Friday, March 25, 2016

मंसूर को सूली दी


     मंसूर को वे सूली दे रहे थे। उसके पैर काट दिये,उसके हाथ काट दिये उसकी आँखें फोड़ दीं। दुनियाँ में उससे कठोर यातना कभी किसी को नहीं दी गयी।क्राइस्ट को जल्दी मार दिया गया।गाँधी को जल्दी गोली मार दी गयी,सुकरात को ज़हर दे दिया गया। मंसूर मनुष्य के इतिहास में सबसे ज्यादा पीड़ा से मारा गया। पहले उसके पैर काट दिये। जब उसके पैरों से खून बहने लगा,तो उसने खून को लेकर अपने हाथों पर लगाया। भीड़ इकट्ठी थी,लोग पत्थर फेंक रहे थे। उन्होने पूछा,""यह क्या कर रहे हो?'' उसने कहा,""वजू करता हूँ।'' मुसलमान नमाज के पहले हाथ धोते हैं। उसने अपने खून से अपने हाथ धोये। उसने कहा,"" वजू करता हूँ।'' और कहा,याद रहे मंसूर का यह वचन कि जो प्रेम की वजू है असली,वह खून से की जाती है, पानी से नहीं की जाती। और जो अपने खून से वजू करता है, वही नमाज में प्रवेश करता है।
   लोग बहुत हैरान हुए कि पागल है।जब उसे यातनाएं देते समय आँखें फोड़ दी गयीं,तब चिल्लाया कि,""हे परमात्मा स्मरण रखना। मंसूर जीत गया।''लोगों ने पूछा क्या बात है? किस बात में जीत गये? उसने कहा, परमात्मा को कह रहा हूँ।कि मैं जीत गया।मैं डरता था कि शायद इतनी शत्रुता में प्रेम कायम नहीं रह सकेगा। प्रेम कायम है। मंसूर जीत गया। इन्होने जो मेरे साथ किया है,मेरे साथ नहीं कर पाये।प्रेम कायम है। यही मेरी प्रार्थना है और यही मेरी इबादत है। मंसूर उस वक्त भी हँस रहा था, उस वक्त भी मस्त था। लोग मौत के सामने खुश रहे हैंऔर हँसते रहे हैं।और हम ज़िन्दगी के सामने उदास और रोते हुए बैठे हैं। यह गलत है।कोई उदास रास्ते,कोई विषाद से भरा हुआ चित्त कोई बड़े अभियान नहीं कर सकता है। अभियान के लिए उत्फुल्लता,अभियान के लिए बड़े आनंद से भरा हुआ चित चाहिए। तो चौबीस घंटे उत्फुल्लता को साधिये।ये सिर्फ आदतें हैं।उदासी एक आदत है,जिसको आपने बना लिया है। उत्फुल्लता एक आदत है, उसको बना सकते हैं।उत्फुल्लता बनाये रखने के लिये ज़रूरी है कि ज़िन्दगी का वह हिस्सा देखिये,जो प्रकाशित है,वह हिस्सा नहीं,जो अंधेरे से भरा है।मैंआप से कहूँ कि मेरा कोई मित्र हैऔर यह बहुतअद्भुत गीत गाता है या बहुत अद्भुत बांसुरी बजाता है। आप मुझसे कहेंगे, होगा। यह क्या बांसुरी बजायेगा। इसको हमने शराबखाने में शराब पीते देखा है। यह अंधेरा देखना है। अगर मैं आपसे कहूँ कि ये मेरे मित्र हैं, शराब पीते हैं। और
आप मुझसे कहें, होगा। लेकिन ये तो अद्भुत बांसुरी बजाते हैं। तो यह ज़िन्दगी के प्रकाशित पक्ष को देखना है।जिसको खुश होना है,वह प्रकाश को देखे।जिसको खुश होना है वह यह देखे कि दो दिनों के बीच में एक रात है। और जिसको उदास होना है, वह यह देखे कि दो रातों के बीच में केवल एक दिन है। हम कैसा देखते हैं ज़िन्दगी को, वैसा हमारे भीतर कुछ विकसित हो जाता है। तो ज़िन्दगी के अंधेरे पक्ष को न देखें उजाले पक्ष को देखें।

Wednesday, March 23, 2016

लोभी राम को चार बत्तियाँ दीं


माया की आशा रखने वाला एक लोभीराम किसी महात्मा के पास गया। निवेदन किया,""स्वामी जी!मेरे पास पौना लाख रुपया है-आप कृपा करें कि उसमें वृद्धि हो जाये और वह पूरा लाख बन जाये। मेरी यह आशा यदि पूर्ण हो गई तो मैं एक चित्त होकर भजन करुँगा। यह मेरा वचन है।'' महात्मा जी ने उसे समझाया कि तुम इस विचार का त्याग कर दो आशाओं के दीवाने मत बनो। मन के धोखे में आकर अपना समय निरर्थक न गँवाओ।भजन भक्ति का सम्बन्ध पौने या पूरे लाख से नहीं हुआ करताअपितु इन्हींआशाओं के कारण भजन-भक्ति में परदे पड़ जाने का भय बना रहता है। परन्तु उसने अपनी बात का बार बार अऩुरोध किया और महात्मा जी को बाध्य किया कि मुझे आप औरों जैसा मत समझिये-निश्शंक हो करआप मेरी परीक्षा कर लें। उसकी  विनम्रता पूर्ण प्रार्थना को सुन कर महात्मा जी विवश हो गये और उन्होने रूई की चार बत्तियां बनार्इं तथा उन्हें घी में भिगो कर उसे दे दियाऔर कहा किअमुक पहाड़ पर इन बत्तियोंं को ले जाओ,उस पर्वत के एक कोने पर एक बत्ती जलाना।यदि वह हवा से बुझ जाये तो दूसरे कोने में जाकर दूसरी बत्ती जला लेनाअगर वह भी बुझ जाय तो तीसरे कोने में जाकर तीसरी बत्ती जलाना। यदि वह भी शान्त हो जाये तो चौथे कोने में जाकर चौथी बत्ती जलाना।भाव यह कि जहां बत्ती जलती रहे उसीके नीचे खुदाई करने से तुम्हें धन मिलेगा। उसी जगह से तुम उतना ही धन उठाना जितने से तेरा एकलाख पूरा हो जाये।अधिक लालच मत करना।चौथी बत्ती जलाने की कोशिश मत करना।और प्रण केअऩुसार भजनभक्ति के काम में लग जाना। वह पुरुष अति प्रसन्न हुआ। बत्तियाँ लेकर उसी पहाड़ पर जा पहुँचा। वहाँ जाकर उसने पर्वत के एक कोने में बत्ती जलाई। वह जलती रही। थोड़ी खुदाई वहां करने पर उसे तांबे की ऐसी कान मिली जिस में लाखों रूपयों का तांबा विद्यमान था। दिल में सोचने लगा कि जैसे कोई भिखारी किसी धनाढय से एक पैसे की याचना करता है तो वह सेठ अपनी प्रतिष्ठा को देख कर उसकी झोली में रूपया डाल देता है वैसे हीमैने तो महात्मा जी से पच्चीस हज़ार की भीख मांगी थी किन्तु उन्होने अपनी अन्तरिच्छा से मुझे लाखों का माल दे दिया है। मुझे अब उनके पास दोबारा मांगने को जाना नहीं हैअब इसे तो ले ही लूँ-यहाँ यह पड़ा किस काम आएगा?अपने मन ही मन में पुलाव पका कर वह लाखों रूपयों का ताम्बा घर में ले आया।
     प्रत्येक वस्तु का अपनाअपना प्रभाव है।ज्यों ज्यों धन बढ़ा त्यों त्यों उसकी तृष्णा भी बढ़ती चली गई। मन ने कहा कि महात्मा जी की दी हुई दूसरी बत्ती भी जलाकर देख ली जाये।इस विचार से पहाड़ के दूसरे कोने में जाकर उसे जला लिया। वह भी जलने लगी। वहाँ खुदाई करने पर चांदी की कान मिली।हर्ष से फूला न समाया। माया के मद में चूर होकर अपने को कुछ का कुछ समझने लगा।चापलूस लोग भी उसे बड़ा भाग्यशाली कह कर उसकी लगे प्रशंसा करने। जब सारी की सारी चाँदी घर आ गई तो वह तीसरी बत्ती को लेकर पहाड़ के तीसरे कोने में चला गयाऔर उसे जला लिया।वह भी जलती रही।विधि का विधान ऐसाहुआ कि उस धरती के खोदने पर सोने की कान प्राप्त हुई। करोड़ों रुपयों का सोना उसे वहां से हाथ लगा।प्रतिदिन उसपर माया का नशा भी सवार होता गया।भजन भक्ति करने वाले प्रण तो उसे सर्वथा भूल गये।
          प्रानी  राम न  चेतई  मदि  माइआ  कै  अंध।।
          कहु नानक हरिभजन बिनु परत ताहि जम फंध।।
मन में सोचने लगा कि मुझे एक से एक बढ़कर उत्तम वस्तुएं मिलती जा रही हैं। पहले ताम्बा मिला,फिर चांदी मिली,बाद में सोना इस क्रम से अब चौथे कोने में अवश्य ही हीरे-जवाहरात मिलेंगे।महात्मा जी ने अपने लिये रखे होंगे इसलिये मुझे मना किया। लालच में आकर निदान चौथी बत्ती लेकर उस पहाड़ के चौथे कोने मे चला गया। बत्ती जलाई तो वह भी जलने लगी।प्रसन्न होकर उसने वहाँ खुदाई की और एक कमरा देखा
उसपर पलस्तर किया हुआ था।उनमें एक बहुत बड़ा दरवाज़ा था।जिसके किवाड़ बन्द थे। बाहर से कुण्डी लगी हुई थी।कुण्डी खोलकर उसनेअभी अन्दर पग रखा ही था कि एकमनुष्य जो पहले से उस कमरे में बन्द था झट से बाहर निकल आया और तुरन्त किवाड़ बन्द करके उसने सांकल लगा दी। और बोला कि जब कोई तुम्हारे जैसा और कोई लोभीराम आवेगा तब तुम्हें मुक्ति मिलेगी। तब तक यहाँ की हवा खाओ।
     अब उसे छुटकारा क्या मिलना था?कुछ दिन तो बेचारा निराहार वहाँ पड़ा रहा और अपनेआप को भरपेट कोसता रहा। कि मैने भयंकर भूल की जो उन महात्मा जी के वचन को नहीं माना और उनके साथ किये हुए प्रण को तोड़ दिया-सच है,""लालच बहुत बुरी बला है।'' लोभ में आकर यदि मैं वचन भंग न करता तो मुझे यह आज का दिन देखना न पड़ता,परन्तु अब पछताये होत क्या जब चिड़ियां चुग गर्इं खेत।
     सोने चाँदी के ढेरों का चिन्तन करता हुआ वह सेठ ठण्डी आहें भरता रहा अन्त में यमदूतों ने आकर उसे मृत्युपाश में बाँध लिया और धर्मराज ने उसे सर्प की योनि में डाल दिया। परिणाम क्या निकला-जिस माया के लालच में पड़ कर महात्मा के वचनों का उल्लंघन किया वह माया भी साथ न गई। उसी की तृष्णा ने उसे नीच योनियों में अति दुःखित किया। अपना लोक भी बिगाड़ बैठा और परलोक भी न सँवरा। भजन भक्ति के बिना उसने दोनों लोक ही नष्ट कर दिये।
          कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ, दूनी न चाली साथि।
          पाइ   कुहाड़ा   मारिआ , गाफलि  अपुनै  हाथ।।
   इसलिये हमें हमारे श्री गुरुदेव जी जो कि हमारे परम हितैषी हैं-हमारी
मनोवृत्ति को बदलना चाहते हैं-कथन करते हैं ""तुम तो आशा रखो केवल नाम की-शेष सब चीज़ें तुम्हारे पीछे फिरेंगी। जैसे सम्पूर्ण नदियाँ समुद्र की ओर स्वतः दौड़ती चली जाती हैं वैसे नाम के रसिक के पीछे समस्त सांसारिक पदार्थ भागे चले आते हैं।

Tuesday, March 22, 2016

लैम्प का उदाहरण


उदाहरणतः आपने एक विज्ञापन पढ़ा कि,""अमुक लैम्प बहुत अच्छा है। उसमें तेल कम खर्च होता है रोशनी बहुत देता है,अमुक दुकान से वह मिल सकता है आदिआदि।''यदिआप लैम्प का विज्ञापन एक नहीं लाखों लाकर घर में लटका देवें तो क्या अंधेरा दूर हो जायेगा? कदापि नहीं। अन्धेरा तो तभी दूर होगा जब आप उस लैम्पों वाली दुकान पर पहुँचेंगे लैम्प लाकर घर में उसे जलाएंगे। विज्ञापन में लैम्प के गुणअवश्य लिखे हैं किन्तु वह अपने आप लैम्प नहीं। इसी प्रकार सभी धर्मग्रन्थ रामायण-महाभारत-गीता-गुरुवाणी-कुरान-बाइबिल सब के सब ईश्वर की महिमा से भरे हैं परन्तु वे स्वयं ईश्वर नहीं हैं। इसी प्रकार आपको अगर अपने घर में बिजली की आवश्यकता है तो उसके लिये बिजली के कार्यालय खुले हैं।जहाँ आपको बिजली लेने के लिये प्रार्थना पत्र देना पड़ता हैऔर सारी कार्वाही पूरी करने के बाद कार्यालय में आपकी एक फाईल तैयार हो जाती है।फाईल निस्सन्देह तैयार हो गई परन्तुआपके घर में रोशनी तो तभी होगी जब आप के घर की तार बिजली घर के साथ जोड़ी जाएगी। फाईल में बिजली की बातें अवश्य लिखी हैं किन्तु वे आपके घर को प्रकाशमय नहीं बना सकतीं। इसी तरहअनेक ग्रन्थ हमें रोशनी दिखाते हैं वे स्वय रोशनी नहीं हैं।जहाँ वे हमें भेजते हैं हमें वहाँ जाना चाहिये।जिस समय हमें रोशनी मिल जाएगी फिर ग्रन्थों को भी अधिक पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हाँ-वह बात अलग है कि जब कभी भजन अभ्यास की तार टूट जाती है तो धर्मग्रन्थों का सहारा भी लेना पड़ता है। सच्चाई तो यह है जिसे सन्तों ने साफ कह दिया हैः-
       बेद कतेब सिमृति सभि सासत इन पड़िआ मुकति न होई।।
       एकु अखरु जो  गुरुमुखि  जापै  तिस की  निरमल सोई।।
साहिबों का कथन है कि बेद-पुराण-स्मृति और शास्त्रों को पढ़ने से मुक्ति नहीं मिल सकती। मोक्ष प्राप्ति का तो सबसे सुगम मार्ग गुरुमुख बनकर एक अक्षर के जाप करने का है। इसलिये जीव का धर्म है कि वह ब्राहृनिष्ठ सन्त सदगुरुदेव की खोज करे, उनसे नाम की प्राप्ति करके उसकी कमाई करता हुआ भवसागर से पार हो जावे।

