नरकों की ज्वाला को एकदम शान्त कर दिया है और इसीलिये अब उन दुःखी प्राणियों की आत्मायें थोड़ी देर के लिये दुःखों से मुक्त होकर शान्ति का अनुभव कर रही हैं। उसी क्षण मानों दूतों की कही हुई बात के प्रमाण-स्वरूप चारों ओर से नरक के प्राणियों की दुःखभरी पुकार गूँज उठी, ""महाराज कृपा करके यहाँ से जाने की जल्दी न कीजिये। आपके यहाँ क्षणभर रुकने से हमें बहुत सुख तथा शान्ति मिल रही है। अतएव कुछ देर और यहीं पधारने की दया करें, तो आपका अति उपकार हो।''
     अत्यन्त शान्ति और गम्भीरता से दयालु राजा ने नरक के प्राणियों कोआश्वासन दिलाते हुये उत्तर दिया,""आप लोग धैर्य रखें। यदि मेरे यहां रहने से हीआप सभी कोआराम मिलता है तो मैं हमेशा हीं ठहरा रहूँगा।'  इसके उपरान्त वे दूतों से बोले,""आप लोग जा सकते हैं। मैं अब यहाँ से कहीं जाने वाला नहीं हूँ।'' धर्मराज के दूतों ने प्रार्थना की,""भगवन्! आपका स्थान स्वर्ग में है और वहां आपके लिये प्रतीक्षा की जा रही है। इसलिये आप शीघ्र चलें।''परन्तु राजा ने एक पग भी वहाँ से आगे बढ़ने से स्पष्ट इनकार कर दिया।दूत दौड़े हुये गयेऔर उन्होने धर्मराज से सब वृत्तान्त  कह  सुनाया। सुनकर  धर्मराज ने कहा, "" एक पुण्यवान और धर्मात्मा पुरुष भला नरक में कैसे रह सकता है? ऐसा होने से तो हमारे नियम ही गलत हो जायेंगे।''यह कहकर उन्होने स्वर्ग के राजा इन्द्र को साथ लिया और दोनों ही तुरन्त राजा के पास आये राजा से विनती की, "'पुण्यात्मा राजन्!कृपा करके हमारे नियमों को गलत न कीजिये।आपके पुण्यकर्म का फल आपको नियमानुसार अवश्य भुगतना है।इसलिये आप को हमारे साथ स्वर्ग में पधारना ही होगा।''उन दोनों ने अपनी बात पर ज़ोर दिया।तब राजा ने कहा,""अच्छा! यदि अपने पुण्यकर्म के बदले में ही मुझे अवश्य स्वर्ग में जाना  पड़ेगा,तो मैं अपने सभी पुण्यकर्मों का फल नरक के इन प्राणियों को दान किये देता हूँ।'' यह कहते हुये राजा ने जल हाथ में लिया और संकल्प कर दिया।
     यह हो चुका तो देवराज इऩ्द्र बोले,""राजन्! अब तो आप पधारें। आपने देख ही लिया किआपके पुण्य-फलदान करने से नरक की ज्वाला बिल्कुल ठण्डी पड़ चुकी है और यहां के सभी प्राणी विमानों में बैठकर स्वर्ग को चले जा रहे हैं। आपका उद्देश्य पूरा हो चुका अतएव अब तो आप हमारे साथ चलने की कृपा करें। आपके लिये दिव्य विमान तैयार है।''राजा ने गम्भीरता पूर्व उत्तर दिया,""परन्तु मैं अब स्वर्ग में जाने का अधिकारी ही कहाँ रहा? मैं तो अपना सभी पुण्यकर्म दान कर चुका हूँ। अब तो अकेला ही नरक में रहूँगा।'' ""नहीं,आपको स्वर्ग में पधारना ही होगा।''मुस्कराते हुए धर्मराज ने कहा,""आपने जोअपने पुण्यकर्म के फल का दान किया है,इस दान का फल तो उस पुण्य से भी कई गुणाअधिक हुआ। अब वह तो आपको भोगना है। अब तो आप समूचे दिव्य लोक के स्वामी हो गये।''
 दूसरों के दुःख और ताप को सहन कर सकने वाले वे पुण्यवान राजा अन्त में धर्मराज और इन्द्रदेव के साथ दिव्यलोक में पधारे। यह सच्चा दया-भाव था, जिसने राजा को महान से भी अति महान बना दिया। यह पुण्यात्मा राजा इतिहास के प्रसिद्ध महाराज जनक थे,जो बाद में श्री गुरु नानक देव के रूप में भी फिर एक बार मृत्यु लोक के जीवों का दुःख निवारण करने के लिये पधारे थे और अपना पावन नाम सृष्टि में अमर कर गये।

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