Monday, February 29, 2016

चीनी लोक कथा का संयुक्त परिवार


    'रहन सहन' इन दो शब्दों की जोड़ी सदियों से बोलचाल की भाषा में घुल मिल गयी है। किन्तु इनके एक साथ होने का रहस्य बहुत कम लोगों को ज्ञात है। इसका गुढ़ार्थ यह है कि यदि रहना है(परिवार,समाज कहीं भी) तो सहना अनिवार्य है एक चीनी लोककथा है। चीन में एक विशाल संयुक्त परिवार रहता था। जिसमें लगभग पाँच सौ सदस्य थे सबमें गहरा प्रेम और सद्भाव था। इस अदभुत परिवार की चर्चा जब राजा के कानों में पहुँची तो वह उस परिवार के प्रमुख व्यक्ति से मिलने स्वयं गया। बूढ़ा परिवार प्रमुख सौ वर्ष की आयु पार कर चुका था। उसमें देखने और बोलने की शक्ति क्षीण हो चुकी थी।राजा ने जब उसके परिवार में अखण्ड सुख शान्ति और प्रेमभाव का रहस्य जानना चाहा तो उसने एक तख्ती मँगवाई। उस पर काँपते हाथों से उसने एक ही शब्द लिखा "सहनशीलता'।
       महाभारत के पात्रों में युधिष्ठिर की सहनशीलता असाधारण थी। द्यूत क्रीड़ा के समय, द्रोपदी के चीरहरण से क्षुब्ध भाईयों की उत्तेजना उनकी सहनशीलता के कारण ही दबी रही। युधिष्ठिर के मन में किसी के प्रति प्रतिशोध भावना कभी नहीं रही।

Sunday, February 28, 2016

धन देकर ध्यान लेना चाहा


अहंकार खो जाये, तुम्हें ऐसी प्रतीति होने लगे कि मैं ना-कुछ हूँ, पात्र तैयार होने लगा। जिस दिन पात्र बिल्कुल खाली है,और तुम्हारे भीतर कोई भी नहीं,तुम एक सूने घर हो गये। उसी दिन परमात्मा द्वार पर दस्तक दे देता है।
     एक अज्ञानी,लालची और प्रजापीड़क राजा ने निश्चय किया कि मैं सत्य को भी अपनेअधिकार में लाकर रहूँगा।बहुत से लोग परमात्मा की तरफ भी लालच के कारण ही जाते हैं।सत्य की खोज भी लोभ ही होता है।तुमने सब कमा लिया।इस राजा को भी यही ख्याल होगा।राज्य है,धन है,संपदा है,शक्ति है,प्रतिष्ठा है,सब मिल गया। अब एक चीज़ अखरती है कि अभी तक सत्य नहीं मिला। वह भी तिजोरी में होना चाहिए।
     महावीर के पास वह सम्राट गया और उस सम्राट ने कहा कि मैने सत्य की बड़ी चर्चा सुनी है।और इधर आपके संन्यासी गांव-गांव ध्यान की चर्चा लगा रहे हैं।ध्यान मुझे भी चाहिए। महावीर को चुप देखकर उसने समझा कि शायद महावीर को ठीक-ठीक पता नहीं कि मैं कौन हूं।उसने कहा,आप निÏश्चत रहें,जो भी मूल्य होगा, चुका दूंगा। धन मेरे पास ज़रूरत से ज्यादा है।तो आप कोई चिंता न करें। जो भी कीमत हो, नगद देने को राज़ी हूं। लेकिन ध्यान मुझे चाहिए। महावीर ने कहा, तुम ऐसा करो कि तुम्हारे गांव में एक गरीब आदमी है और बहुत गरीब है। एक-एक पैसों के लिए दीन है,उसको धन की बड़ी ज़रूरत है। और वह ध्यान को उपलब्ध हो गया है। वह मेरा शिष्य है। तुम वहां चले जाओ, और तुम उसको ही राज़ी कर लो बेचने के लिए।
     सम्राट प्रसन्न लौटा। महावीर से तो थोड़ी सी शंका भी थी,संदेह भी था, कि इस आदमी ने सब धन छोड़ दिया है, यह धन के बदले में ध्यान बेचेगा या नहीं?लेकिन यह गरीब आदमी, गांव का भिखमंगा,इसका नाम भी कभी सम्राट ने नहीं सुना था।उसने जाकर उसके घर के सामने सोने की अशर्फियों के ढेर लगा दिए।वह आदमी बाहर आया।उसने सम्राट से पूछा,आप यह क्या कर रहें हैं?सम्राट ने कहा,और ज्यादा चाहिए? तुझे जितना चाहिए,बोल दे। तू बोल,उतना हम देंगे। लेकिन ध्यान चाहिए।
    वह आदमी हँसने भी लगा,रोने भी लगा।उसने कहा,महावीर ने बड़ा गहरा मज़ाक किया,आप समझे नहीं। ध्यान बेचा नहीं जा सकता। आप चाहें तो मुझे खरीद सकते हैं। लेकिन मेरे ध्यान को मैं कैसे दे सकता हूँ? ऐसा नहीं है कि देने में मेरा कोई अस्वीकार है। ऐसा भी नहीं है कि न देना चाहूँगा। देना भी चाहूँ तो भी नहीं दे सकता हूँ।सम्राट पूछने लगा, क्या अड़चन है? तुम मुझे कहो। उस गरीब आदमी ने कहा,अड़चन मेरी तरफ से नहीं है,ध्यान का स्वभाव ऐसा है। उसे कोई किसी को कैसे दे सकता है?