Sunday, March 20, 2016

गुरु बिन गत नहीं


एक दिन श्री वचन हुये कि ""शाह बिन पत नहीं और गुरु बिन गत नहीं।''इस कथन अऩुसार अधिकतर परिवारों में यह प्रथा चली आती है कि वे अपना एक पारिवारिक शाह बना लेते हैं और आवश्यकता के समय अर्थात विवाह अथवा मृत्यु आदि के अवसर पर उससे ऋण लेकरअपना काम चलाते हैं और धीरे-धीरे ब्याज़ सहित चुकता कर देते हैं। इसमें उन का काम निकल जाता है। और अपने जात-बिरादरी वालों और पड़ोसियों में उनका मान रह जाता है, क्योंकि इस प्रकार के लेन-देन और कमी-बेशी का किसी को पता नहीं चलता। इसी प्रकार अधिकतर परिवारों में गुरु धारण करने की रीति भी चली आती है। जैसे सांसारिक कार्यों के लिये शाह बनाया, वैसे ही पारमार्थिक कार्यों के लिये गुरु भी अवश्य बनाना चाहिये अन्यथा जैसे आवश्यकता के समय बिना शाह के द्वार-द्वार पर रूपया मांगने से मान जाता रहता है, वैसे ही बिना गुरु के परलोक में भी ""गत'' नहीं हो सकती इसलिये गुरु का होना भी अति आवश्यक है। ""दलीलुल आरफीन'' नामक पुस्तक में लिखा है कि हज़रत मुईनुद्दीन चिश्ती साहिब का एक पड़ोसी जो उनका गुरु भाई था, अपने गुरु में दृढ़ आस्था और पूर्ण विश्वास रखता था। जब वह मृत्यु को प्राप्त हुआ तो हज़रत मुईनुद्दीन चिश्ती साहिब उसकी कब्रा पर गये और ध्यानमग्न होकर उसकी रूह की शान्ति के लिये परमात्मा से दुआ करने लगे, तो उस समय प्रथम तो उनके चेहरे का रंग उड़ गया, परन्तु बाद में मुख-मण्डल पर प्रसन्नता के चिन्ह प्रकट हुये। लौटते समय हज़रत साहिब के एक शिष्य ने (जो उस समय हज़रत साहिब के चेहरे के उतार-चढ़ाव को देख रहा था) उसका कारण पूछा तो आपने फरमाया कि जब मैं उसके विषय में सोच विचार करने लगा तो देखा कि मेरे गुरु भाई के निकट एक भयंकर आकृति एवं रूप-रंग का देव (फरिश्ता) आया और उसको कष्ट देना चाहा। उसको देखकर मैं दुःखी और निराश हो गया परन्तु उसी समय हमारे पीरो-मुर्शिद (गुरुदेव) हज़रत उस्मान हारूनी रहमतुल्ला अलिया प्रकट हुयेऔर उस फरिश्ते से कहा कि इसको क्यों कष्ट देता है? इसको छोड़ दे। उसने उत्तर दिया कि इसने अपने जीवन में कोई शुभ कर्म अर्थात दान, पुण्य, तीर्थ, व्रत आदि नहीं किया, अतएव इसको मैं नहीं छोड़ूँगा। हमारे गुरुदेव ने फरमाया कि खैर! शुभकर्म न किया तो न सही, हमारा दामन तो इसने पकड़ा है और हमारी सेवा-भक्ति तो इसने की है,क्या यह कम है? किन्तु फरिश्ता न मानाऔर फिर कष्ट देना चाहा तो उन्होने उस फरिश्ते के मुख पर बड़े ज़ोर से एक थप्पड़ मारा। थप्पड़ खाकर वह फरिश्ता भाग निकला। और उसी समय एक सुन्दर रूप-रंग का देवदूत वहां प्रकट हुआ और मेरे गुरुभाई को स्वर्ग की ओर ले गया। यह देखकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई और मैने अपने गुरुदेव को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इतने में गुरुदेव का दैदीप्यमान स्वरूप भी अन्तर्धान हो गया। और यह ध्रुव सत्य है कि सन्त सदगुरु का परोक्ष हाथ सदैव सेवक के साथ रहता है। इस लोक में भी और परलोक में भी। गुरुमुख सेवक जब भी अपने इष्टदेव का सच्चे ह्मदय से श्रद्धा विश्वास के साथ सुमिरण ध्यान करता है, तो उनका परोक्ष हाथ सहायता के लिये वहीं विद्यमान होता है।
    सोना काई न लगे लोहा घुन नहीं खाये।
    भला बुला शिष्य गुरु का कबहुँ नरक नहीं जाये।।
जब केवल दामन पकड़ने से ही यमराज जीव का कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो फिर जो एक एक स्वांस मालिक की भक्ति में नाम में लगायेंगे तो उनके कल्याण में शक ही क्या है? वह निश्चय ही सच्चे आनन्द को प्राप्त सकेंगे। हम सब सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा से मानुष जन्म मिला यम त्रास निवारण, जगतारण श्री परमहँस दयाल जी की शरण प्राप्त हुई, उनकी सच्ची राहनुमाई नसीब हुई और उनसे सच्चे नाम की प्राप्ति हुई है। हमारा कर्तव्य है कि इस सुनहरी अवसर का लाभ उठाते हुये महापुरुषों के वचनों के अनुसार अपने जीवन के एक एक स्वांस को मालिक के अर्पित करते हुये अपनी आत्मा को आवागमन के चक्कर से, चौरासी की कैद से छुड़ाकर परमात्मा से मिलाना है। और मालिक से यही प्रार्थना करें कि प्रभो। 
कई जन्मो के बिछुड़े थे माधो ये जन्म तुम्हारे लेखे। 
कहे रविदास आस लग जीवां चिर भयो दरसन पेखे।
प्रभो कई जन्मों से आपसे बिछुड़े थे, ये जीवन आपके लेखे लग जाये मन धोखा न दे इसी आस पर जीऊं कि आपकेदर्शन पाकर जीवन सफल करूँ।

Saturday, March 19, 2016

पिछले जन्म का फल


 प्रथम महायुद्ध के पच्चीस-तीस वर्ष उपरान्त विदेश में एक युवक अपने यौवन के उन्माद में,ऐश्वर्युक्त जीवन बिता रहा था। अचानक क्रान्ति हुई। राजनैतिक समस्यायें समय परिवर्तन के साथ मोड़ लेती है। अचानक विदेश से प्रवासियों को निकाला जाने लगा और उनके साथ अमानवीय घटनायें घटित हुई। उस युवक की स्त्री तथा पुत्र को निर्दयता से उसके सामने मार-पीटकर सीखचों के अन्दर ले जाया गया।उस युवक नेअपनी जान बचाकर कुछ स्वर्ण मुद्रायें जेब में डालीं और हिमाच्छित प्रदेश में हिमालय की ओर मनःशान्ति को प्राप्त करने के लिए चल पड़ा। रह रह कर उसेअपनी पत्नी और पुत्र की यादआती तो मन चीत्कार कर उठता। परन्तु अब हो ही क्या सकता था। भूख-प्यास,सर्दी आदि सहन करने की उसमें क्षमता न थी। ऊनी पतलून,ओवरकोट एवं टोप पहने वह कभी कभार हिमाच्छित प्रदेश से नीचे उतरता। दुकान पर स्वर्ण मुद्रा फैंकता और खाने पीने का सामान जुटाकर चल देता। पहाड़ पर एक गुफा में उसने एक योगी को देखा। समाधिस्थ। प्राणों का स्पन्दन भी है या नहीं, वह नहीं जानता था। बस!उसने मनःशान्ति को प्राप्त करने के लिए गुफा के बाहर वृक्ष की खोल में डेरा लगा दिया।
     कभी कभी लकड़ियाँ बीन कर लाता और गुफा से बाहर जला देता कि शीतलता कम हो जाये। कभी दूध एवं फलादि रख देता कि जब भी योगी उठें, श्रद्धा स्वीकार कर उसे अनुग्रहीत करें। कई मास
प्रतीक्षा के उपरान्त योगी की समाधी खुली।महायोगी की देह से एक दिव्य प्रकाश निकल रहा था। उसने झुककर योगी को प्रणाम किया। महायोगी ने कहा-वत्स! तुम्हारा परिचय?
     मैं इसी भूमि का नागरिक हूँ। परन्तु बिना किसी दोष के क्रान्ति- कारियों ने मेरा घर उजाड़ दिया। मुझे हंटरों से पीटा और मैं किसी तरह से जान बचाकर यहाँ आपकी शरण में पड़ा हूँ। मैं आपके द्वार पर कब से आँखें बिछाये सहायता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ महाराज। क्या आप उन पिशाचों से मेरा प्रतिशोध दिला सकते हैं?
     हाँ! सब कुछ हो सकता है वत्स! केवल अपने भूतपूर्व जन्म को इन आँखों से देख लो-महायोगी ने शान्त एवं मधुर वाणी में कहा। उसने आँखें बन्द कींऔर उसी क्षण उसकी आँखों के समक्ष चलचित्र की भाँति एक-एक चित्र सामने आने लगा। कंटीली तारों के घेरे में सैंकड़ों स्त्री-पुरुष और बच्चे।राजाओं का युग था।वह सेनापति के रूप में घोड़े पर चढ़ा हुआ हंटरों से पीटता हुआ हँसता जा रहा था। स्त्री ने करुण पुकार की। उसके बच्चे को छीनकर घोड़े के नीचे पद दलित कर अट्टाहास करता हुआ सहकारियों सहित सब ने स्त्रियों को भी निर्दयता से कुचल डाला। उसकी सम्मोहित निद्रा भंग हुई। उसका दिल दहल उठाऔर उसे ऐसा लगा कि यह सब कुछ वहअभी कर रहा है। इससेअधिक वह और सहन न कर सकाऔर थर थर कांपते हुए कहा-क्षमा!महायोगी क्षमा!
     यह तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं युवक! तुम्हारे सहकारी ही तुम्हारे स्त्री-पुत्र हुए। कोई किसी को दुःख सुख, सम्मान अपमान नहीं देता वत्स! अपने किये हुए कर्म ही दीवार पर फैंकी हुई गेंद के समान
लौटकर अपने पास आते हैं। इस विधान को कोई नहीं टाल सकता। महायोगी ने दिव्य वाणी में समझाया। युवक ने चरणों पर नतमस्तक हो क्षमा माँगी तथा महायोगी को मार्गदर्शक बनाकर जीवन में सत्यता के मग पर अग्रसर होने लगा।

