Friday, February 19, 2016

मन को जलेबियाँ खिलार्इं


          मोटे बन्धन जगत के, गुरुभक्ति से काट।।
          झीने बन्धन चित्त के, कटें  नाम प्रताप।।
लोहे को सदा लोहा ही काटता है। मलिन कर्मों के प्रभावों को शुभ कर्मों के प्रभाव ही काट सकते हैं।इसीलिये नित्य के किये जाने वाले भजन अभ्यास, पूजन-आराधन के सत्कार्यों में कदापि प्रमाद नहीं होना चाहिए।
महाराजा भर्तृहरि जी के जीवन-प्रसंग में एक घटना आती है कि जब वह विरक्त होकर श्री गुरुगोरख नाथ जी की शिष्य मण्डली में सम्मिलित हो गये तो एक बार उनका गुज़र-एक बाज़ार से हुआ। सामने हलवाई की दुकान पर अनेक प्रकार की रुचिकर स्वादिष्ट मिठाइयां करीने से लगी हुर्इं, उनकी आँखों में आई। मन भीतर से उछलाऔर विचार आया कि मिठाइयाँ छोड़ने की तो है नहीं। मुँह में पानी भर आया। किन्तु जेब भी खाली थी। सोचा कि वन में जा कर लकड़ियां काटें उन्हें बेच कर कुछ पैसे बना लें फिर मिठाई ले लेंगे।ऐसा ही उन्होंने किया। पैसों से मिठाई भी खरीद ली गई। अब समय आया खाने का। भर्तृहरि जी एक उच्च कोटि के गुरुदेव जी के जगाए हुए सुपात्र शिष्य थे। उन्होने मन को मचलता हुआ देखकर कहा-ऐ मन!क्यों आधीर हुआ जाता है, खाते हैं न मिष्ठान्न। बाज़ार में खाना मुझ जैसे को शोभा नहीं देता।जंगल में जाकर एकान्त में खा लेंगे। वहाँ भी पहुँच गये। मन ने फिर ऊधम मचाया।राजा बोले-मन!स्नान किये बिना भी क्या कुछ खाया जाता है?नदी तट भीआ गया, स्नान-ध्यान भी कर चुके। मिठाई की टोकड़ी बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ से एक टुकड़ा उठा लिया। अब तो मन ने निश्चय कर लिया था कि मुझे मिठाई खाने को मिली सो मिली।
     महाराजा ने क्या कौतुक किया कि वह लड्डू नदी में फैंक दिया। रसगुल्ला उठाया और मन से बोले-तूने अपने क्षणभर के स्वाद के पीछे मुझसे लकड़ियां चुनवार्इं-बिकवार्इंऔर मिठाई भी खरीदवा लीं-किन्तु तुझे ज्ञान होना चाहिये कि मैं पूर्ण समर्थ सदगुरुदेवजी का शिष्य हूँ।तेरे देखते देखते मैंने इतने विशाल साम्राज्य को लात मार दी।अभी तुझे मिठाई का प्रलोभन बना हुआ है।धिक्कार है तुझे और मुझे भी धिक्कार होगा यदि मैने एक भी दाना मुखमें डाल लिया। एक एक टुकड़ा मुख के पास आता जाय और मन को तरसा तरसा कर नदी की लहरों के समर्पित होता जाय। इसे कहते हैं सच्चा वैराग्य और मन पर विजय पा लेना। यह आत्मा होती है प्रबुद्ध अर्थात संस्कारी और जगी हुई।
          वैरी  तेरा  को  नहीं ,  वैरी  तेरा  मन।।
          इस मन को जो वश करें, पावें मुक्ति धन।।
     मन से बड़ा कोई भी शत्रु इस जीव का नहीं।इस मन को उज्जवल, निर्मलऔर समदृष्टि बनाना है। जिसने मन परअधिकार कर लिया उसने मानों चौदह लोकों हो की जीत लिया।

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