Saturday, February 27, 2016

यात्री को कहा उठो और चलो


  1.           आस्ते भग आसीनस्य ऊध्र्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
              शेते निषद्यमानस्य चराति चरतो भगः।। चरैवेति चरैवेति।।
    अर्थात् लेटे हुये पुरुष का भाग्य सोया रहता है,बैठे हुये का भाग्य बैठा रहता है,खड़े होने वाले का भाग्य खड़ा हो जाता है और चलने वाले का भाग्य भी चलने लगता है,इसलिये चलते रहो, चलते रहो। कहने का तात्पर्य यह कि कर्मशील मनुष्य का जीवन ही सफल जीवन है।अन्य शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि जीवन में सफलता एवं समृद्धि उसी के चरण चूमती है, जो दत्तचित होकर अर्थात अपनी सुरति को एकाग्र करके अपने कार्य में जुट जाता है। ऐसा व्यक्ति एक एक पग बढ़ाता हुआ निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है और एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने सफल हो जाता है। इसी पर एक कथा है।
         एक व्यक्ति ने जोकि एक छोटे से गांव का रहने वाला था, किसी नगर में जाकर काम काज करने का विचार किया और लोगों से यह पूछकर कि वह नगर किस दिशा में है,प्रातः काल होते ही उस ओर चल पड़ा।ग्रीष्म ऋतु थी। लगभग तीन चार घंटे यात्रा करने के उपरांत वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ आमों का एक छोटा-सा बाग था, जिसमें एक कुआँ भी था। चूंकि वह कुछ थक गया था और उसे प्यास भी सता रही थी,अतः उसने वहाँ कुछ देर विश्राम करने का निश्चय किया। उसने अपने झोले में से रस्सी-लोटा निकाला और कुएँ का मीठा एवं शीतल जलपीकर एक पेड़ की छाया में विश्राम करने लगा।लेटे-लेटे वह सोचने लगा-पता नहीं नगर यहांसे कितनी दूर हैऔर मैं कब तक वहाँ पहुँचूँगा? यदि कोई व्यक्ति मिल जाये तो उससे पता करूँ। तभी एक किसान जिस का खेत बाग के पास ही था, कुएँ पर बैलों को पानी पिलाने आया।यात्री ने वहीं लेटे-लेटे उससे पूछा-क्यों भाई!अमुक नगर तक मैं कब तक पहुँच जाऊँगा?किसान ने घुमकर देखा कि एक व्यक्ति पेड़ के नीचे लेटा हुआ है। किसान ने एक क्षण उसकीओर देखाऔर फिर बोला-उठो और चलो। यात्री बोला-हाँ भाई! उठना और चलना तो मुझे है ही, परन्तु मैं तुमसे यह पूछ रहा हूँ कि अमुक नगर तक मैं कब तक पहुँच जाऊँगा? किसान ने दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखा और पुनः वही संक्षिप्त उत्तर दिया-उठो और चलो। यात्री लेटे-लेटे सोचने लगा-यह कैसा मनुष्य है, जो यात्रियों से भी हंसी-ठट्ठा करता है?उसे उसपर कुछ क्रोध आया, परन्तु क्रोध को दबाकर उसने पुनः कहा-भैया! यह तो मैं भी अच्छी तरह जानता हूँ कि बिन चले मैं उस नगर तक नहीं पहुँच सकता, फिर तुम मुझे बार-बार उठने और चलने का उपदेश क्यों दे रहे हो? मैं तो केवल यह पूछ रहा हूँ कि उस नगर तक मैं कब तक पहुँच जाऊँगा?
        किन्तु किसान पर जैसे उसकी बातों का कोई प्रभाव ही न पड़ा हो। बैलों को पानी पिलाते हुये उसने अपना वही उत्तर फिर दोहरा दिया-उठो और चलो।अब तो यात्री को सचमुच ही क्रोध आ गया और वह लगभग चीखते हुये बोला-तुम पागल तो नहीं हो जो उठो और चलो,उठो और चलो की रट लगाये हुए हो?उठकर चलना मुझे है कि तुम्हें?तुम्हें उसकी चिन्ता क्यों सता रही है? मैं पूछ कुछ रहा हूँ और तुम उत्तर क्या दे रहे हो? अरे भाई!मैने तुम से यह पूछा है कि अमुक नगर तक मैं कब तक पहुँच जाऊँगा? किसान ने उसके क्रोध पर तनिक भी ध्यान न देते हुए वही उत्तर दोहरा दिया-उठो और चलो। यात्री को क्रोध तो बहुत आया, परन्तु फिर यह सोचकर वह चुप हो गया कि इससे माथापच्ची करने से क्या लाभ?उस नगर तक जाना तो मुझे ही है, चलो उठकर चलते हैं, जितना समय लगना होगा वह तो लगेगा ही। मन में यह विचार करके वह अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और नगर की ओर चलने लगा। किन्तु अभी वह दस-बारह पग ही चला था कि पीछे से आवाज़ आई-सुनो!यात्री ने रुकते हुये कहा अब क्या कहना चाहते हो? किसान ने कहा-मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना चाहता हूँ। मेरे अनुमान केअऩुसार दोपहर ढलने तक तुम अपने लक्ष्य पर अवश्य पहुँच जाओगे। यह सुनते ही यात्री क्रोध से भड़क उठा। लाल-पीला होते हुये वह बोला-अजीब आदमी हो तुम भी! मेरे बार-बार पूछने पर तो तुमने'उठो और चलो'की रट लगाये रखी औरअब जबकि तुम्हारे व्यवहार से तंगआकर मैने यात्रा आरम्भ कर दी है, तब तुम मेरे प्रश्न का उत्तर दे रहे हो। तुमने पहले ही यह उत्तर क्यों न दिया?
       किसान बोला-भैया!तुम्हीं सोचो कि तुम्हारे प्रश्न का उत्तर पहले कैसे दिया जा सकता था?तुम लेटे-लेटे पूछ रहे थे कि मैं उस नगर तक कब तक पहुँच जाऊँगा? तुम कब  तक  यहाँ लेटे रहोगे, यह मैं कैसे जान
    सकता था?और जब तक तुम लेटे हुये थे, उठकर चल नहीं पड़े थे, मैं कैसे कह सकता था कि तुम कब तक उस नगर में पहुँच जाओगे। बिना चले तो तुम जीवन पर्यन्त वहां तक नहीं पहुँच सकते। दूसरे, मैं तुम्हारी चलने की गति भी नहीं जानता था। गति देखे बिना भी तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना कठिन था।अब जबकिअपने स्थान से उठकर तुम चल पड़े हो और मैने तुम्हारे चलने की गति भी देख ली है,तोअब मैं निश्चित रूप से ही यह कह सकता हूँ कि यदि तुम इसी गति से चलते रहे तो दोपहर ढलने तकअवश्य उस नगर तक जा पहुंचोगे।यात्री किसान की बुद्धिमत्ता पर चकित रह गया। उसने अपने अशिष्ट व्यवहार के लिये किसान से क्षमा मांगी और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गया।
         इसलिये यदि आप अपने लक्ष्य पर पहुँचना चाहते और सफलता का मुख देखना चाहते हैं तो उपरोक्त कथन-""चलते रहो,चलते रहो''पर अभी से आचरण करना आरम्भ कर दीजिये। आपने अपने जीवन का चाहे कोई भी लक्ष्य निर्धारित कर रखा हो,उस तक पहुँचने के लिये यह आवश्यक है कि आप उस लक्ष्य की ओर तत्काल चलना आरम्भ कर दें।जबआप जिस गति से लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे,उसी हिसाब से हीआपको लक्ष्य तक पहुँचने में समय भी लगेगा। ह्मदय में यह बातअच्छी तरह दृढ़ कर लें कि सफलता इऩ्हीं दो बातों पर निर्भर करती है। एक तो यह कि जब तक आप अपने कार्य में सफल न हो जायें तब तक चैन से न बैठें, निरन्तर अपने कार्य में जुटे रहें और दूसरे आपके काम करने में गति अर्थात लगन हो। जितनी ही अधिक लगन काम मे होगी उतनी ही शीघ्र आपको सफलता भी मिलेगी।    

