Monday, March 14, 2016

चित्रकारों की प्रतियोगिता


     एक बहुत बड़े सम्राट के द्वार पर दो चित्रकारों ने आकर निवेदन किया।उन दोनों ही चित्रकारों ने यह दावा किया कि उनके जैसा चित्रकार पृथ्वी पर नहीं है।उस सम्राट के दरबार में चित्रकार का पद खाली हुआ था और वह उस बड़े पद पर किसी श्रेष्ठ चित्रकार को नियुक्त करना चाहता था। उसे निर्णय करना था कि उन दोनों में किसका दावा ठीक है। उसने उन दोनों को कहा कि तुम अपनी अपनी कलाकृतियाँ बनाकर दिखाओ। जिसकी कृति श्रेष्ठ होगी,वही राजपद पर नियुक्त हो जायेगा।
     एक चित्रकार ने बहुत सा सामान मांगा, तूलिकाएं मांगी,रंग मांगा और छः महीने का समय मांगा। उसने आज्ञा चाही कि छः महीने का मुझे समय मिले,छःमहीने में चित्र बनाकर तैयार करूँगा।दूसरे चित्रकार ने कहा कि मुझे भी उसी चित्रकार की दीवाल के सामने दीवाल मिल जाये और सामान मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, सिर्फ मुझे एक बड़ा पर्दा चाहिए। पहला चित्रकार एक दीवाल पर पेंट करने में, चित्र बनाने में लग गया दूसरे चित्रकार ने अपने दीवाल पर पर्दा डाल दिया। वह उसके भीतर क्या करता था किसी को भी पता नहीं था। कभी भी किसी ने कोई सामान उसे भीतर ले जाते नहीं देखा। खाली हाथ जाता था खाली हाथ लौट आता था।लोग हैरान थे कि वह भीतर क्या बना रहा है।दिन भर भीतर रहता था।लेकिन क्या बना रहा था,न उसके पास रंग थे,न तूलिकाएं थी,न कोई और सामान था। छःमहीने पूरे हुए। पहले चित्रकार का चित्र बनकर तैयार हो गया। राजा देखने आया। उसने अपनी दीवाल के ऊपर से पर्दा हटाया। चित्र बहुत अद्भुत बना था।ऐसा चित्र राजा ने कभी देखा नहीं था वह देखकर बिल्कुल सम्मोहित हो गया,देखकर बिल्कुलअवाक् रह गया।फिर उसने दूसरे चित्रकार को कहा कि तुम भी अपना पर्दा हटाओ दूसरे चित्रकार ने भी पर्दा हटाया।सारे लोग और भी देखकर आश्चर्य से भर गये,वही चित्र जो पहली दीवाल पर बना था उससे भी ज्यादा सुन्दर दूसरा दीवाल पर बना था।वह सब हैरान हो गये।लेकिन निकट जाकर उन्होने देखा, दूसरे चित्रकार ने दीवाल पर चित्र नहीं बनाया था।उसने तो दीवाल को घिस घिस कर छःमहीने में दर्पण की तरह चमकदार बनाया था।वह दर्पण की तरह चमकदार हो गयी थी। दीवाल और पहला चित्र उसमें प्रतिबिम्बित हो रहा था और यह प्रतिबिम्बित चित्र और भी अदभुत था।इसमें गहराई आ गयी थी,वह भीतर दूर चित्र मालूम हो रहा था पहला चित्र दीवाल के ऊपर मालूम होता था,दूसरा चित्र दीवाल के भीतर मालूम होता था। दूसरा चित्रकार नियुक्त कर दिया।
     जीवन में भी जो व्यक्ति अपने मन को दर्पण की भांति निर्मल बना लेता है स्वच्छऔर साफ उसके मन में परमात्मा की छवि, परमात्मा का रूप प्रतिबिम्बित होने लगता है। जो अपने मन को अत्यन्त निर्मल बना लेता है अत्यन्त शान्त बना लेता है, स्वच्छ बना लेता है,इस प्रकृति में ही इस प्रकृति के ही प्रतिबिम्बों में उसे परमात्मा के अपूर्व आनन्द का बोध शुरु हो जाता है। वह वृक्ष के पास खड़ा होगा वृक्ष में भी उसे परमात्मा के दर्शन शुरु हो जायेंगे। वह एक पक्षी का गीत सुनेगा, तो पक्षी के गीत में ही उसे परमात्मा की वाणी सुनाई पड़ेगी।वह एक फूल को खिलते देखेगा,तो उस फूल के खिलने में भी परमात्मा की सुबास की सुगन्ध मिलेगी।उसे चारों तरफ अपूर्व शक्ति का बोध होना शुरु हो जाता है।लेकिन यह होगा तब जब मन इतना निर्मल और स्वच्छ हो कि उसमें प्रतिबिम्ब बन सके।तुमने देखा होगा झील पर कभी जाकर अगर
झील पर बहुत लहर उठती हों।आकाश में चांद हो तो फिर झील पर कोई प्रतिबिम्ब नहीं बनताऔर अगर झील बिल्कुल शान्त हो उसमें कोई लहर न उठती हो दर्पण की तरह चुप और मौन हो तो फिर चाँद उसमें दिखायी पड़ता हैऔर जो चाँद झील में दिखाई पड़ता है वह उससे भी सुन्दर होता है प्रकृति चारों तरफ फैली हुई है लेकिन हमारा मन दर्पण की भांति नहीं है इसलिए उसके भीतर उस प्रकृति की कोई छवि नहीं उतरती। चित्र नहीं बनते और तब हम वंचित हो जाते हैं उसे जानने से जो हमारे चारों तरफ मौजूद है।
       कैसे चित्त सरल होगा और कैसे कठिन हो जाता है इन दो बातों पर विचार करना भी ज़रूरी है।उन लोगों का मन सर्वाधिक कठिन हो जाता है, जिनके भीतर अहंकार का भाव बहुत ज्यादा होता है। जितना उन्हें लगता है कि मैं कुछ हूँ,मैं कुछ खास हूँ दम्भ जिनमे बहुत गहरा हो जाता है उनका ह्मदय कठोर होता चला जाता है। जिनके भीतर अहंकार का भाव जितना कम होता है उनका ह्मदय उतना ही सरल होता है।बच्चे में कोई अहंकार नहीं होता इसलिए वह सरल है। श्री वचनों की रगड़ जितनी जितनी मनको लगेगी वह विमल होता जाएगाऔर दर्पण की नार्इं चमकेगा। उसमें सहज रूप में गुरुज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हो जाएगी जिससे माया का अन्धकार काफूर हो जाएगा। तब उस निर्मल ह्मदय में श्री गुरुदेव अपनी सम्पूर्ण शक्तियों सहित आकर विराजमान हो जाएंगे। वैसे ही मनमति के पर्दे के दूर हो जाने से शुद्ध अन्तःकरण वाले के अन्तर में जितनी शक्तियां सतगुरुदेव भगवान में होती है। वे सबकी सब उस सेवक में स्वयं आकर प्रवेश कर जाती है।

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