Friday, March 18, 2016

कड़ुवे कद्दू को तीर्थों पर स्नान कराया


          अंतरि मैलु जे तीरथ नावै, तिसु बैकुण्ठ न जाना।।
          लोक  पतीणे  कछू  न  होवै नाही राम अयाना।।
          पूजहू रामु एकु ही देवा।।साचा नावणु गुर की सेवा।।
एक बार एक प्रेमी तीर्थ-यात्रा करने के विचार से घर से निकला और घूमते हुए काशी जी जा पहुँचा।उस प्रेमी ने परमसन्त श्रीकबीरसाहिब जी का बड़ा नाम सुन रखा था,अतः उसने उनके दर्शन करने का विचार किया। जब वह प्रेमी श्री कबीर साहिब जी के घर पहुँचा,उस समय रात्रि होने को थी। श्री कबीर साहिब जी को जब ज्ञात हुआ कि वह प्रेमी तीर्थ यात्री है,तो उन्होने रात को विश्राम करने के लिएअपने घर में ही उसका प्रबन्ध कर दिया। प्रातः जब वह चलने लगा, तो उसने श्री कबीर साहिब जी से भी तीरथ यात्रा पर चलने की विनय की। श्री कबीर साहिब जी ने प्रेमी का दिल रखने के लिये कहा-भाई!हम तुम्हारे साथ अवश्य चलते, परन्तु अभी हमारे पास समय नहीं है। हाँ! हमारा एक काम है,यदि तुम करो तो बतायें। प्रेंमी ने उत्तर दिया-आप काम बतलायें, उस काम को करके मैं स्वयं को भाग्यशाली समझूँगा। श्री कबीर साहिब जी ने उसे एक कड़ुवा कद्दू देते हुए कहा-जिस जिसतीर्थ पर जाकर तुम स्नान करो, तो अपने साथ इस कद्दू को भी अवश्य स्नान कराना।
     उस प्रेमी की समझ में श्री कबीर साहिब जी की बात न आई, फिर भी वह कद्दू लेकर चल पड़ा। वह जिस तीर्थ पर जाता,स्वयं भी स्नान करता और कद्दू को भी स्नान कराता। कुछ दिन उपरान्त लौटते हुये वह प्रेमी श्री कबीरसाहिब जी के चरणों में पहुँचा और वह कद्दू उनके समक्ष रख दिया। श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-तुम थके हुये हो, भोजनादि करके आराम करो।तदुपरांत श्री कबीरसाहिब जी ने उस यात्री को शिक्षा देने के लिये उसी कद्दू की सब्ज़ी बनवाई और भोजन में उसके आगे परोस दी।उस प्रेमी ने ज्योंही ग्रास मुख में डाला,उस का मुख कड़वाहट से भर गया और वह थू-थू करते हुये बोला-महाराज!यह कौन सी सब्ज़ी आपने बनवाई है? यह तो बहुत ही कड़वी है।
     श्री कबीरसाहिब जी ने फरमाया-यह उसी कद्दू की है,जो हमने तुम्हें दिया था।उस प्रेमी ने हँसते हुये कहा-वाह महाराज!आपभी मज़ाक करते  हैं?वह तो कड़ुवा कद्दू था। श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-ज्ञात होता है कि तुमने इसे तीर्थों का स्नान नहीं करवाया,न्यथा इसकी कड़ूवाहट अवश्य दूर हो गई होती।प्रेमी बोला-महाराज!भला बाहर के स्नान से भी कभी अन्दर की कड़ुवाहट दूर हुई है, जो इसकी होती। श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-हमारा भी यही कथन है कि केवल तीर्थों के स्नान से अन्दर की मैल दूर नहीं होती।अन्दर की मैल तो सत्पुरुषों की शरण-संगति में जाकर नाम का अभ्यास करने से ही दूर होगी।
     प्रेमी संस्कारी था, बात उसकी समझ में आ गई। उसने श्री कबीर साहिबजी के चरणों में प्रणाम कर सन्मार्गदर्शाने के लिये उनका कोटिशः धन्यवाद किया और नाम-दान की विनय की। श्री कबीर साहिब जी ने दया करके उसे नाम-दान दिया। नाम की कमाई करने से उसका जीवन संवर गया। यहां मनमें शंका उत्पन्न हो सकती है कि क्या तीर्थों पर जाने का कोई लाभ नहीं? इसके उत्तर में सन्तों का कथन है कि लाभ तो अवश्य है,परन्तु वह लाभ कुछ और ही है, जैसा की कथन हैः-
          उठ  फरीदा  गमन  कर  ते  दुनियाँ  वेखण  जा।
         मत कोई बख्शिया मिल जाई ते तूं वीं बख्शिया जा।।
यह कहकर कि तीर्थों पर जाने से मन की मलिनता उतरती है और मन शुद्ध निर्मल होता है, साधारण जीवों के सुधार का एक साधन सोचा गया ताकि संसारी लोग,जो सम्पूर्णआयु संसार के कार्य व्यवहार में फंसे रहते हैं,थोड़ा समय निकालकर तीर्थों पर जायें,इसके पीछे सन्तों का वास्तविक अभिप्राय यही था कि वहाँ पर यदि सौभाग्य से उनका मालिक के प्यारे सन्तसतपुरुषों से मिलाप हो जायेगा,तो उनकी शुभ संगति एवं उपदेश से उनकी नैया पार हो जायेगी।सत्पुरुषों की शुभसंगति तथा उनकी कृपा के बिना मन की मलिनता कदापि दूर नहीं होती।इसलिये मनुष्य को चाहिये कि सन्तों सत्पुरुषों की शुभ संगति ग्रहण कर मन को सेवा-भक्ति तथा नाम-सुमिरण से शुद्ध-निर्मल बनाये। मन के शुद्धिकरण से तथा सत्पुरुषों की प्रसन्नता से ही प्रभु के धाम में पहुँचा जा सकता है।

Thursday, March 17, 2016

पुण्यात्मा जनक के प्रभाव से नरकवासियों को मुक्ति


     एक पुण्यात्मा राजा की मृत्यु हुई। शरीर तो है ही नाशवन्त वस्तु। चाहे कोई बड़े से बड़ा पापी-अपराधी हो या चाहे कोई महान पुण्यवान और तपोधन हो, सबके लिये मृत्यु का एक दिन निश्चित है और उससे कोई भी बच नहीं सकता। परन्तु मृत्यु होते ही उसके जीवन में किये हुये सत्कर्म अथवा दुष्कर्म का फल तुरन्त ही उसके सामने आ जाता है।उस राजा का भी जब मृत्यु समय आया,तो धर्मराज के पार्षदअति सुन्दर रूप धारण करके उन्हें लेने को आये और बड़े आदरपूर्वक ले चले। मनुष्य आखिर मनुष्य है।कितना ही धर्मात्मा और पुण्यवान हो,जीवन में कोई न कोई भूल उससे हो ही जाया करती है।राजा से भी अपने जीवन-काल में एक छोटी सी भूल हो गई थी।उस थोड़े से अपराध का भी दण्ड तो उन्हें मिलना ही था। धर्मराज ने अपने दूतों को यह आज्ञा दी थी कि पुण्यात्मा राजा को मृत्यु लोक से यहाँ लाते समय किसी प्रकार का कष्ट हरगिज़ न होने देना। उन्हें सब भाँति आदर सत्कार पूर्वक लाना। परन्तु लाना उन्हे नरकों के मार्ग से। ताकि उनकी उस छोटी सी भूल का दण्ड उन्हें यहीं मिल जाये कि वे नरकों की तपती हुई ज्वाला और घिनौनी दुर्गन्ध का एक झोंका-मात्र सहन कर लें। उसके बाद उन्हें स्वर्ग में ले आना। उनका असली आसन यहाँ बनाया गया है।
     दूतों को तो अपने स्वामी की आज्ञा माननी थी। उन्होने वैसा ही किया। जब वे राजा नरकों के नज़दीक से गुज़रने लगे तो स्वयं उनके लिये तो नरकों का कोई भी ताप दुःखदायी नहीं बन सका, परन्तु वहां से गुज़रते समय उन्होने चारों तरफ से उठती हुई लाखों-करोड़ों प्राणियों की हाहाकार की आवाज़ सुनी।नरक की घोर यातनायें भोगते हुये प्राणी वहाँ भयानक चीखें मार रहे थेऔर घुटी घुटी सिसकियाँ भर रहे थे। राजा के साथ जो दूत मौजूद थे,उन्होने उनसे पूछा, यहां यह चीखने-चिल्लाने और सिसकियां भरने का करुण शब्द कैसा सुनाई दे रहा है? दूतों ने कहा-राजन्! ये सब वे जीव हैं, जिन्होने अपने जीवन में घोर पाप कर्म किये हैं और वे उनका दण्ड भुगत रहे हैं।
     परन्तु उसी समय एक विलक्षण घटना घटित हुई। वह यह कि जब राजा वहाँ रुककर ये सब बातें दूतों से पूछ रहे थे, तभी एकदम चीख पुकार और दारूण क्रन्दन के शब्द उभरने बंद हो गये। राजा ने दोबारा  उन दूतों से प्रश्न किया,""परन्तु अब उन दुःखी प्राणियों की चीख पुकार की आवाज़ें एकदम से रुक क्यों गई हैं?'' ""आप जैसे पुण्यात्मा और उपकारी के तेज़ का ही यह प्रताप है।'' धर्मराज के दूतों ने सच्ची बात कह सुनाई।आपके यहाँ से गुज़रते समय आपके पवित्र और पुण्यवान शरीर से निकलने वाली शीतल सुगन्धित वायु ने नरकों की ज्वाला को एकदम शान्त कर दिया है और इसीलिये अब उन दुःखी प्राणियों की आत्मायें थोड़ी देर के लिये दुःखों से मुक्त होकर शान्ति का अनुभव कर रही हैं। उसी क्षण मानों दूतों की कही हुई बात के प्रमाण-स्वरूप चारों ओर से नरक के प्राणियों की दुःखभरी पुकार गूँज उठी, ""महाराज कृपा करके यहाँ से जाने की जल्दी न कीजिये। आपके यहाँ क्षणभर रुकने से हमें बहुत सुख तथा शान्ति मिल रही है। अतएव कुछ देर और यहीं पधारने की दया करें, तो आपका अति उपकार हो।''
     अत्यन्त शान्ति और गम्भीरता से दयालु राजा ने नरक के प्राणियों कोआश्वासन दिलाते हुये उत्तर दिया,""आप लोग धैर्य रखें। यदि मेरे यहां रहने से हीआप सभी कोआराम मिलता है तो मैं हमेशा हीं ठहरा रहूँगा।'  इसके उपरान्त वे दूतों से बोले,""आप लोग जा सकते हैं। मैं अब यहाँ से कहीं जाने वाला नहीं हूँ।'' धर्मराज के दूतों ने प्रार्थना की,""भगवन्! आपका स्थान स्वर्ग में है और वहां आपके लिये प्रतीक्षा की जा रही है। इसलिये आप शीघ्र चलें।''परन्तु राजा ने एक पग भी वहाँ से आगे बढ़ने से स्पष्ट इनकार कर दिया।दूत दौड़े हुये गयेऔर उन्होने धर्मराज से सब वृत्तान्त  कह  सुनाया। सुनकर  धर्मराज ने कहा, "" एक पुण्यवान और धर्मात्मा पुरुष भला नरक में कैसे रह सकता है? ऐसा होने से तो हमारे नियम ही गलत हो जायेंगे।''यह कहकर उन्होने स्वर्ग के राजा इन्द्र को साथ लिया और दोनों ही तुरन्त राजा के पास आये राजा से विनती की, "'पुण्यात्मा राजन्!कृपा करके हमारे नियमों को गलत न कीजिये।आपके पुण्यकर्म का फल आपको नियमानुसार अवश्य भुगतना है।इसलिये आप को हमारे साथ स्वर्ग में पधारना ही होगा।''उन दोनों ने अपनी बात पर ज़ोर दिया।तब राजा ने कहा,""अच्छा! यदि अपने पुण्यकर्म के बदले में ही मुझे अवश्य स्वर्ग में जाना  पड़ेगा,तो मैं अपने सभी पुण्यकर्मों का फल नरक के इन प्राणियों को दान किये देता हूँ।'' यह कहते हुये राजा ने जल हाथ में लिया और संकल्प कर दिया।
     यह हो चुका तो देवराज इऩ्द्र बोले,""राजन्! अब तो आप पधारें। आपने देख ही लिया किआपके पुण्य-फलदान करने से नरक की ज्वाला बिल्कुल ठण्डी पड़ चुकी है और यहां के सभी प्राणी विमानों में बैठकर स्वर्ग को चले जा रहे हैं। आपका उद्देश्य पूरा हो चुका अतएव अब तो आप हमारे साथ चलने की कृपा करें। आपके लिये दिव्य विमान तैयार है।''राजा ने गम्भीरता पूर्व उत्तर दिया,""परन्तु मैं अब स्वर्ग में जाने का अधिकारी ही कहाँ रहा? मैं तो अपना सभी पुण्यकर्म दान कर चुका हूँ। अब तो अकेला ही नरक में रहूँगा।'' ""नहीं,आपको स्वर्ग में पधारना ही होगा।''मुस्कराते हुए धर्मराज ने कहा,""आपने जोअपने पुण्यकर्म के फल का दान किया है,इस दान का फल तो उस पुण्य से भी कई गुणाअधिक हुआ। अब वह तो आपको भोगना है। अब तो आप समूचे दिव्य लोक के स्वामी हो गये।''
 दूसरों के दुःख और ताप को सहन कर सकने वाले वे पुण्यवान राजा अन्त में धर्मराज और इन्द्रदेव के साथ दिव्यलोक में पधारे। यह सच्चा दया-भाव था, जिसने राजा को महान से भी अति महान बना दिया। यह पुण्यात्मा राजा इतिहास के प्रसिद्ध महाराज जनक थे,जो बाद में श्री गुरु नानक देव के रूप में भी फिर एक बार मृत्यु लोक के जीवों का दुःख निवारण करने के लिये पधारे थे और अपना पावन नाम सृष्टि में अमर कर गये।