Friday, February 26, 2016

झूठ कहा कि राजमहल में भोज है


मुल्लानसरूद्दीन एक रास्ते से गुज़र रहा है।अकेला है।और कुछ आवारा लड़कों ने उसे घेर लिया है।और वे उसका मज़ा लेना चाहते हैं।तो उनसे छुटकारा पाने के लिए नसरूद्दीन ने कहा,कि तुम्हें पता है,मैं कहां जा रहा हूँ?आज राजमहल में भोज है और सभी को निमंत्रण है,बेशर्त! जो भी आना चाहे आ जाये।इतना नसरूद्दीन कह भी न पाया था कि लड़के राजमहल की तरफ भागे।जब सारे लड़कों को उसने राजमहल की तरफ भागते देखा तो उसने सोचा हो न हो,बात सच ही है। नहीं तो इतने लोग! वह भी भागा। उसने कहा, जाने में हर्ज़ ही क्या है?
   पहले तुम दूसरे को धोखा देना चाहते हो।देते-देते तुम खुद धोखा खा जाते हो। क्योंकि जब दूसरों को भरोसा आ जाता है तो तुम्हें भी भरोसा आ जाता है। भरोसा संक्रामक है। इसलिए तुम जो झूठ बहुत दिन तक बोलते रहे हो,तुम्हें पक्का याद नहीं रह जाता कि वह झूठ है या सच है।

Thursday, February 25, 2016

आपके दर्शन करने आता हूँ


     स्वामी रामकृष्ण परमहँस जी के श्री दर्शन करने स्वामी परम विवेकानन्द जी आते थे जब नरेन्द्र दत्त थे।ज्ञान चर्चा भी चलती।एक बार रामकृष्ण परमहँस जी ने उनसे पाँच छः दिन तक बात तक न की और नाही उनकी ओर रुख किया।आखिर श्री परमहँस जी ने मौन तोड़ा। पूछा कि जब मैं आपसे बात तक नहीं करता तो यहां क्यों आते हो? उत्तर दिया आपको क्या करना है क्या नहीं करना है वह तो महाराज आप ही जाने मैं कोई आपसे बात करने थोड़े ही आता हूँ मैं तो बस आपके श्री दर्शन करने आता हूँ।
     गुरु को केवल निहार निहार कर ही स्वामी विवेकानन्द जी कहाँ पहुँच गये। जिसने गुरुदेव को निहारने की कला सीख ली फिर उसे और कुछ करने की आवश्यकता ही कहां है?दृष्टि भी एक पथ ही होती है जिस पर जब शिष्य अपने आग्रह के पुष्प बिखेर देता है तो गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्नता से अनुग्रह करते हुए उस पथ पर अपने पग रखते हुये स्वमेव आकर शिष्य के ह्मदय में समा जाते हैं।

