Saturday, February 20, 2016

शाहकरीम जिन्हें क्रोध दिलाने का प्रयास किया


     एक शाहकरीम नाम का फकीर सिन्ध के एक गाँव में हो गुज़रा है। वह एक दिन अपनी खेती को पानी देने के लिये बैल के द्वारा कुआँ चला रहा था। अपने आप गाधी पर बैठा बैलों को हाँक रहा था इतने में चार आदमी वहाँ आये और आते ही उन्होने पानी की दिशा बदल कर उसके खेत के बदले जंगल की तरफ कर दिया वह फकीर शान्त रहा। थोड़ी देर पीछे उन्होंने बैल भी खोल दिये किन्तु उस के मुख से एक शब्द भी न निकला।उसे दो चार चाँटे रसीद कियेऔर उसे गाधी से धकेल दिया। परन्तु वह फकीर चुप रहा। अकस्मात उसी समय नगर का एक बड़ा भूमिपति वहाँ आ निकला। जिससे वे सब आदमी भय खाते थे। शाहकरीम को एक मनुष्य ने कहा कि तुम उन आदमियों की शिकायत ज़मींदार से कर दो। इस पर भी वह कुछ न बोला। तब उस मनुष्य ने स्वयं ही सारी घटना भूमिपति से कह सुनाई। ज़मींदार ने शाहकरीम को अपने समीप बुला कर पूछा कि तुम किस आधार पर इतना कुछ सहन करते हो। तब शाहकरीम ने जो कि गुणग्राही वृत्ति का पुरुष था उत्तर दिया कि वे लोग तो बड़े दयालु निकले। मैं तो अपने स्वार्थ के वश थके हुए बैलों को हाँके  ही जा रहा था। इनको करुणा हो आई और इन मूक पशुओं को खोल दिया।हम अपनी खेती के लालच मेंवन के कीड़े-मकौड़ों का ध्यान नहीं रखते थे।जंगली पेड़ों पौधों को पानी का भी ध्यान नहीं रखते थे। उन्होंने उन तक पानी पहुँचाने का प्रबन्ध कर दिया। हम जब ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे थे तो हम दण्ड के योग्य थे ही।इसीलिये ही हमें दो-चार चाँटे भी खाने पड़े-तब हमने अपने मन को समझाया कि,""ऐ मन!भविष्य में तू कभी ऐसा निर्दयता का काम न करना।यह सुनकर वह भूमिपति चकित रह गया। और समझ गया कि यह कमाई वाला फकीर है। उसने उन चारों को बुलाया और उस फकीर के चरणों में झुकवाने के साथ साथ उनसे क्षमा याचना करवाई। यह है महापुरुषों का आदर्श। जिसे आत्मिक उन्नति करने की रूचि हो वह भी अपने में महापुरुषों के ही उदारता-क्षमा-सहनशीलता आदि गुणों को अपनावे जिससे वह भी उन की भाँति प्रगति कर सके।भक्ति पथ पर चलने वालों को अन्तर के नेत्र खोल कर देखना चाहिये कि मेरी कार्यवाही प्रभु की प्रसन्नता के अनुकूल है या लोगों की मान-बड़ाई प्राप्त करने के निमित्त है।वह अन्तस्तल से निश्चय करे कि मुझे लोगों की अप्रसन्नता का डर रहता है या भगवान की? जो मनुष्य संसारी लोगों की प्रसन्नता को सामने रखकर मालिक की प्रसन्नता की परवाह नहीं करता वह अपने दोनों लोक बिगाड़ लेता है क्योंकि उसने प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त नहीं की और लोगों की प्रसन्नता से उसे कोई आत्मिक लाभ नहीं हुआ। और जो मालिक की प्रसन्नता को सन्मुखरखकर लोगों की अप्रसन्नता की परवाह नहीं करता वह अपने दोनों लोक संवार लेता है।

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