Wednesday, March 16, 2016

विषयों से दुर्गन्ध


     एक महात्मा जी वन में कुटिया बनाकर रहते थे। और प्रभु का सुमिरण ध्यान किया करते थे। वे बहुत ही कम बोलते थे। आसपास के क्षेत्र के लोग महात्मा जी का बड़ा आदर सम्मान करते थे। उस देश का राजा बड़ा ही विलासी प्रकृति का था और सदैव ही विषय भोगों में रत रहता था, राजा के कोई सन्तान न थी। राजा के कुछ सम्बन्धियों ने उसे महात्मा जी के पास जाने का परामर्श दिया कि आप उनकी शरण में जाओ, हो सकता है कि उनके आशीर्वाद से आपका काम बन जाए।
     राजा ने महात्मा जी के दर्शन कियेऔर फिर उनके चरणों में विनय की-आप यहाँ टूटी-फूटी झोंपड़ी में क्यों रहते हैं?आप महल में मेरे साथ चलिये और वहीं रहिये, यहाँ वन में क्या रखा है? महल में आपको हर प्रकार का शारीरिक सुख आराम मिलेगा। दास दासियां आपकी सेवा में हर समय उपस्थित रहकर आपकी आज्ञा मानेंगे। पहले तो महात्मा जी ने राजा की बात का कोई उत्तर न दिया,परन्तु जब उसने बार-बारआग्रह किया तो महात्मा जी महल में जाने के लिए तत्पर हो गये।राजा ने उन्हें रथ में बैठाया और रथवान को महल की ओर चलने का संकेत किया। महल के अन्दर प्रविष्ट होने पर महात्मा जी को चारों ओर विषय-विलासिता के ही चिन्ह नज़र आए। यह देखकर उन्होंने अपने नाक पर कपड़ा रख लिया। राजा के पूछने पर महात्मा जी बोले-""तुम्हारे महल में तो बड़ी दुर्गन्ध उठ रही है।''
     राजा ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा,फिर कहा-""दुर्गन्ध!यहां दुर्गन्ध कहाँ?'' महात्मा जी ने कहा-""दुर्गन्ध तो उठ रही है। क्या तुम्हें दुर्गन्ध नहीं आ रही?'' राजा ने कहा-"'क्या आप मुझसे मज़ाक कर रहे हैं?दुर्गन्ध तो तब अनुभव हो,जब दुर्गन्ध का यहाँ कहीं नामोंनिशान हो। यहाँ तो हर समय हर स्थान पर दासियाँ इत्र-फुलेल छिड़कती रहती है, फिरभला यहाँ दुर्गन्ध का क्या काम?''महात्मा जी ने मुस्कराते हुए कहा ""तुम्हें दुर्गन्ध न आ रही होगी, परन्तु हमें तो बहुत आ रही है। खैर! छोड़ो इन बातों को और हमारे रहने का प्रबन्ध करो।''राजा ने उनके रहने का कमरा तैयार करने का आदेश दिया। वहां भी विषयविलासिता के सामानों की ही बहुलता थी। थोड़ी देर में महात्मा जी के सम्मुख छत्तीस प्रकार के व्यंजनों से युक्त भोजन परोस दिया गया। उन्होंने थोड़ा-सा भोजन किया और फिर विश्राम करने लगे। दूसरे दिन उन्होंने राजा से कहा-""आओ, कहीं टहलने चलें।''
     राजा चूँकि अपने स्वार्थ को दृष्टिगत रखकर महात्मा जी को महल में लाया था,अतः उनकी बात टाल न सका और चुपचाप उनके साथ हो लिया। महात्मा जी राजा को साथ लेकर महल से बाहर निकले और घूमते फिरते उस बस्ती की ओर जा निकले, जहाँ चमड़े का काम होता था। उस बस्ती में कहीं चमड़ा कमाया जा रहा था और कहीं पर चमड़ा सुखाया जा रहा था,इसलिये चारोंओर चमड़े की दुर्गन्ध उठ रही थी।राजा ने नाक पर रूमाल रखते हुये कहा-""यह आप कहाँ ले आए? यहाँ तो दुर्गन्ध के मारे एक क्षण भी खड़ा होना कठिन है।यहां से शीघ्र चलिये।''
     महात्मा जी ने कहा-""सामने देखो, कितने ही स्त्री,पुरुष और बच्चे काम में लगे हुए हैं,उनमें से तो किसी को भी दुर्गन्ध नहीं आ रही, फिर तुम्हें दुर्गन्ध क्योंआ रही है?''राजा ने कहा-""ये लोग दिन-रात चमड़े का काम करनेऔर इस वातावरण में रहने के कारण इस दुर्गन्ध के अभ्यस्त हो गए हैं, इसलिए इन्हें दुर्गन्ध महसूस नहीं हो रही,अन्यथा वातावरण में तो पूरी तरह दुर्गन्ध फैली हुई है।''
महात्मा जी ने हँसते हुए कहा-""राजन! यही हाल तुम्हारा और तुम्हारे महल का भी है, जहाँ सिवा विलासिता और विषयभोगों के सामानों के हमें और कुछ भी नज़र नहीं आया। विषयभोगों और मदिरा आदि में दिनरात रहने से तुम भी उनके इतने अभ्यस्त हो गए हो कि उनमें से निरन्तर उठती हुई दुर्गन्ध का तुम्हें पता ही नहीं चलता परन्तु हमारेलिए तो उस दुर्गन्ध में रहना असम्भव है।।''यह कहकर महात्मा जी राजा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अपनी कुटिया की ओर चल दिये। महात्मा जी के इन वचनों का राजा के मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा और उसे  विषयभोगों से घृणा हो गई। शेष जीवन उसने महात्मा जी के उपदेश अनुसार भजन-भक्ति और नाम-सुमिरण में व्यतीत किया। इस प्रकार वह अपना जन्म सफल कर गया।

Tuesday, March 15, 2016

परीक्षा के लिये तीनों बेटों को बीज दिये


एक सम्राट मरने के करीब था। उसके तीन बेटे थे। उसने उन बेटों की परीक्षा लेनी चाही कि किसको वह दे दे सारा राज्य। कौन सम्भाल सकेगा, कौन मालिक बन सकेगा?उसने कहा,मैं तीर्थ यात्रा पर जाता हूँ। मुझे वर्ष दो वर्ष तीन वर्ष लग सकते हैं। मैं तुम्हारी परीक्षा के लिए एक प्रयोग करना चाहता हूँ। उसने एक एक बोरा फूलों के बीज तीनों बेटों को दे दिये और कहा जब मैं लौटूं तो मैने जो तुम्हें दिया है वह अमानत रही, वह मुझे वापिस कर देना। देखो, वह नष्ट न हो जाये। बड़े बेटे ने सोचा कि ठीक है। कैसी परीक्षा है,क्या पागलपन है। उसने एक तिजोड़ी में ताला लगाकर वह बोरा भर बीज फूलों के बन्द कर दिये।उसने कहा, जब बाप लौटेगा तो निकाल कर सारा वापिस लौटा देंगे।तीन सालों में उन बीजों का वही हुआ जो होना था, सड़ गये और राख हो गये।
     दूसरे बेटे ने सोचा,इन बीजों को कहां रखे रहूँगा।कम-बढ़ हो जाय, कुछ गड़बड़ हो जाये, इन्हें बेच दूं। जब बाप लौटेगा,फिर खरीदकर एक बोरा बीज दे देंगे। कौन पहचानेगा कि वही बीज हैं?बीजों में कोई नाम लिखा है, कोई सील लगी है?कौन झंझट सम्हालने की करेगा। उसने बाज़ार में बीज बेच दिये और रूपये लाकर तिजोड़ी में रख दिये। जब बाप आयेगा, बीज खरीदकर वापिस लौटा दूंगा।
       तीसरे लड़के ने कहा,बीज सम्हालने को बाप ने दिये हैं।बीज के सम्हालने का एक ही रास्ता हो सकता है कि बीज को बो दिया जाये। इसमें फल आ जायेंगे, फिर नये बीज आ जायेंगे। उसने बीज बो दिये। सम्हालकर रखने का पागलपन क्या। इनका  फायदा भी  ले लो, इनके
फूलों की सुगन्ध भी ले लो। उसने बीज बो दिये, मौसमी बीज थे। चार महीने भी नहीं बीत पाये, बगिया फूलों से भर गयी। सारा गांव प्रशंसा करने लगा। जब बाप तीन साल बाद लौटा तो कोसों तक, मीलों तक महल के आसपास की भूमि फूलों से भरी थी।
     बाप ने आकर पूछा अपने बेटों को, बड़े को, कि बीज कहां हैं? उसने तिजोड़ी खोली,वहां से राख और बदबू क्योंकि सब बीज सड़ गये। उसने कहा, यह रखे हैं जो आप दे गये थे। बाप ने कहा, पागल,ये फूलों के बीज थे और इनसे बदबू आ रही है। कौन है ज़िम्मेवार इस बात के लिए?पहला बेटा हार गया। दूसरा बेटे से कहा,बीज?उसने कहा,मैं अभी जाता हूँ रूपये निकाले,बाज़ार से खरीद लाता हूँ।बाप ने कहा था, बीज मैने तुझे सम्हालने को दिये थे, बेचने को नहीं दिये थे।दूसरा लड़का हार गया। क्योंकि जिसे सम्हालने को दिया गया उसे हम बेच दें।
    कुछलोग पहले की तरह हैं जिन्होने ज़िन्दगी के बीज को तिजोड़ियों में बन्द कर रखा है।ज़िन्दगी सड़ जाती है और बदबू निकलती है। कुछ लोग दूसरे लड़के जैसे हैं जो ज़िन्दगी को बाज़ार में बेच रहे हैं न मालूम कितने कितने रूपों में। जिस दिन मौत सामने आयेगी वह कहेंगे,हमने ज़िन्दगी बेच दी। किसी ने धन में बेच दी, किसी ने यश में बेच दी। वे कहेंगे अपने पिता के सामने कि यह धन है, ये तिजोड़ियाँ हैं।यह देखो हमारा पद। यह देखो कि मैं मन्त्री था, मैं महामन्त्री था यह मैं प्रधानमन्त्री था फलां मुल्क का।यह सार्टिफिकेट देखो,यह प्रमाण पत्र देखो,यह पदमश्री, राज्यश्री की उपाधियाँ देखो। हमने ज़िन्दगी बेच दी है और यह पद और धन और ये सब खरीद लिया है। लेकिन उस बाप ने कहा जो कि मैने सम्हालने को दिया था वह बेचने को नहीं दिया था और बेचना होता तो खुद बेच देता, तुझे सम्हाल कर देने की ज़रूरत क्या थी? बीज कहां हैं जो मैने दिये थे। उसके हाथ में नोटों के रूपये हैं। कागज़ के रूपये हैं। अब कहां बीज जो फूल बन सकते थे।
    वह तीसरे लड़के के पास पहुँचा कि बीज कहां है मेरे?उसने कहा, बाहर आ जाएं। बीज तिजोरियों में बन्द नहीं किये जा सकते और न नोटों में बन्द किये जा सकते हैं।वह खेतों में फैल गये हैं। बाहर आ जाएं मीलों बीजों के फूल हो गये हैं,फूल हवा में लहरा रहे हैं सूरज की रोशनी में, तितलियाँ उन पर उड़ रहीं हैं और पक्षी गीत गा रहे हैं। और बाप ने कहा,तू अकेला मालिक होने के योग्य है।
    परमात्मा भी सबको बीज देता है, जीवन भी। लेकिन कुछ लोग पहले लड़के की तरह हैं, कुछ लोग दूसरे लड़के की तरह।और बहुत थोड़े लोग तीसरे लड़के की तरह बीजों के साथ व्यवहार करते हैं। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ तीसरे लड़के पर ध्यान रखना।कहीं आप पहले दो लड़कों के जैसे सिद्ध न हों। वह तीसरा लड़के अगर आप हो जाएं तो आपके जीवन की बगिया में भी इतने ही फूल, इतनी ही सुगन्ध इतने ही गीत गाते पक्षी निश्चित ही पैदा हो सकते हैं। परमात्मा करे आपका जीवन फूलों की एक बगिया बने।