Wednesday, February 24, 2016

ईश्वर इच्छा-जीव का भला

श्री परमहंस अद्वैत मत के प्रवर्तक,रूहानी सम्राट श्री श्री 108 श्री परमहंस दयाल जी परमार्थ पथ पर आरूढ़ होकर स्थान स्थान पर भक्ति-अभिलाषी आत्माओं को सत्संग लाभ करा रहे थे। प्रेमी जन अपनी हार्दिक भावना श्री चरणों में निवेदित करते और वे सत्संग द्वारा उनको तृप्त करते थे। इसी प्रकार एक बार जयपुर में विराजमान थे। एक प्रेमी ने विनय की-प्रभो! सत्पुरुषों के पास ऐसी कौन सी शक्ति होती है जिससे वे कुदरत के स्वामी होते हैं?
     श्री वचन हुए कि सत्पुरुष ईश्वरेच्छा को सत्य मान उद्विग्न नहीं होते।इसीलिये जो संसार में घटित होता है उसे परमात्मा की इच्छा का कारण मानते हैं,उन्हें आत्मानुभूति होती है। यही कारण है कि वे प्रकृति के स्वामी बनते हैं। उन्हें यह विदित है कि परमात्मा की रचाई सृष्टि में जो भी हो रहा है,स्थिति, उत्पत्ति, प्रलय-सब में भलाई निहित है। संसारी प्राणी ज़रा सी विपरीत हालत में घबरा जाते हैं। और समझते हैं कि हमारे प्रयत्न से परिस्थित में सुधार हो सकता है। बस यही उद्विग्नता ही उनके महादुःख का कारण बनती है।
     इस पर एक सत्य प्रणाण है कि अरब के एक गाँव में एक भक्त रहता था। वह इश्वरेच्छा में संतुष्ट था। ऐसे व्यक्ति की सहनशीलता असीम रखनी होती है। ईश्वर की मौज में राज़ी रहना अत्यन्त साहस का काम है। परन्तु परमात्मा जिसको ऐसी सामथ्र्य देता है उनके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं होता। वह भक्त जब भी कोई बात करता अथवा उपदेश देता तो यही कहा करता कि परमात्मा के हर एक काम में कोई न कोई रहस्य छिपा होता है। उसकी मौज में बिना कुछ दखल लिए अथवा अपनी बुद्धि व चतुराई का हस्तक्षेप किए सत्य सत्य कर मानते जाना चाहिए। ईश्वर की प्रत्येक लीला अथवा घटना में भलाई ही छिपी होती है। उसकी ऐसी अवस्था एवं प्रभु भक्ति की तल्लीनता से सभी गाँव वाले उसे पूज्नीय समझते एवं उसका सम्मान करते थे।
     एक समय अचानक उस गाँव के कुत्ते एकाएक मर गये। लोगों ने आकर उससे कहा कि कुत्ते चौकीदारी खूब किया करते थे। भला उनको एकदम मारने में परमात्मा को कौन सी भलाई नज़र आई है? उसने उत्तर दिया कि इसमें कोई न कोई भलाई का रहस्य छिपा हुआ होगा। दूसरे दिन गाँव के तमाम मुर्गे भी मर गए। पुनः लोग इकट्ठे होकर उसके पास गये और कहा कि मुर्गे की बाँग से समय का पता चल जाता था। इससे प्रभु सुमरिण के लिए समय पर उठ जाते थे। अब क्या होगा?(क्योंकि उस समय प्रायः लोग मुर्गे की बाँग एवं धूप छाँव से ही समय का पता लगाते थे कि अब दिन अथवा दोपहर का कितना समय है। आज की भांति घड़ियों का प्रचलन अधिक नहीं था।)इसमें प्रभु को क्या भलाई नज़र आई है। उसने पुनः वही साधारण सा उत्तर दिया कि इसमें प्रभु की भलाई छिपी होगी।
     तीसरे दिन ऐसा कोहरा पड़ा कि सारा गाँव में आग बिल्कुल न जल पा रही थी,नाही दीपक जल सकता था।(क्योंकि उन दिनों लकड़ियाँ जलाकर उनकी आग दबा देते थे, पुनः उसी दबी आग से आग सुलगा लेते थे उस दिन कोहरे से सब आग ठण्डी पड़ गई।) संध्या समय सब व्यक्ति मिलकर उसके पास गए और विनय की हज़रत! अब फरमाइए, कुल गांव में अंधेरा और चूल्हा ठण्डा पड़ा है। न तो आग सुलगी है,न चिराग रोशन होता है। खाना काहे से पकावें, और क्या खावें? उसने जवाब दिया कि सब्रा करो, सब रहस्य पता चल जाएगा। रात को सब जैसे-तैसे अपने घरों में सो रहे। उसी रात एक राजा जो कि नगरों पर आक्रमण कर उनपर विजयी होता हुआ, गाँवों को लूटता हुआ उधर से सेना सहित गुज़रा। जब उस गांव के समीप पहुँचा उसने अपनी सेना से कहा कि गांव तो गैर-आबाद व खाली मालूम होता है। न कुत्ते भौंकते हैं, न मुर्गे बोलते हैं, न कहीं रोशनी नज़र आती है। यदि यहां आबादी होती तो कुछ न कुछ निशान अवश्य नज़र आते अर्थात् सेना तथा राजा ने उस ओर रुख न किया और गांव को बिना लूटे वहां से गुज़र गए। उस समय गांव वालों को पता चला कि कुत्तों, मुर्गों के मरने व आग न जलने में परमात्मा ने क्या भलाई की। यदि ऐसा न होता तो आज स्त्री व बच्चे तक सब कत्ल हो जाते और सामान धन आदि भी लूटा जाता। उन सबने उस भक्त जी से क्षमा माँगी और पुनः उसका सम्मान करते हुए मिलजुलकर रहने लगे।

Tuesday, February 23, 2016

सतगुरु की कृपा


          पीछे लागा जाए  था लोग वेद के साथ।।
         आगे ते सतगुरु मिला, दीपक दीन्हा हाथ।।
श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि अब तक तो लोगों की पीठ के पीछे चल रहा था। गुरु इस तरह नहीं मिलता गुरु आगे से मिला। आमने सामने।सम्मुख होकर मिला।
      एक सूफी फकीर हज की यात्रा पर गया। बूढ़ा फकीर था, तो शिष्यों ने सोचा कि उसके लिए एक गधा ले आना ठीक है। उन इलाकों में लोग गधों से यात्रा करते। तो वे गधा ले आये। लेकिन बड़े चकित हुए। क्योंकि फकीर जब उस पर बैठा तो उलटा बैठा। गधे के सिर की तरफ उसने पीठ कर ली और पूँछ की तरफ मुँह कर लिया। शिष्य कुछ कह न सके। क्या करें?गुरु बहुत मान्य थाऔर जो भी करता सदा ठीक ही करता।कोई राज़ होगा। मगर यह बड़ा बेहूदा लगता है।वे सब चले। जैसे ही गाँव में प्रविष्ट हुए,लोग हँसने लगे।भीड़ लग गई।आवारा बच्चे पत्थर-कंकड़ फैंकने लगे।लोग बाहर निकल आए घरों के। बड़ा तमाशा
होने लगा।आखिर शिष्यों को भी बड़ीबैचैनी लगने लगी।वे भी नीचा देख कर चल रहे हैं,कि जिस गुरु के साथ हम जा रहे हैं वह गधे पर उल्टा बैठा हुआ है।बदनामी तो हमारी भी हो रही है। उनकी तो हो ही रही है, मगर हम भी तो उनके पीछे चल रहे हैं, तो लोग हम पर भी हँसते हैं।
लोग उनसे भी कहने लगे,किसके पीछे जा रहे हो दिमाग खराब हो गया है?यह हज की यात्रा हो रही है?बहुत यात्राएं देखीं। यह तुम्हारा गुरु गधे पर उलटा क्यों बैठा है?आखिर उन्होने अपने गुरु को कहा कि सुनिए, इस बात को आप साफ ही कर दें। राज़ ज़रूर होगा। मगर हम बड़े मुश्किल में पड़ गये हैं। गुरु ने कहा, ऐसा है कि अगर मैं गधे पर सीधा बैठूँ तो मेरी पीठ तुम्हारी तरफ होगी।और कभी किसी गुरु की पीठअपने शिष्यों की तरफ नहीं हुई।अगर तुम मेरे पीछे चलो,मैं गधे पर सीधा बैठूँ तो मेरी पीठ तुम्हारी तरफ होगी।यह भी हो सकता है। क्योंकि मैने सभी विकल्प सोच लिए।तुम आगे चलो,मैं गधे पर बैठकर तुम्हारे पीछे सीधा चलूँ तो तुम्हारी पीठ मेरी तरफ होगी। जब गुरु की पीठ भी क्षमायोग्य नहीं है कि शिष्य की तरफ हो, तो शिष्य की पीठ गुरु की तरफ हो यह बड़ा अक्षम्य अपराध हो जाएगा। तो यही एक सुगम उपाय है,कि मैं गधे पर उलटा बैठूं, तुम मेरे पीछे चलो। आमने सामने हम रहें।(शिष्य कभी पीठ कर भी ले,परन्तु सदगुरु कभी शिष्य की तरफ पीठ नहीं करते।)

Monday, February 22, 2016

अच्छे संगतरे


एक बार एक महात्मा जी किसी शहर में से गुज़र रहे थे। उनके साथ में एक सतसंगी भी था। जब वे दोनों बाज़ार में से निकले तो वहाँ बाज़ार में एक फल बेचने वाला आवाज़ दे रहा था,""अच्छे संगतरे''-""अच्छे संगतरे''। उसकी इस आवाज़ को उन महात्मा जी ने तथा उनके साथी सतसंगी सेवक ने भी सुना,तो उस सेवक ने हाथ जोड़ कर महात्मा जी से निवेदन किया,""महाराज! देखिये, यह फल बेचने वाला भी क्या झूठा और ठग है। जो संगतरे उसने टोकरी में रखे हुये हैं, वे तो निहायत गले सड़े और बासी हैं,फिर भी यह पुकार रहा है,""अच्छे संगतरे''-""अच्छे संगतरे''।
     बात असल में यह थी कि सचमुच ही फल बेचने वाले की टोकरी में निहायत खराब, गले सड़े और बासी संगतरे थे, जिनकी खातिर वह आवाज़ लगा रहा था। महात्मा जी ने यह सुना तो आगे से हँसकर फरमाया,""अरे भोले!वह बेचारा तो ठीक ही कह रहा है। उसकी टोकरी में रखे हुये संगतरे ताज़ा हों या बासी-अच्छे हों या खराब,इससे हमें क्या सरोकार। लेकिन जो बात वह कह रहा है,वह तो सोलह आने ठीक और सच ही है। उसमें झूठ कहाँ है?''उसकी आवाज़ पर गौर करो।वो बेचारा कहता है,""अच्छे संग तरे।-""अच्छे संग तरे''। अर्थात् जो कोई अच्छी संगति में जायेगा,उसका तर जाना निश्चित है।आवाज़ सोलहआने सच्ची है,इसलिये अब हम भी कहते हैं,""अच्छे संग तरे।''और तुम भी कहो, "'अच्छे संगतरे।''बात मतलब की कही गई थी। सत्संगी सेवक ने यह सुना और महात्मा जी के चरणों में प्रणाम कियाऔर कहा,आप धन्य हैं।