Monday, March 14, 2016

चित्रकारों की प्रतियोगिता


     एक बहुत बड़े सम्राट के द्वार पर दो चित्रकारों ने आकर निवेदन किया।उन दोनों ही चित्रकारों ने यह दावा किया कि उनके जैसा चित्रकार पृथ्वी पर नहीं है।उस सम्राट के दरबार में चित्रकार का पद खाली हुआ था और वह उस बड़े पद पर किसी श्रेष्ठ चित्रकार को नियुक्त करना चाहता था। उसे निर्णय करना था कि उन दोनों में किसका दावा ठीक है। उसने उन दोनों को कहा कि तुम अपनी अपनी कलाकृतियाँ बनाकर दिखाओ। जिसकी कृति श्रेष्ठ होगी,वही राजपद पर नियुक्त हो जायेगा।
     एक चित्रकार ने बहुत सा सामान मांगा, तूलिकाएं मांगी,रंग मांगा और छः महीने का समय मांगा। उसने आज्ञा चाही कि छः महीने का मुझे समय मिले,छःमहीने में चित्र बनाकर तैयार करूँगा।दूसरे चित्रकार ने कहा कि मुझे भी उसी चित्रकार की दीवाल के सामने दीवाल मिल जाये और सामान मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, सिर्फ मुझे एक बड़ा पर्दा चाहिए। पहला चित्रकार एक दीवाल पर पेंट करने में, चित्र बनाने में लग गया दूसरे चित्रकार ने अपने दीवाल पर पर्दा डाल दिया। वह उसके भीतर क्या करता था किसी को भी पता नहीं था। कभी भी किसी ने कोई सामान उसे भीतर ले जाते नहीं देखा। खाली हाथ जाता था खाली हाथ लौट आता था।लोग हैरान थे कि वह भीतर क्या बना रहा है।दिन भर भीतर रहता था।लेकिन क्या बना रहा था,न उसके पास रंग थे,न तूलिकाएं थी,न कोई और सामान था। छःमहीने पूरे हुए। पहले चित्रकार का चित्र बनकर तैयार हो गया। राजा देखने आया। उसने अपनी दीवाल के ऊपर से पर्दा हटाया। चित्र बहुत अद्भुत बना था।ऐसा चित्र राजा ने कभी देखा नहीं था वह देखकर बिल्कुल सम्मोहित हो गया,देखकर बिल्कुलअवाक् रह गया।फिर उसने दूसरे चित्रकार को कहा कि तुम भी अपना पर्दा हटाओ दूसरे चित्रकार ने भी पर्दा हटाया।सारे लोग और भी देखकर आश्चर्य से भर गये,वही चित्र जो पहली दीवाल पर बना था उससे भी ज्यादा सुन्दर दूसरा दीवाल पर बना था।वह सब हैरान हो गये।लेकिन निकट जाकर उन्होने देखा, दूसरे चित्रकार ने दीवाल पर चित्र नहीं बनाया था।उसने तो दीवाल को घिस घिस कर छःमहीने में दर्पण की तरह चमकदार बनाया था।वह दर्पण की तरह चमकदार हो गयी थी। दीवाल और पहला चित्र उसमें प्रतिबिम्बित हो रहा था और यह प्रतिबिम्बित चित्र और भी अदभुत था।इसमें गहराई आ गयी थी,वह भीतर दूर चित्र मालूम हो रहा था पहला चित्र दीवाल के ऊपर मालूम होता था,दूसरा चित्र दीवाल के भीतर मालूम होता था। दूसरा चित्रकार नियुक्त कर दिया।
     जीवन में भी जो व्यक्ति अपने मन को दर्पण की भांति निर्मल बना लेता है स्वच्छऔर साफ उसके मन में परमात्मा की छवि, परमात्मा का रूप प्रतिबिम्बित होने लगता है। जो अपने मन को अत्यन्त निर्मल बना लेता है अत्यन्त शान्त बना लेता है, स्वच्छ बना लेता है,इस प्रकृति में ही इस प्रकृति के ही प्रतिबिम्बों में उसे परमात्मा के अपूर्व आनन्द का बोध शुरु हो जाता है। वह वृक्ष के पास खड़ा होगा वृक्ष में भी उसे परमात्मा के दर्शन शुरु हो जायेंगे। वह एक पक्षी का गीत सुनेगा, तो पक्षी के गीत में ही उसे परमात्मा की वाणी सुनाई पड़ेगी।वह एक फूल को खिलते देखेगा,तो उस फूल के खिलने में भी परमात्मा की सुबास की सुगन्ध मिलेगी।उसे चारों तरफ अपूर्व शक्ति का बोध होना शुरु हो जाता है।लेकिन यह होगा तब जब मन इतना निर्मल और स्वच्छ हो कि उसमें प्रतिबिम्ब बन सके।तुमने देखा होगा झील पर कभी जाकर अगर
झील पर बहुत लहर उठती हों।आकाश में चांद हो तो फिर झील पर कोई प्रतिबिम्ब नहीं बनताऔर अगर झील बिल्कुल शान्त हो उसमें कोई लहर न उठती हो दर्पण की तरह चुप और मौन हो तो फिर चाँद उसमें दिखायी पड़ता हैऔर जो चाँद झील में दिखाई पड़ता है वह उससे भी सुन्दर होता है प्रकृति चारों तरफ फैली हुई है लेकिन हमारा मन दर्पण की भांति नहीं है इसलिए उसके भीतर उस प्रकृति की कोई छवि नहीं उतरती। चित्र नहीं बनते और तब हम वंचित हो जाते हैं उसे जानने से जो हमारे चारों तरफ मौजूद है।
       कैसे चित्त सरल होगा और कैसे कठिन हो जाता है इन दो बातों पर विचार करना भी ज़रूरी है।उन लोगों का मन सर्वाधिक कठिन हो जाता है, जिनके भीतर अहंकार का भाव बहुत ज्यादा होता है। जितना उन्हें लगता है कि मैं कुछ हूँ,मैं कुछ खास हूँ दम्भ जिनमे बहुत गहरा हो जाता है उनका ह्मदय कठोर होता चला जाता है। जिनके भीतर अहंकार का भाव जितना कम होता है उनका ह्मदय उतना ही सरल होता है।बच्चे में कोई अहंकार नहीं होता इसलिए वह सरल है। श्री वचनों की रगड़ जितनी जितनी मनको लगेगी वह विमल होता जाएगाऔर दर्पण की नार्इं चमकेगा। उसमें सहज रूप में गुरुज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हो जाएगी जिससे माया का अन्धकार काफूर हो जाएगा। तब उस निर्मल ह्मदय में श्री गुरुदेव अपनी सम्पूर्ण शक्तियों सहित आकर विराजमान हो जाएंगे। वैसे ही मनमति के पर्दे के दूर हो जाने से शुद्ध अन्तःकरण वाले के अन्तर में जितनी शक्तियां सतगुरुदेव भगवान में होती है। वे सबकी सब उस सेवक में स्वयं आकर प्रवेश कर जाती है।

Sunday, March 13, 2016

चरणों की छाप से किस्मत पलट जाती है


सन्त महापुरुषों की शरण संगति में आने से उनके पावन सत्संग से जीव की किस्मत सँवर जाती है।
   एक बार दशम पादशाही श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का दरबार सजा हुआ था कर्म फल के प्रसंग पर पावन वचन हो रहे थे कि जिसकी जो प्रारब्ध है उसे वही प्राप्त होता है कम या अधिक किसी को प्राप्त नहीं होता क्योंकि अपने किये हुये कर्मों का फल जीव को भुगतना ही पड़ता है। वचनों के पश्चात श्री मौज उठी कि जिस किसी को जो वस्तु की आवश्यकता हो वह निःसंकोच होकर माँग सकता है उसे हम आज पूरा करेंगे। एक श्रद्धालु ने हाथ जोड़ कर विनय की कि प्रभो मैं बहुत गरीब हूँ मेरी तमन्ना है कि मेरे पास बहुत सा धन हो जिससे मेरा गुज़ारा भी चल सके और साधु सन्तों की सेवा भी कर सकूँ उसकी भावना को देखकर श्री गुरुमहाराज जी ने शुभ आशीर्वाद दिया कि तुझे लखपति बनाया। दूसरे भक्त ने खड़े होकर हाथ जोड़कर विनय की श्री गुरुमहाराज जी ने पूछा क्यों भई तुम्हें धन की आवश्यकता है? उसने विनय की कि भगवन नहीं मेरे पास आपका दिया हुआ सब कुछ है लेकिन उसको सँभालने वाला नहीं है अर्थात पुत्र नहीं है। आशीर्वाद दिया कि मैं अपने चार कुर्बान कर दूँगा तुझे चार दिये उसी गुरुमुख मण्डली में सत्संग में एक फकीर शाह रायबुलारदीन भी बैठे थे उसकी उत्सुकता को देखकर अन्तर्यामी गुरुदेव ने पूछा राय बुलारदीन आपको भी कुछ आवश्यकता हो तो निसन्देह निसंकोच होकर कहो। उसने हाथ जोड़ कर खड़े होकर विनय की कि प्रभो मुझे तो किसी भी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है परन्तु मेरे मन में एक सन्देह उत्पन्न हो गया हैअगर आपकी कृपा हो तो मेरा सन्देह दूर कर दें।श्री वचन हुये कि सन्तमहापुरुषों की शरण में आकर जीव के संशय भ्रम दूर नहीं होंगे तो कहाँ होंगे,इसलिये अपना सन्देह हमें बताओ उसे अवश्य दूर करेंगे। वेनती की कि प्रभो अभी अभी आपने वचन फरमाये हैं कि प्रारब्ध से कम या अधिक किसी को नहीं मिलता अपने कर्मों का फल प्रत्येक जीव को भुगतना ही पड़ता है तो मेरे मन में सन्देह हुआ कि अभी जिसे आपने लखपति होने का आशीर्वाद दिया है एक को चार पुत्र प्रदान किये हैं जब इनकी तकदीर में नहीं है तो आपने कहां से दे दिये?श्री गुरुमहाराज अति प्रसन्न हुये फरमाया रायबुलारदीन ये तेरा संशय नहीं है इन सबका संशय है आज सब के संशय भ्रम दूर हो जायेंगे।श्री गुरुमहाराज जी ने सेवक द्वारा एक कोरा कागज़ मोहर वाली स्याही मँगवाई और अपनी अँगुली की छाप(अँगूठी)उतार कर रायबुलारदीन से फरमाया कि बताओ इस अँगूठी के अक्षर उल्टे हैं कि सीधे?उसने उत्तर दिया कि उल्टे हैं सच्चे पादशाह। फिर स्याही में डुबो कर कोरे कागज़ पर मोहर छाप दी।अब पूछा बताओअक्षर उल्टे हुये है कि सीधे।उत्तर दिया कि महाराज अब सीधे हो गये हैं।श्री वचन हुये कि तुम्हारे प्रश्न का तुम्हें उत्तर दे दिया गया है।उसने विनय की भगवन मेरी समझ में कुछ नहींआया।श्री गुरु महाराज जी ने फरमाया जिस प्रकार छाप के अक्षर उल्टे थे लेकिन स्याही लगाने से छापने पर वह सीधे हो गये हैं। इसी तरह ही जिस जीव के भाग्य उल्टे हों और अगर उसके मस्तक पर सन्त सतगुरु के चरण कमल की छाप लग जाये तो उसके भाग्य सीधे हो जाते हैं। सन्त महापुरुषों की शरण में आने से जीव की किस्मत पल्टा खा जाती है।भाग्य सितारा चमक जाता है।कहते हैं ब्राहृा जी ने चार वेद रचे इसके बाद जो स्याही बच गई वे उसे लेकर भगवान के पास गये उनसे प्रार्थना की कि इस स्याही का क्या करना है? भगवान ने कहा इस स्याही को ले जाकर सन्तों के हवाले कर दो उनकोअधिकार है कि वे लिखें या मिटा दें या जिस की किस्मत में जो लिखना चाहें लिख दें।
      इसलिये जो सौभाग्यशाली जीव सतगुरु की चरण शरण में आ जाते हैं सतगुरु के चरणों कोअपने मस्तक पर धारण करते हैं सभी कार्य उनकी आज्ञा मौजानुसार निष्काम भाव से सेवा करते हैं सुमिरण करते हैं निःसन्देह यहाँ भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैंऔर कर्म बन्धन से छूटकर आवागमन के चक्र से आज़ाद होकर मालिक के सच्चे धाम को प्राप्त करते हैं।

Saturday, March 12, 2016

धन देने का दण्ड माँगा


एक दिन श्री वचन हुये कि किसी व्यक्ति ने राजा के पास जाकर किसी अन्य व्यक्ति पर अभियोग लगाया। अभियोग सिद्ध होने पर राजा ने वादी को आदेश दिया कि तुम स्वयं ही प्रतिवादी के लिये कोई दण्ड निश्चित करो।उसने विनय की कि महाराज।इसको धनवान बना दीजिये। राजा ने प्रश्न किया कि इस दण्ड से तुम्हारा क्या अभिप्राय है?उसने उत्तर दिया-श्री मान्!यह व्यक्ति धन सम्पत्ति के झगड़ोंऔर उसकी संभाल में ऐसा परेशान रहेगा कि इसेस्वप्न में भी सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होगी।चूँकि यह व्यक्ति अत्यन्त लोभी है,अतएव इसको सदैव धन का लोभ सताता रहेगा और धन बटोरने एवं एकत्र करने की उधेड़बुन में यह दिन-रात अशान्तऔर परेशान रहेगा। इसके लिये मैं यही दण्ड उचित समझता हूँ।
    वह व्यक्ति चूंकि सन्त सतपुरुषों की संगति में रहने वालाऔर उनके वचनों में पूर्णविश्वास रखने वाला था,इसीलिये उसने ऐसा दण्ड निर्धारित किया। सत्पुरुषोंऔर सद्ग्रन्थों के उपदेशों से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस मनुष्य के चित्त में धन-सम्पत्ति की आसक्ति हो,उसके लिये वास्तव में ही धन अशान्ति का कारण बन जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य सत्पुरुषों के उपदेशानुसार संसार में जल कमल के समान निर्लेप
रहे और सांसारिक कार्य व्यवहार करने के साथ-साथ तन-मन-धन से परमार्थ भक्ति का कार्य भी करता रहे,तो ऐसे मनुष्य के लिये धन बन्धन और अशान्ति का कारण नहीं बन सकता। सत्पुरुषों का कथन हैः-
          द्रव्य  खर्च  सत्पात्र  में,  जन्म  जाये  गुरु  सेव।।
          हरि सुमिरण महँ चित्त जिहिं, वह पंडित श्रुति भेव।।
अर्थः-जो धन-सम्पत्ति को भक्ति-परमार्थ के मार्ग में अर्थात् सत्संग मेंऔर सत्पुरुषों की सेवा में व्यय करता है,अपनेअमुल्य जन्म को इष्टदेव सन्त सदगुरु की सेवा में व्यस्त रखता है और अपने चित्त को सदैव मालिक के सुमिरण ध्यान में लीन रखता है, ऐसा विचारवान गुरुमुख ही वेदों के रहस्य को जानने वाला पंडित है और ऐसा गुरुमुख ही अपने तन-मन-धन को सफल कर लेता है।   