Sunday, February 21, 2016

बिना भजन भगवान के, चली अकारथ जान


    एक राजा बड़ा ही भगवद्भक्त और सन्त सेवी था। पूर्ण महापुरुषों के उपदेशानुसार राज्य के दायित्व को निभाते हुए वह सदा नाम-सुमिरण और भजन-भक्ति में लीन रहता था। उसके यहाँ प्रायः सत्संग होता रहता था और सन्त महापुरुषों की शुभ संगति का वह लाभ प्राप्त करता रहता था। राजा की एक कन्या थी। प्रारम्भ से ही सन्तों महापुरुषों की संगति मिलने से उसके ह्मदय में नाम और भक्ति की लगन लग गई थी। जब उसकी आयु लगभग दस-ग्यारह वर्ष की थी, उस समय की बात है कि एक त्योहार पर उसकी धाय ने उसे बधाई दी। राजकुमारी ने अपनी अँगुली से मुल्यवान अंगूठी उतारकर उसे पुरुस्कार में दे दी। अँगूठी पा कर धाय ने उसे आशीर्वाद दिया-""तेरी उम्र लम्बी हो।''राजकुमारी ने हँसते हुए कहा-""लम्बी आयु प्राप्त करने से क्या होगा?'' धाय ने कहा- तू युवा हो जायेगी। राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा? धाय ने कहा-फिर अन्य देश के किसी राजा के साथ धूमधाम से तेरा विवाह हो जायेगा। राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा? धाय ने कहा-तू रानी बन कर उस घर में राज करेगी और शरीर के हर प्रकार के सुखभोग तुझे प्राप्त होंगे।राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा?फिर तेरे बाल बच्चे होंगे। फिर क्या होगा? फिर तेरे बाल बच्चों को भी बाल बच्चे हो जायेंगे और तू दादी-नानी बन जायेगी। राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा?
राजकुमारी के बार-बार फिर क्या होगा,फिर क्या होगा कहने से धाय चिढ़ गई। उसने झुंझलाते हुए कहा-फिर क्या होगा? फिर वही होगा कि तू वृद्धा हो जायेगी, तेरे अंग प्रत्यंग शिथिल हो जायेंगे,बाल पक जायेंगे तथा कमर झुक जायेगी और फिर एक दिन ऐसा भीआयेगा जब मृत्यु तुझे ग्रस लेगी और तेरा नामो-निशाान सदा के लिए इस संसार से मिट जायेगा। यही सबके साथ होता आया है और यही तेरे साथ भी होगा।
     कोई अन्य होता तो शायद धाय की बातों पर क्रोधित हो उठता, परन्तु राजकुमारी तो विचारवान थी,इसलिए क्रोध करने की बजाय वह हँस पड़ी।उसने हँसते हुए धाय से कहा,""बस इसी वास्ते तू मुझे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे रही है। यदि जीवन में मात्र यही कुछ करना है तो फिर पशु मेंऔर मुझमें अन्तर ही क्या रहा?पशु भी तो खाते पीते हैं,वे भी तो शरीर-इन्द्रियों के भोग भोगते हैं, उनके भी तो बाल-बच्चे होते हैं, वे भी वृद्ध होते हैं और फिर काल का ग्रास बन जाते हैं। मैने भी यदि यही कुछ किया तो फिर मनुष्य जन्म से, जिसे सब योनियों से श्रेष्ठ एवं उत्तम कहा गया है,मैने क्या लाभ उठाया? मनुष्य जन्म का ऐसा स्वर्णिम अवसर प्राप्त करके भी यदि नाम और भक्त की कमाई न की तो समझो अपनालोकऔर परलोक-दोनों ही बिगाड़ लिये।मनुष्य की ऐसी कार्यवाही पर तो सन्तों ने धिक्कार डाली है।इसलिये यदि तुमने मुझेआशीर्वाद देना ही है तो यह आशीर्वाद दे कि मैं चाहे दो दिन जीऊँ,दस दिन जीऊँ,दस वर्ष जीऊँ या सौ वर्ष जीऊं जितने दिन भी मैं जीऊँ,मेरा एक एक पल, एक एक स्वांस परमात्मा के नाम में,भजन ध्यान में व्यतीत हो ताकि मेरा संसार में जन्म लेना सफल एवं सकारथ हो।''
     किन्तु इस बात की समझ भी मनुष्य को तभी आती है जब सौभाग्य से उसे सत्पुरुषों की पावन संगति मिल जाती है। सत्पुरुषों की कृपा से मनुष्य को जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता चल जाता है और वह अपने वास्तविक काम में लगकर और अपनी आत्मा का क्ल्याण करके अपने जीवन को सफल एवं सकारथ कर लेता है।

Saturday, February 20, 2016

शाहकरीम जिन्हें क्रोध दिलाने का प्रयास किया


     एक शाहकरीम नाम का फकीर सिन्ध के एक गाँव में हो गुज़रा है। वह एक दिन अपनी खेती को पानी देने के लिये बैल के द्वारा कुआँ चला रहा था। अपने आप गाधी पर बैठा बैलों को हाँक रहा था इतने में चार आदमी वहाँ आये और आते ही उन्होने पानी की दिशा बदल कर उसके खेत के बदले जंगल की तरफ कर दिया वह फकीर शान्त रहा। थोड़ी देर पीछे उन्होंने बैल भी खोल दिये किन्तु उस के मुख से एक शब्द भी न निकला।उसे दो चार चाँटे रसीद कियेऔर उसे गाधी से धकेल दिया। परन्तु वह फकीर चुप रहा। अकस्मात उसी समय नगर का एक बड़ा भूमिपति वहाँ आ निकला। जिससे वे सब आदमी भय खाते थे। शाहकरीम को एक मनुष्य ने कहा कि तुम उन आदमियों की शिकायत ज़मींदार से कर दो। इस पर भी वह कुछ न बोला। तब उस मनुष्य ने स्वयं ही सारी घटना भूमिपति से कह सुनाई। ज़मींदार ने शाहकरीम को अपने समीप बुला कर पूछा कि तुम किस आधार पर इतना कुछ सहन करते हो। तब शाहकरीम ने जो कि गुणग्राही वृत्ति का पुरुष था उत्तर दिया कि वे लोग तो बड़े दयालु निकले। मैं तो अपने स्वार्थ के वश थके हुए बैलों को हाँके  ही जा रहा था। इनको करुणा हो आई और इन मूक पशुओं को खोल दिया।हम अपनी खेती के लालच मेंवन के कीड़े-मकौड़ों का ध्यान नहीं रखते थे।जंगली पेड़ों पौधों को पानी का भी ध्यान नहीं रखते थे। उन्होंने उन तक पानी पहुँचाने का प्रबन्ध कर दिया। हम जब ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे थे तो हम दण्ड के योग्य थे ही।इसीलिये ही हमें दो-चार चाँटे भी खाने पड़े-तब हमने अपने मन को समझाया कि,""ऐ मन!भविष्य में तू कभी ऐसा निर्दयता का काम न करना।यह सुनकर वह भूमिपति चकित रह गया। और समझ गया कि यह कमाई वाला फकीर है। उसने उन चारों को बुलाया और उस फकीर के चरणों में झुकवाने के साथ साथ उनसे क्षमा याचना करवाई। यह है महापुरुषों का आदर्श। जिसे आत्मिक उन्नति करने की रूचि हो वह भी अपने में महापुरुषों के ही उदारता-क्षमा-सहनशीलता आदि गुणों को अपनावे जिससे वह भी उन की भाँति प्रगति कर सके।भक्ति पथ पर चलने वालों को अन्तर के नेत्र खोल कर देखना चाहिये कि मेरी कार्यवाही प्रभु की प्रसन्नता के अनुकूल है या लोगों की मान-बड़ाई प्राप्त करने के निमित्त है।वह अन्तस्तल से निश्चय करे कि मुझे लोगों की अप्रसन्नता का डर रहता है या भगवान की? जो मनुष्य संसारी लोगों की प्रसन्नता को सामने रखकर मालिक की प्रसन्नता की परवाह नहीं करता वह अपने दोनों लोक बिगाड़ लेता है क्योंकि उसने प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त नहीं की और लोगों की प्रसन्नता से उसे कोई आत्मिक लाभ नहीं हुआ। और जो मालिक की प्रसन्नता को सन्मुखरखकर लोगों की अप्रसन्नता की परवाह नहीं करता वह अपने दोनों लोक संवार लेता है।