Friday, March 11, 2016

कार्य

फैक्टरी के प्रबन्धक बड़े ही भद्र पुरुष थेऔर फैक्टरी में काम करने वाले कर्मचारियों से अत्यन्त प्रेम का व्यवहार करते थे। एक दिन उन्होने एक लिपिक को अपने साथी से यह कहते हुये सुना कि हमारा जीवन भी कोई जीवन है, बस हर समय काम-काम-काम। ज्ञात होता है कि आराम हमारे भाग्य में ही नहीं है। काम करते-करते ही हमारे जीवन का अन्त हो जायेगा। प्रबन्धक महोदय ने उस समय तो उससे कुछ न कहा, परन्तु उसे शिक्षा देने का मन ही मन निर्णय कर लिया। दूसरे दिन जैसे ही वह लिपिक कार्यालय में पहुँचा,उसे सूचना मिली कि प्रबन्धक महोदय ने तुम्हें अपने कमरे में बुलवाया है।सूचना पाकर वह प्रबन्धक महोदय के कमरे की ओर चला गया। द्वार पर पहुँचकर उसने देखा कि प्रबन्धक महोदय के सम्मुख एक फाइल खुली पड़ी है और वे उसे देखने में व्यस्त हैं। वह अन्दर जाकर एक ओर खड़ा हो गया। कुछ देर के उपरान्त प्रबन्धक महोदय ने जब फाइल से दृष्टि हटाई, तो उस लिपिक को खड़े देख कर कहा-बैठो! खड़े क्यों हो?आदेश पाकर जब वह कुर्सी पर बैठ गया, तो प्रबन्धक महोदय ने पुनः कहा-मैं एक अविलंब एवं आवश्यक कार्य में उलझा हुआ हूँ,इससे निपट कर तुमसे बात करता हूँ।
     लिपिक ने शिष्टतापूर्वक कहा-यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं थोड़े समय पश्चात् पुनः उपस्थित हो जाऊंगा।तब तकआपअपना काम निपटा लें। प्रबन्धक महोदय ने उत्तर दिया-तुम यहीं बैठो,मैं अभी थोड़ी देर बाद तुमसे बात करता हूँ। यह कहकर वे कमरे के बाहर चले गये। लगभग डेढ़-दो घंटे बाद वे पुनः वापस आये और दूसरी फाइल उठाकर फिर काम में लग गये। लिपिक ने पुनः विनय की-मेरे लिये क्या आदेश है?
प्रबन्धक महोदय ने उत्तर दिया-बैठो! तुम्हारे साथ मुझे एक आवश्यक विषय पर बातचीत करनी है। मैं ज़रा इस फाइल से निबट लूं,फिर आराम से तुमसे बात करूँगा। और इसी तरह टालमटोल में लगभग पांच घंटे व्यतीत हो गये।खाली बैठे-बैठे लिपिक परेशान हो गया। उसके मन में अनेक प्रकार की शंकायें उठने लगीं। अन्त में जब उसकी व्याकुलता सीमा पार कर गई, तो उसने प्रबन्धक महोदय से विनयपूर्वक कहा-मुझसे ऐसी क्या भूल हो गई है, जो आप मुझे यह दण्ड दे रहे हैं?
     प्रबन्धक महोदय ने हंसते हुये कहा-नहीं, तुम्हें कोई दण्ड नहीं दिया जा रहा है। कलअमुक लिपिक से तुम यह कह रहे थे कि""हमारा जीवन भी कोई जीवन है, बस हर समय काम-काम-काम।ज्ञात होता है कि हमें जीवन में कभी आराम से बैठेने को नहीं मिलेगा।आराम कदाचित् हमारे भाग्य में ही नहीं है। काम करते करते ही हमारे जीवन का अन्त हो जायेगा।''तुम्हारी बातों से मैने यह अनुभव किया कि तुम्हें स्यात् बहुत काम करना पड़ता है और तुम्हें विश्राम की बहुत आवश्यकता है, इसलिये मैने यह निश्चित किया है कि तुम उपस्थिति रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने उपरांत यहाँ आकर बैठ जाया करो। आज से तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा। महीने के बाद तुम्हें वेतन मिल जाया करेगा।
     लिपिक ने हाथ जोड़कर कहा-मेरी भूल क्षमा करें और मुझे काम पर जाने की आज्ञा दें। मैं तो खाली बैठे बैठे तंग आ गया। भविष्य में मैं ये शब्द कभी अपने मुख से नहीं निकालूँगा। आज मुझे अच्छी तरह इस बात काअनुभव हो गया है कि खाली बैठना मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध है।प्रबन्धन महोदय ने उसे प्रेम से समझाते हुये कहा-तुम ठीक समझे। मनुष्य काम किये बिना एक पल भी नहीं रह सकता। उसके द्वारा कोई न कोई काम हरसमय होता ही रहता है।भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज ने भी श्रीमद्भगवतगीता में फरमाया है कि मनुष्य एक प्रकार से काम करने के लिये विवश है।जब ऐसा है कि मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में काम करना ही है, तो वह प्रत्येक काम मन-चित्त लगाकर क्यों न करे? वह काम से जी क्यों चुराये?मनुष्य के ह्मदय में तो सदैवयह भावना होनी चाहिये कि""विश्राम नहीं,प्रत्युत काम।''और वास्तव में देखा जाये तोऐसा मनुष्य ही जीवन में प्रगति करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति ""काम नहीं, प्रत्युत् विश्राम''की उक्ति पर विश्वास रखता है, वह जीवन में कभी प्रगति नहीं कर पाता। इसलिये यदि जीवन में उन्नति करना चाहते हो, तो प्रत्येक काम को सच्चाई और लगन से करोऔर काम करते समय मन-चित्त की समस्त वृत्तियों को उसी में लगा दो।कत्र्तव्य से कभी जी मत चुराओ। काम से जी चुराने वाला मनुष्य अकर्मण्य कहलाता है और अकर्मण्य व्यक्ति जीवन में कभी भी सफलता का मुख नहीं देख सकता।
प्रबन्धक की शिक्षाप्रद बातों से वह लिपिक अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसदिन से प्रत्येक कार्य लगन,रुचि,परिश्रमऔर तन्मयता से करने लगा।

Thursday, March 10, 2016

पद में कोई सार नहीं


अमेरिका का प्रेसीडेन्ट हुआ, बहुत महत्वपूर्ण आदमी-कूलिज।वह एक दफा चुनाव लड़ा प्रेसीडेन्ट हो गया।बहुत प्यारा था लोगों को।राजनितिज्ञ जैसा आदमी न था, साधू पुरुष था,बड़ा कम बोलता था। शब्द निकालने उससे मुश्किल थे,मौन और शान्त रहने वाला आदमी था। एक दफे एक महिला ने शर्त लगा ली कि आज कूलिज आ रहा है भोजन पर, तो मैं उससे कम-से-कम चार शब्द निकलवा लूँगी। बड़ी देर वह बात करती रही।कूलिज चुप रहा,आखिर उसने कहा, कुछ तो बोलो, कुछ को कहो। कूलिज ने कहा,""मुझे कुछ पता नहीं है।''(आई डोन्ट नो) तीन शब्द बोला। चार भी न निकलवा पायी।
     एक दिन सुबह-सुबह कूलिज घूम रहा था अपने भवन के बाहर-व्हाइट हाऊस के बाहर।एक अजनबीआदमी ने उससे पूछा कि यहाँ कौन रहता है?उसने कहा,यहां कोई रहता नहीं है। लोग आते है और जाते हैं। यह घर नहीं, सराय है। उसआदमी को तो पीछे पता चला कि वह खुद व्हाहट हाऊस में रहता है। अमेरिका का प्रेसीडेंट है। ऐसा आदमी था। लेकिन पहला सूत्र पूरा हो गया तो मित्रों ने,अऩुयायियों ने कहा कि आप फिर खड़े हो जाये, चुनाव निश्चित है। उसने कहा कि अब नहीं। क्यों? उसने बड़ी अदभुत बात कही। उसने कहा कि ""नो फरदर चांसेस आफ प्रोमोशन। हो गये प्रेसीडेन्ट अब आगे वहां कोई उपाय नहीं और ऊपर जाने का। अब क्या सार है?
     जान लया कि यह पद भी तृप्त न करेगा। जो भी तुम पा लोगे, तृप्ति न होगी। परमात्मा से पहले कोई तृप्ति नहीं है क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। मन का स्वभाव अभाव को देखना है। तो जो तुम्हारे पास होता है वह दिखाई नहीं पड़ता है, जो तुम्हारे पास नहीं होता है, वही दिखाई पड़ता है। तुम्हारे पास अगर पचास हज़ार रुपये हैं तो वे दिखाई न पडेंगे। जो तुम्हारे पास नहीं है, वे दिखाई पड़ेंगे। मन अभाव में जीता है। इसलिए तो मन सदा पीड़ित रहता है। अभाव में कोई कैसे आनंद से जी सकता है? आनंद से जीने का रास्ता तो भरे में जीना है।

Wednesday, March 9, 2016

दवा गले मे ही रोक ली


    एक हकीम साहिब(लुकमान हकीम) दवा-दारू के विषय में अत्यन्त प्रसिद्ध और दक्ष थे। उनके हाथ में कुछ ऐसी शिफा थी कि जिस किसी का भी उपचार करते थे, वह चाहे कैसा भी रोगी क्यों न हो, ठीक हो जाता था। चिकित्सा शास्त्र की पुस्तकों और दवाओं से लदे हुए सत्तर ऊँट हर समय उनके साथ रहते थे। एक बार वह कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक विचित्र आकृति का व्यक्ति मिला। हकीम साहिब ने
उससे पूछा-तुम कौन हो? उसने उत्तर दिया-मैं मौत का फरिश्ता हूँ। हकीम साहिब ने पूछा-तुम्हारा क्या काम है और अब कहां जा रहे हो? उसने उत्तर दिया-लोगों के प्राण करना मेरा काम है और आज अमुक व्यक्ति के प्राण लेने हैं। हकीम साहिब ने फिर पूछा-किस तरह से उसके प्राण लोगे? उसने कहा-उस व्यक्ति के पेट में ऐसा दर्द पैदा करूँगा जिससे वह अच्छा न हो सकेगा और अन्ततः प्राण त्याग देगा।
     यह कहकर वह गायब हो गया। हकीम साहिब ने औषधियों का बक्स संभाला और उस व्यक्ति के पास जा पहुँचे जिसके विषय मे मौत के फरिश्ते ने बतलाया था। नियत समय पर जब उस व्यक्ति के पेट में दर्द आरम्भ हुआ तो उस रोग की एकअचूकऔषिधि उसे दी, परन्तु जब कोई लाभ न हुआ तो फिरअन्य अऩुभूत औषधियाँ आज़मानी शुरू कीं। गोली,अर्क,चूर्ण, जोशांदा,माज़ून अवलेह-सभी कुछ दिया,परन्तु कछअसर न हुआ,प्रत्युत दर्द बढ़ता ही गया।अन्ततः दो-तीन घंटे दर्द से तड़प तड़प कर रोगी ने प्राण त्याग दिये। हकीम साहिब सोचने लगे कि जब मृत्यु अटल एवं अवश्यंभावी है और कोई औषधि प्राभावकारी नहीं हो सकती तो फिर हम उपचार किसका करें और ये पुस्तकें तथा औषधियां लादे-लादे क्यों मारे-मारे फिरें?यह सोचा और सब सामानअर्थात पुस्तकें तथा औषधियाँ आदि लेकर इस निश्चय के साथ नदी के किनारे पहुँचे कि सब सामान नदी में डुबो देंगे कि उसी समय वही विचित्र आकृति का व्यक्ति सामने आ उपस्थित हुआ और कहने लगा-हकीम साहिब!यह क्या धुन सवार हुई? हकीम साहिब ने उत्तर दिया-जब इन औषधियों से रोगी को कोई फायदा ही नहीं होता,न इनका प्रभाव रोगी पर होता है तो फिर इनके रखने से लाभ ही क्या?क्यों न इनको डुबो दिया जाए? मौत के फरिश्ते ने कहा-ऐसी बात नहीं है कि इन औषधियों में असर न हो। परमात्मा ने जिस वस्तु में जो असर रखा है,वह वस्तु वह असर अवश्य प्रकट करती है,परन्तु उसी समय जबकि उसे प्रकट करने का अवसर मिले। फिर जितनी औषधियाँ हकीम साहिब ने रोगी को दी थीं, वे सब दिखा करके मौत के फरिश्ते ने कहा-जिस समय रोगी के गले से औषधि उतरती थी, मैं लेता जाता था। उसे पेट मे जाने ही नहीं देता था अब आप ही बताइये कि असर किस का प्रकट होता?असर तो तब प्रकट होता जब मैं औषधि पेट में जाने देता। और हकीम साहिब को समझा-बुझाकर उन्हें औषधियां तथा पुस्तकें नदी में डुबोने से रोका। प्रभाव तो हर एक वस्तु का होता है,परन्तु जब मौत का समय आ जाता है तो फिर कोई औषधि अथवा उपाय काम नहीं आता।



Tuesday, March 8, 2016

छत्त से कूदना चाहता था उसे रोका


    एक महानगरी में सौ मन्ज़िल एक मकान के ऊपर,सौंवीं मन्ज़िल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने कमरे के सब द्वार बन्द कर रखे थे। बालकनी में खड़ा था,सौवीं मन्ज़िल से कूदने के लिए तैयार,आत्महत्या करने को।उससे नीचे की मन्ज़िल पर खड़े होकर लोग उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ। यह क्या पागलपन कर रहे हो?लेकिन वह किसी की सुनने को राज़ी नहीं। तब एक बूढ़े आदमी ने उस से कहा, हमारी बात मत सुनों,लेकिन अपने माँ बाप का ख्याल करो कि उन पर क्या गुज़रेगी। उस युवक ने कहा,न मेरा पिता है न मेरी माँ है।वे दोनों मुझसे पहले ही चल बसे।बूढ़े ने देखा कि बात तो व्यर्थ हो गयी। तो उसने कहा, कम से कम अपनी पत्नी का स्मरण करो,उस पर क्या बीतेगी?उस युवक ने कहा,मेरी कोई पत्नी नहीं मैं अविवाहित हूँ। उस बूढ़े ने कहा,कम से कम अपनी प्रेयसी का ख्याल करो। किसी को प्रेम करते होगे, उस पर क्या गुज़रेगी? उस युवक ने कहा, प्रेयसी!मुझे प्रेम से घृणा है। स्त्री को मैं नर्क का द्वार समझता हूँ। मैं किसी स्त्री को प्रेम नहीं करता।मुझे कूद जाने दो।अंतिम बात रह गयी थी कहने को। उस बूढ़े ने कहा, कूदने के पहले एक बात यह सोच लो, किसी की फिक्र मत करो। लेकिन अपनी तो फिक्र करो। अपना जीवन नष्ट कर रहे हो? उस युवक ने कहा, काश! मुझे पता होता कि मैं कौन हूँ तो शायद नष्ट करने की बात ही न आती। लेकिन मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूँ।
     पता नहीं वह युवक कूद गया या नहीं कूद गया।लेकिन उस युवक ने यह कहा कि मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूँ। बचकर क्या करूँगा। जीवित रहकर भी क्या करूँगा? जिस जीवन में यह भी पता न हो कि हम कौन हैं,उस जीवन का मुल्यऔर अर्थ क्या रह जाता है? हम सब जीवन में करीब करीब ऐसी ही हालत में खड़े हैं जहाँ हमें कोई भी पता नहीं कि हम कौन है। अपने होने का ही कोई बोध नहीं है। जीते हैं, लेकिन जीवन से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ।श्वांस लेते है,चलते हैं,उठते हैं, बैठते हैं, फिर एक दिन समाप्त हो जाते हैं लेकिन ज्ञान नहीं हो पाता कि कौन था जो जन्मा,कौन था जो जिया, कौन था जो समाप्त हो गया। इतने अज्ञान से भरे हुए जीवन में कोई अर्थ,कोई प्रयोजन,कोई सार्थकता, कोईआनन्द हो सकता है?नहीं हो सकता है।इसीलिये मनुष्य इतना उदास इतना चिंतित,इतना भयभीत, इतना दुःखी इतना विपन्न मालूम पड़ता है। अपने आप की पहचान हो जाए तभी मनुष्य सुखी हो सकता है।

Monday, March 7, 2016

नाम से ही सब पवित्र होते हैं


    हमारे गुरुदेव श्री दूसरी पादशाही जी महाराज फरमाया करते थे कि ब्राहृविद्या ऐसी विद्या है जिसके समक्ष वेद-शास्त्रों के ज्ञाता और प्रकांड पण्डित भी शीश झुका देते हैं। परमसन्त श्री कबीर साहिब जी कोई बड़े विद्वान नहीं थे परन्तु ब्राहृविद्या के मालिक थे। यही कारण है कि उनकी महिमा का लोहा उस समय के सभी विद्वान तो मानते ही थे,आज भी उनका प्रत्येक व्यक्ति के ह्मदय में वही स्थान है। एक बार वे कहीं जा रहे थे।मार्ग में काशी के एक विद्वान ब्रााहृण से भेंट हो गई जो हाथ में लोटा और कान पर जनेऊ लपेटे हुये शौच क्रिया से निपट कर वापिसआ रहे थे। श्री कबीर साहिब जी उन्हे चेताना चाहते थे अतएव उन्होने कहा, ""पण्डित जी!राम राम।'' परन्तु पंडित जी ने कोई उत्तर न दिया। श्री कबीर साहिब जी ने कहा,""पण्डित जी!राम राम।''अब की बारी भी पंडित जी चुप रहे। श्री कबीर साहिब जी ने तीसरी बार फिर कहा,राम-राम। परन्तु पंडित जी ने फिर भी उत्तर न दिया। पंडित जी एक कुयें पर गये-लोटा मांजा, हाथ-पांव धोये और चल दिये। तब श्री कबीर साहिब जी ने उनके सम्मुख खड़े हो कर फिर कहा,""पंडित जी!राम-राम।''तब पंडित जी कहने लगे, ""कबीर जी!राम-राम।''श्री कबीर साहिब जी ने कहा जब मैंने पहले यही बात आप से कही तो आपने उस समय उत्तर क्यों नहीं दिया?पंडित जी कहने लगे कि उस समय मैंअपवित्र था,"'राम-राम''का पवित्र शब्द मैने कहना उचित नहीं समझा। श्री कबीर साहिब जी कहने लगे,""क्या अब आप पवित्र हो गये हैं?'' यदि हो गये हैं तो किससे? पंडित जी ने उत्तर दिया-जल से। श्री कबीर साहिब जी ने प्रश्न किया, जल किससे पवित्र होता है? पंडित जी ने उत्तर दिया कि वायु से। श्री कबीर साहिब जी ने पूछा, वायु किससे पवित्र होती है? पंडित जी ने उत्तर दिया,जब शेषनाग जी अपने सहरुा मुखों से भगवद्नाम का उच्चारण करते हैं तो वायु उस पवित्र नाम के स्पर्श से शुद्ध हो जाती है। श्री कबीर साहिब जी ने कहा, इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक वस्तु को  पवित्र करने वाला भगवान का पवित्र नाम ही है। मैने उसी नाम का उच्चारण करने के लिये ही तो कहा था,फिर आपने उत्तर क्यों न दिया?
     श्री कबीर साहिब जी के इन वचनों से प्रभावित होकर पंडित जी उनके चरणों पर गिर पड़े और उनके दरबार में उपस्थित होकर सतसंग का लाभ उठाने लगे। यह ब्राहृविद्या का ही प्रभाव है कि एक विद्वान को अनपढ़ की शरण में जाना पड़ा।

Sunday, March 6, 2016

हथोंड़ों का आवाज़ में भी नाम सुना


तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो, तो तुम सब काम करते हो, लेकिन भीतर ह्मदय की धड़कन में प्रेमी का स्मरण बना रहता है। तुम उसे नहीं भूल पाते। उसकी याद बनी रहती है।एक मीठी सी पीड़ा ह्मदय के आस-पास घनीभूत हो जाती है।एक काँटा चुभता रहता है। उस काँटे में चुभन भी है और मिठास भी है। वह चुभन भी सौभाग्य है क्योंकि वह उन्हीं के जीवन में उतरती है,जो धन्यभागी हैं,जिन्होने श्रद्धा को पाया है। एक धुन
बजती रहती है अखण्ड। श्वास-श्वास में वही डोलता रहता है।
     एक मुसलमान फकीर हुआ जलालुद्दीन रूमी।बड़े से बड़े सूफियों में एक। वह अल्लाह-अल्लाह का स्मरण करता रहता था। एक दिन गुज़र रहा था,रास्ते से,जहाँ से गुज़र रहा था, वहां सुनारों की दुकाने थीं। लोग सोने-चाँदी के पत्तर पीट रहे थे। कुछ हुआ! जलालुद्दीन खड़ा हो गया। उसे लुहार, सुनार,जो हथौडियों से पीट रहे थे सोने-लोहे के पत्तरों को, उनमें अल्लाह की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी। वह नाचने लगा। वह घण्टों नाचता रहा। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। ऐसी महिमा उस गाँव में कभी देखी नहीं गई थी। जलालुद्दीन प्रकाश का एक पुँज मालूम होने लगा। वह नाचता ही रहा,नाचता ही रहा। लुहारों के सुनारों के हथौड़े बन्द हो गये,क्योंकि भीड़ बहुत बढ़ गई।वे भी इकट्ठे हो गये देखने। वह जो चोट पड़ती थी, जिससे अल्लाह का स्मरण आया था,वह भी बन्द हो गई,लेकिन स्मरण जारी रहा,और वह नाचता रहा। उस रात,उस सन्ध्या दरवेश-नृत्य का जन्म हुआ।और जब बाद में, उसके शिष्य उससे पूछते कि तुमने इसे कैसे खोजा,तो वह कहता, कहना मुश्किल है,परमात्मा ने ही मुझे खोजा। मैं तो बाज़ार किसी दूसरे काम से जा रहा था। अचानक उसकी आवाज़ मुझको सुनाई पड़ी।
     लेकिन यह आवाज़ और किसी को सुनायी नहीं पड़ी थी। उसके मन में एक धागा था। एक सेतू था निरन्तर अल्लाह का स्मरण कर रहा था। उस चोट से, उसका मन तैयार था, उस तैयार मन में-अन्यथा कहीं सुनारों या लुहारों की हथौड़ियों से किसी को परमात्मा का बोध हुआ है।

Saturday, March 5, 2016

मृत्यु के पाँच पत्र


एक व्यक्ति भोलाराम नाम का अपने खेतों के निकट मकान बनवाकर उसी में रहता था। पूर्ण गुरु का शिष्य,भक्तिभाव सम्पन्न और साधु-सेवी तो था ही,बहुत ही मिलनसार भी था और आने-जाने वाले सभी लोगों का आदर-मान करना उसका स्वभाव था। एक बार की बात है कि एक व्यक्ति उसके मकान के बाहर पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया।भोला राम ने उसके निकट जाकर पूछा-यहाँ बाहर क्यों खड़े हो? अन्दर आ जाओ और कुछ जलपान कर लो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-अभी मुझे अवकाश नहीं है, क्योंकि मैने अभी एक अत्यावश्यक कार्य करना है। भोलाराम ने कहा-जलपान में देर ही कितनी लगेगी? फिर ऐसा कौनसा आवश्यक कार्य है,जिसकी तुम्हें इतनी जल्दी है। तुम इस गाँव के तो हो नहीं,परदेसी मालूम पड़ते हो। थके हुए होगे,जलपान कर लो, फिर काम करते रहना। इतनी भी क्या जल्दी है?
     उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-मैं मृत्युदूत हूँ।मुझे एक आदमी की जान लेनी है।उसकी जान निकालने में केवल तीन मिनट शेष रह गए हैं।मेरा काम एक मिनट भीआगे-पीछे नहीं हो सकता। भोलाराम उसका उत्तर सुनकर हैरान हुआ,फिर बोला-अच्छा!काम करके आ जाना। मृत्युदूत ने कहा-ठीक है,मैं बाद मेंआ जाऊँगा।इतना कहकर मृत्युदूतअदृश्य हो गया कुछ देर बाद मृत्युदूत जब वापिस आया,तो भोलाराम ने पूछा-उस व्यक्ति की जान निकाल ली? मृत्युदूत ने कहा-जान निकालकर धर्मराज के हवाले भी कर आया। अब वे उसके कर्मों का हिसाब करते रहेंगे। यह उनकी ड¬ुटी है। मेरा काम तो केवल जान निकालने का है। भोलाराम ने पूछा-एक बात बताओ कि जिस व्यक्ति की तुमने जान निकाली है, उसको पहले कोई चितावनी भरा पत्र लिखा था? पहले उसे कोई सूचना भी दी थी या यूँ ही उसकी जान निकाल ली।
     मृत्युदूत ने उत्तर दिया-पत्र तो हम सबको लिखते है, परन्तु हमारे पत्र जिस भाषा में लिखे होते हैं, उसे वे पढ़ नहीं सकते और न ही उन पत्रों का अर्थ उनकी समझ में आता है। इसलिए वे उन पत्रों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते। उन पत्रों की भाषा तो सन्त सतपुरुष ही समझते हैं। भोलाराम ने कहा-मेरे साथ तुम ऐसा सलूक मत करना।
मुझे अवश्य पहले सूचना दे देना। यदि तुमने मेरे साथ छल और धोखा किया तो यह देखो मेरी लाठी की ओर जिससे मैने शेरों को भी मार भगाया है। मेरी इस लाठी से सब डरते हैं।
    उस समय भोलाराम जवान थाऔर उसकी आयु लगभग28-30वर्ष रही होगी। किन्तु जवानी सदा किसकी स्थिर रही है। समय व्यतीत होता गयाऔर उसके साथ ही भोलाराम कीआयु बढ़ती गईऔर जवानी ढलती गई यहाँ तक कि वह पचहत्तर वर्ष का हो गया।पहले वाला जवानी का जोश समाप्त हो गया और अब वह बूढ़ा हो गया।एक दिन वही मृत्युदूत भोलाराम के पास आया और बोला-भोलाराम जी राम-राम।भोलाराम ने उसको बड़े ध्यान से देखा और फिर उत्तर देते हुए कहा-राम-राम! कहो भाई,कैसे हो?आज किसकी जान निकालनी है? मृत्युदूत बोला-आज तो आपकी जान निकालने आया हूँ। भोलाराम ने यह सुनकर कहा-किन्तु मेरे साथ तो आप वचन करके गए थे कि मेरे प्राण लेने से पहले आप मुझे पत्र लिखकर सूचित करेंगे, परन्तु आप तो बिना सूचना दिये एक दम प्राण निकालने के लिए आ गए।
     मृत्युदूत ने कहा-हम पाँच पत्र प्रायः सबको लिखते हैं और आपको भी हमने पत्र लिखे हैं तथा सबके सब आपको मिले भी हैं। मैने पहले कहा था न कि हमारे पत्र ऐसी भाषा में लिखे होते हैं जो कि प्रत्येक मनुष्य उसे नहीं समझ पाता। भोलाराम बोला-क्यों झूठ बोलते हो? मुझे तो आपका एक भी पत्र नहीं मिला चाहे वह किसी भी भाषा में लिखा हुआ था। मृत्युदूत ने कहा-भोलाराम जी! क्रोध मत करिये। मैं आपको सभी पत्रों के विषय में विस्तार से बतला देता हूँ।मेरी बात कोध्यानपूर्वकसुनिये और फिर उत्तर दीजिये भोलाराम ने कहा हाँ बोलो। मैं सुन रहा हूँ।मृत्युदूत ने कहा-पहला पत्र यह है कि जब मैं आपसे पहले मिला था, उस समय आपके सारे बाल काले थे, परन्तु अब आपके पूरे शरीर में एक भी बाल काला नहीं है। सब बाल दूध की तरह सफेद हो गए हैं। क्या हमारा यह पत्रआपको नहीं मिला? भोलाराम ने उत्तर दिया-यह पत्र तो मुझे कब का मिल चुका। मृत्युदूत ने दूसरे पत्र के विषय में बतलाते हुए कहा-पहलेआपकी नज़र इतनी तेज़ थी किआप चन्द्रमा के प्रकाश में भी डाकओर समाचार पत्र आदि पढ़े लेते थे।परन्तु अब तो आपनेआँखों का आप्रेशन भी करवा लिया है, फिर भी आप तेज़ रोशनी में भी अच्छी तरह नहीं पढ़ सकते। क्या यह दूसरा पत्र आपको नहीं मिला?भोलाराम ने उत्तर दिया-पत्र तो यह भी मिला है। मृत्युदूत ने कहा-अब तीसरे पत्र के बारे में सुनिये। जब आपके साथ मेरी भेंट हुई थी, उस समय आपके दाँत इतने सुदृढ़ थे कि आप दाँतों से बादाम तोड़ कर खाते थे। किन्तु अब तो दो-चार दाँत ही असली रह गए हैं, शेष सब के सब तो निकल चुके हैं, चाहे आपने डाक्टर से निकलवाये हों और चाहे वे अपने आप निकल गए हों। क्या यह तीसरा पत्र आपको नहीं मिला?
     भोलाराम ने सिर हिलाते हुए उत्तर दिया-अवश्य मिला है।
     मृत्युदूत ने कहा-चौथा पत्र यह है कि जब आपसे मेरी भेंट हुई थी, उस समय ज़रा सी आवाज़ से भी आप चौकन्ने हो जाते थे और काफी दूर की आवाज़ भी आप सुन लेते थे। किन्तु अब दूर की आवाज़ तो अलग रही, निकट की आवाज़ भी आप ठीक से नहीं सुन सकते। जब कोईआपसे बात करता है तोआप उसको कहते हो कि ज़रा ऊँचा बोलो पूरी तरह सुनाई नहीं दे रहा। हमारा यह पत्र भी आपको मिला या नहीं?भोलाराम ने उत्तर दिया-पत्र तो यह भी मिला है। तब मृत्युदूत ने पाँचवें पत्र का ज़िक्र करते हुए कहा-अब पांचवें पत्र के बारे में सुनिये। जब मैं पहले यहाँ आया था, उस समय आपने अपनी लाठी दिखाते हुए कहा था कि इस लाठी से मैने शेरों को मार भगाया है, परन्तु अब तो आपकी यह दशा है कि यदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो भी इस लाठी का सहारा लेकर जाते हैं। पहले लाठी आपके कन्धे पर होती थी अब लाठी के कन्धे पर आपने अपना  सारा भार डाल रखा है। कमर टेढ़ी, टाँगें कमज़ोर, न वह पहले वाली जवानी रही न शरीर में वह शक्ति। हमारा यह पत्र आपको मिला या नहीं?
     भोलाराम ने कहा- यह भी मिल गया है।
     मुत्युदूत ने कहा- इस तरह से हम लोगों को संकेत में पत्र भेजते हैं, परन्तु पत्रों के अभिप्राय को कोई भी नहीं समझता अथवा समझने का प्रयत्न नहीं करता। ये पाँच पत्र तो हम लगभग सभी को भेजते हैं, आपको तो एक पत्र और भी मिला होगा।
     भोलाराम ने उत्सुकता से पूछा-वह कौन सा?
     तब मृत्युदूत बोला-आपके गाँव के सरपंच का जब स्वर्गवास हुआ था तो उनकी तेरहीं के दिन एक महात्मा जी ने व्याख्यान दिया था। सरपंच का परिवार तथा गाँव के लोग बहुत दुःखी थे,परन्तु जब महात्मा जी ने कहा कि यह तो प्रकृति का विधान है,जो अटल है। इसको किसी प्रकार भी बदला या टाला नहीं जा सकता।इसे चाहे कोई खुशी से सहन करे चाहे रोकर, सहन तो इसे करना ही पड़ेगा। यह कहकर मृत्युदूत न
भोलाराम से पूछा-आपको ये सब बातें याद हैं या नहीं? भोलाराम ने उत्तर दिया- अच्छी तरह से याद हैं। मृत्युदूत ने कहा-अब आपकी मृत्यु में केवल आध घंटा शेष रह गया है।इस समय में आपने जो कुछ करना है, कर लो। अब आध घंटे के लिये मैं आपकी आँखों से ओझल हो जाता हूँ ताकि आपके परिवार का कोई सदस्य मुझे देख न सके। ठीक आधे घंटे बाद मैं फिर आऊँगा। यह कहकर मृत्युदूत अदृश्य हो गया।
     मृत्युदूत के आँखों से ओझल होते ही भोलाराम ने अपनी स्त्री और दोनों पुत्रों को बुलवाया। और उनसे कहा,मेरा इस संसार से जाने का समय आ गया है।मैं तो अब थोड़ी देर का मेहमान हूँ। तुम दोनों आपस में प्रेम प्यार से और सुमति से रहना। तनऔर धन को जितना भी हो सके परोपकार एवं परमार्थ में लगाना,जो भी साधु-सन्त घर पर आये, उनका ह्मदय से आदर-मान करना,श्रद्धा प्रेम से उनकी सेवा करना।और महापुरुषों द्वारा बतलाये हुए प्रभु नाम का अभ्यास करना। यदि तुम मेरी बातों को मानोगे और इन पर आचरण करोगे तो यह निश्चय जानो की तुम्हारा जीवन भी सुख-आनन्द से बीतेगाऔर परलोक भी संवरजायेगा।
     यह कहकर उसने आसन लगाया और आँखे बन्द कर लीं। अपनी वृत्ति को अन्तर्मुख करके इष्टदेव के ध्यान में एकाग्र की।जब निश्चित समय पर मृत्युदूत वापिस आया तो देखा कि भोलाराम की सुरत इष्टदेव के ध्यान में लीन है। उसके देखते ही देखते भोलाराम की सुरत इष्टदेव के चरणों में समा गई।