Friday, February 19, 2016

मन को जलेबियाँ खिलार्इं


          मोटे बन्धन जगत के, गुरुभक्ति से काट।।
          झीने बन्धन चित्त के, कटें  नाम प्रताप।।
लोहे को सदा लोहा ही काटता है। मलिन कर्मों के प्रभावों को शुभ कर्मों के प्रभाव ही काट सकते हैं।इसीलिये नित्य के किये जाने वाले भजन अभ्यास, पूजन-आराधन के सत्कार्यों में कदापि प्रमाद नहीं होना चाहिए।
महाराजा भर्तृहरि जी के जीवन-प्रसंग में एक घटना आती है कि जब वह विरक्त होकर श्री गुरुगोरख नाथ जी की शिष्य मण्डली में सम्मिलित हो गये तो एक बार उनका गुज़र-एक बाज़ार से हुआ। सामने हलवाई की दुकान पर अनेक प्रकार की रुचिकर स्वादिष्ट मिठाइयां करीने से लगी हुर्इं, उनकी आँखों में आई। मन भीतर से उछलाऔर विचार आया कि मिठाइयाँ छोड़ने की तो है नहीं। मुँह में पानी भर आया। किन्तु जेब भी खाली थी। सोचा कि वन में जा कर लकड़ियां काटें उन्हें बेच कर कुछ पैसे बना लें फिर मिठाई ले लेंगे।ऐसा ही उन्होंने किया। पैसों से मिठाई भी खरीद ली गई। अब समय आया खाने का। भर्तृहरि जी एक उच्च कोटि के गुरुदेव जी के जगाए हुए सुपात्र शिष्य थे। उन्होने मन को मचलता हुआ देखकर कहा-ऐ मन!क्यों आधीर हुआ जाता है, खाते हैं न मिष्ठान्न। बाज़ार में खाना मुझ जैसे को शोभा नहीं देता।जंगल में जाकर एकान्त में खा लेंगे। वहाँ भी पहुँच गये। मन ने फिर ऊधम मचाया।राजा बोले-मन!स्नान किये बिना भी क्या कुछ खाया जाता है?नदी तट भीआ गया, स्नान-ध्यान भी कर चुके। मिठाई की टोकड़ी बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ से एक टुकड़ा उठा लिया। अब तो मन ने निश्चय कर लिया था कि मुझे मिठाई खाने को मिली सो मिली।
     महाराजा ने क्या कौतुक किया कि वह लड्डू नदी में फैंक दिया। रसगुल्ला उठाया और मन से बोले-तूने अपने क्षणभर के स्वाद के पीछे मुझसे लकड़ियां चुनवार्इं-बिकवार्इंऔर मिठाई भी खरीदवा लीं-किन्तु तुझे ज्ञान होना चाहिये कि मैं पूर्ण समर्थ सदगुरुदेवजी का शिष्य हूँ।तेरे देखते देखते मैंने इतने विशाल साम्राज्य को लात मार दी।अभी तुझे मिठाई का प्रलोभन बना हुआ है।धिक्कार है तुझे और मुझे भी धिक्कार होगा यदि मैने एक भी दाना मुखमें डाल लिया। एक एक टुकड़ा मुख के पास आता जाय और मन को तरसा तरसा कर नदी की लहरों के समर्पित होता जाय। इसे कहते हैं सच्चा वैराग्य और मन पर विजय पा लेना। यह आत्मा होती है प्रबुद्ध अर्थात संस्कारी और जगी हुई।
          वैरी  तेरा  को  नहीं ,  वैरी  तेरा  मन।।
          इस मन को जो वश करें, पावें मुक्ति धन।।
     मन से बड़ा कोई भी शत्रु इस जीव का नहीं।इस मन को उज्जवल, निर्मलऔर समदृष्टि बनाना है। जिसने मन परअधिकार कर लिया उसने मानों चौदह लोकों हो की जीत लिया।

Thursday, February 18, 2016

यह घर नहीं सराय है....