Thursday, March 3, 2016

हीरे परखने में ही जीवन गँवाया


     एक राजा के राज्य में एक मन्त्री बड़ा भक्त था। राजा को हीरा-परखने की विद्या सीखने की अभिरुचि हुई। उसने बड़े बड़े कुशल मणिकारों (जोहरी) से विद्या सीखना आरम्भ किया। उस राजा के राज्य का विधान था कि जो भी राजा दिवंगत हो जाय उस के मुकट आदि को संग्रहालय में जमा कर दिया जाता था। उनमें हीरे-जवाहरात तो जड़े हुए होते ही है। राजा जब हीरों का कुशल परीक्षक बन गया तो उसने अपने संग्रहालय में रखे हुए दादा-परदादों में मुकुटों के जो हीरे जवाहरात लगे हुए थे उन की परीक्षा करने लगा। उसने और सब ताजों की परख कर ली किन्तु सातवीं पीढ़ी के सम्राट का जो मुकुट था उसमें एक हीरा ऐसा लगा हुआ था जिसका मुल्य वह अपनी मति से नआँक सका। अपने शिक्षकों को बुलवा कर उनसे उस हीरे का दाम मालूम किया तो वे भी सन्तोषदायक उत्तर न दे सके। निदान उसने समाचार पत्रों में लेख दिया और देश-देशान्तरों में यह बात फैल गई कि हमारे पास एक हीरा है जिसकी परीक्षा हमारे देश के मणिकार नहीं कर सके यदि किसी देश में ऐसा जौहरी हो जो उसका सही दाम बतावे तो उसे हम बहुत बड़ा पारितोषिक देंगे यह समाचार पढ़कर एक वृद्ध मणिकार जिसकी आयु 70-75 वर्ष की होगी उस राजा के देश में आया। राजा ने उसे वह हीरा दिखाया।उस जौहरी ने उस हीरे की पूर्ण परीक्षा कर के और उचित दाम बताकर राजा को सन्तुष्ट कर दिया।राजा गद्गद हो गयाऔर उसने अपने भक्त मन्त्री को बुलवायाऔर कहा कि इसे अपनी इच्छानुसार पारितोषिक दे दो, हम तुम्हारा हाथ नही रोकेंगे।मन्त्री ने कहा कि यदि मुझसे पूछते हो तो मैं समझता हूँ कि इसे इनाम में एक सौ जूते लगवाये जायें।राजा ने चकित होकर मन्त्री से पूछा ऐसा क्यों?मन्त्री ने उत्तर दिया कि इसने बुद्धि जैसी सुर्दुलभ वस्तु को पत्थरों के परखने में ही नष्ट कर दिया है। यदि यह अपनी बुद्धि को प्रभु के प्रेम में डुबो देता तो प्रभु रूप हो जाता। परन्तु उसके बदले इसने अपनी सारी आयु पत्थरों के परखने में गँवा दी। इसलिये में इसे दण्ड पाने का अधिकारी समझता हूँ।
     इसी प्रकार जिस ने अपनी सकल बुद्धिमता शरीर और शारीरिक सम्बन्ध जो अस्थिर और नश्वर हैं, एक दिन विनष्ट हो जाने वाले हैं उन में ही खो दी तब उसने धूलि फाँकने के सिवा क्या संचित किया। उस जैसा अल्पमति और नादान और कौन हो सकता है। जिसने इतना घाटे वाला काम किया किन्तु इस रहस्य को हर एक नहीं जान सकता सन्त सतगुरु की शरण में जाने से ही इन भेदों का ज्ञान होता है। तब ही जीवन की सफलता हाथ में आ सकती  है।

Tuesday, March 1, 2016

फकीर को सोने का पात्र दिया

एक बहुत एदभुत फकीर हुआ नागार्जुन। वह एक नगर से गुज़र रहा है उस नगर की रानी उसका बड़ा आदर करती है। उसने उसको सोने के पात्र में जिसपर हीरा जड़े थे भोजन करायाऔर कहा ये लकड़ी का पात्र फेंक दो और ये सोने का पात्र ले जाओ।इसकी लाखों की कीमत होगी। नागार्जुन ने वह सोने का पात्र ले लियाऔर चल पड़ा।रानी थोड़ा चकित हुई क्योंकि उसने सोचा था त्यागी है कहेगा मैं छू नहीं सकता सोने को। हम त्यागी को सोने से ही पहचानते हैं जब तक वह यह न कहे हम छू नहीं सकते सोने को। जब कोई त्यागी कहता है यह सब मिट्टी है हम नहीं छूते। लेकिन मिट्टी को रोज़ छूता है सोने को इन्कार करता है। सोना अगरमिट्टी है तो बे फिक्री से छुओ।लेकिन वह कह रहा है सोना मिट्टी है उसको सोना, सोना दिखाई पड़ रहा है। उस रानी ने कहा, अरे
आपने मना नहीं किया? कहना था कि यह सोने का पात्र है। फकीर ने कहा कैसा सोने का पात्र?रानी ने कहा मैने लाखों रुपये खर्च किये हैं। फकीर ने कहा,वह तेरी नासमझी होगी। तू जाने तेरा काम जाने। मुझे क्या मतलब?मुझे इसमें रोटी खानी है। पात्र किसी का भी हो मुझे रोटी से मतलब है।इससे ज्यादा मुझे मतलब नहीं पात्र लकड़ी का है,सोने का है काहे का है वह तेरा हिसाब होगा।इसमें डाल कर हम दाल रोटी खा लें। होगा सोने का उनके लिये होगा जिनको सोने का मतलब होगा। फकीर चला गया।सोने का पात्र,हीरा जड़े हैं वे चमकते हैं धूप में।गाँव के एक चोर को दिखाई पड़ गया। उस चोर ने कहा हैरानी है हम मरे जाते हैं परेशान हैं न हीरे मिलते हैं न सोना यह नंगा आदमी है इसको कहाँ से इतना बढ़िया पात्र मिल गया।चोर उसके पीछे हो लिया। फकीर गाँव के बाहर मरघट में ठहरा हैएक टूटे खण्डहर में।उसने सोचा मालूम होता है इस पात्र के पीछे कोई आ रहा है। यह दुनियाँ बड़ी अज़ीब है आदमियों के पीछे कोई नहीं आता हाथ में पात्र क्या है यह सवाल है आत्मा की तो कोई इज़्ज़त नहीं कीमत नहीं।वह फकीरअन्दर गया सोचा नाहक यह बेचारा भरी दोपहरी में इतनी दूर आया।रास्ते में कह देता तो वहीं इसको दे देते और अब न मालूम कितनी देर तक इसको छिपकर बैठना पड़ेगा। मेरा तो सोने का समय हो गया है तो उसने खिड़की से वह पात्र बाहर फेंक दिया और सो गया।वह चोर वहीं खिड़की के नीचे छिपा था पात्र को गिरते देखा तो बड़ा हैरान हो गया।उसने कहा अज़ीब आदमी है इतना कीमती पात्र ऐसे फेंक दिया है।खड़े होकर उसने कहा कि धन्यवाद।मैं तो चोरी करने आया थाऔर आपने पात्र फेंक ही दिया।
फकीर ने कहा मैने सोचा नाहक तुम्हें चोरी करवाने के लिये मैं क्यों ज़िम्मेवार बनूँ।तो मैंने कहा फेंक दूँ। मैं भी झंझट से बचूँ आराम से सो जाऊँ।तुम भी ले जाओ और चोर न बन पाओ।उस चोर ने कहा अज़ीब आदमी है।क्या मैं थोड़ी देर भीतरआ सकता हूँ?फकीर ने कहा इसीलिये मैने पात्र बाहर फेंका। भीतर तो तुम आते लेकिन तब,जब मैं सो गया होता। इसलिये मैंने पात्र बाहर फेंका कि मेरे जागते में भीतर आ जाओ तो शायद सोने का पात्र ही नहीं कुछ और भी तुम्हें दे सकूँ। उस चोर ने फकीर के चरण पकड़कर कहा कि मन में ईष्र्या होती है कि कब वह दिन होगा कि मैं भी सोने के पात्र खिड़की के बाहर फेंक सकूँ। आपने इतनी शान्ति कहाँ से पाई इतना आनन्द कहाँ से पाया कि सोने का पात्र इस तरह फेंक सकते हो?इतनी खुशी इतनी ज़िन्दगी कहाँ मिल गई ऐसा कौन सा अमुल्य धन है आप के पास कि सोने के पात्र का कोई मुल्य नहीं जान पड़ता है। कृपया मुझे भी कोई रास्ता बतायें। वह धन प्रदान करें। फकीर ने कहा मैं भी यही चाहता था कि तुझे वह कीमती धन मिल जाये। सन्तों ने कहा कि वह नाम का धन है। जिसे पाकर जीव मालामाल हो जाता है।