यहां घर मत बनाना।यहाँ सराय में ही ठहरना है ये प्रतीक्षालय है यहाँ लार्इंन लगी है मौत आती जाती है लोग  विदा हो जाते हैं तुम्हें भी विदा हो जाना है। यहां जड़ें जमा के खड़े होने की कोई ज़रूरत नहीं जितनी जड़ें जमाओगे उतना ही दुःख होगा।जो इस संसार में ज़ड़ें नहीं जमाता वही सन्यासी है जो तत्पर है सदा जाने को इस जगत से  वही सन्यासी है। जो बनजारा है खानाबदोश है वही सन्यासी इसलिये तम्बू लगा लेना घर न बनाना क्योंकि ये संसार सराय है।
      एक सूफी फकीर हुआ शाह इब्रााहीम।पहले वह बलख का सम्राट था एक रात उसने देखा कि महल की छत्त पर कोई चल रहा है पूछा कौन आधी रात को महल की छत्त पर चल रहा है ?कौन हो तुम?वह बोला मेरा ऊंट खो गया है उसकी खोज कर रहा हूँ। इबार्हीम को भी हँसी आ गई।उसने कहा,ऐ मूर्ख क्या तू पागल हैक्या तेरी बुद्धि जवाब दे गई है कि छत्त पर ऊँट की खोज कर रहा है।ऊंट कहीं छत्त पर मिलते हैं?अगर कहीं खो गया है तो ऊँट छत्त पर पहुँचेगा कैसे?उस व्यक्ति ने कहा पहले मुझे मूर्ख,पागल या बुद्धिहीन कहो पहले अपने बारे में सोच। मुझसेअधिक तो तू पागल और बुद्धिहीन है जो धन में,वैभव मे,सूरा में, संगीतमें, साम्राज्य में,प्रभु प्रेम को,शाश्वत आनन्द को पा लेना चाहता है। यदि धन में,वैभव में, साम्राज्य में, परमात्मा मिल सकता है तो छत्त पर भी ऊँट मिल सकता है। इब्रााहीम चौंकाआधी रात थी भागा। पकड़ो इस आदमी को ये कोई जानकार आदमी मालूम होता है लेकिन तब तक वो आदमी निकल चुका था।इब्रााहीम ने अपने आदमियों से कह रखा था कि पता लगाओ कि कौन आदमी था। कोई पहुँचा हुआ फकीर मालूम होता है। उसने भी कैसी बात कही किस प्रयोजन से कही। रात भर सो न सका। सुबह दरबार में बैठा था उदास था मलिन चित था कि बात ही उसको चुभ गई थी चोट कर गई।बात तो ठीक कहता था कि अगर ये आदमी पागल है तो मैं कौन सा बुद्धिमान हूँ।किसे सुख मिला है संसार में?यही तो मैं भी खोज रहा हूँ।सुख संसार में मिलता नहीं अगर मिल सकता है तो ऊँट भी छत्त पर मिल सकता है। पर ये आदमी कौन है कैसे पहुँच गया छत्त पर फिर कहाँ भाग गया?
     इब्रााहीम इन्हीं विचारों में खोया सिंहांसन पर बैठा था तभी उसने देखा कि दरवाज़े पर कोई झंझट चल रही है एक आदमी भीतर आना चाहता है दरबान से कह रहा है कि मैं सराय में रूकना चाहता हूँ। दरबान ने कहा पागल हुये हो ये सराय नहीं सम्राट का महल है। बस्ती में सराय बहुत है वहां जाकर ठहरो। पर वो आदमी कह रहा है मैं इसी सराय मेंठहरूँगा मैं पहले भी यहाँ ठहरता रहा हूँ।सराय ही है तुम किसी और को बनाना। अचानक उसकी आवाज़ सुनकर इब्रााहीम को लगा कि आवाज़ तो वही है और ये वही आदमी है उसने कहा उसे भीतर लाओ हटाओ मत। वो भीतर लाया गया इब्रााहीम ने पूछा कि तुम क्या कह रहे हो?किस तरह की जिद कर रहे हो? ये मेरा महल है इसको तुम सराय कहते हो ये अपमान है। उसने कहा अपमान हो या सम्मान।एक बात मैं पूछता हूँ।मैं पहले भी यहाँ आया था लेकिन तब इस सिंहासन पर कोई और था इब्रााहीम ने कहा मेरे पिताश्री थे। उस फकीर ने कहा उसके पहले भी मैं आया था तब कोईऔर ही था।इब्रााहीम ने कहा वो मेरे पिता के पिता थे। तभी तो मैं इसे सराय कहता हूँ कि यहाँ लोग बैठते हैंआते हैं चलते जाते हैं।तुम कितनी देर बैठोगे?में निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि अगली बार मैं आऊँगा तो कोई और  ही बैठा  मिलेगा। इसलिये तो सराय कहता हूँ।ये घर नहीं है घर तो वही है जहाँ बस गये तो बस गये जहाँ से कोई हटा न सकेगा,जहाँ से हटना सम्भव नहीं इब्रााहीम सिंहासन से उतर गया कहा कि मैं आपको प्रणाम करता हूँ। ये सराये है आप ठहरें मैं चला जाता हूँ क्योंकि अब सराय में रुकने का क्या काम? इब्रााहीम फकीर हो गया।

Wednesday, February 17, 2016

परलोक में काम करने को नहीं मिला


     बेकार मबाश कुछ न कुछ तो किया कर।
जो सदा बेकार रहता है, काम से जी चुराता है और जो अकर्मण्य एवं आलसी है, उसका जीवन तो नारकीय जीवन होता है। इस विषय में एक विचारवान ने एक छोटी-सी कथा यूं लिखी है।
     एक दिन एक व्यक्ति ने अपने को परलोक में एकआलीशान कमरे में पाया। उसने इधर-उधर देखा,उसे वहां सब तरह का आराम नज़र आया। थोड़ी देर विश्राम करके जब उसका जी ऊब गया, तो उसने पुकारा-""अरे भाई!कोई है।'' तुरन्त ही सफेद वर्दी पहने एक अर्दली आ उपस्थित हुआ और बोला-""कहिये, आपको क्या चाहिये?''उस व्यक्ति ने पूछा-""यहां क्या-क्या मिल सकता है?''अर्दली ने उत्तर दिया-""यहाँ आप को सब चीज़ें मिलेंगी,जो भी आप चाहें।'' ""अच्छा! मुझे भूख लगी है,
कुछ खाने को ले आओ।''उस व्यक्ति ने कहा।
अर्दली बोला-""आप क्या खायेंगे?आप जो कुछ भी चाहें, मैं वही ला कर दे सकता हूँ।''
     उसकी इच्छानुसार भोजन प्रस्तुत हो गया और वह खा-पीकर सो रहा। कई दिन तक यही क्रम चलता रहा।जो कुछ भी वह खाने-पीने को माँगता,उसे ला दिया जाताऔर वह खा-पीकर या तो सो रहता या इधर-उधर घूमता रहता।अन्ततः उसका जी ऊबने लगा।उसनेअर्दली को बुला कर कहा-"'देखो, मैं कुछ काम करना चाहता हूँ।''अर्दली ने उत्तर दिया-""क्षमा कीजिए,आपकी इस इच्छा की पूर्ति नहीं हो सकती। यहाँ कोई काम नहीं है,जो आपको दिया जा सके।''वह व्यक्ति चुप हो गया। कुछ दिन तक उसका फिर वही क्रम चलता रहा। वह या तो खा-पीकर सो रहता था बेकार इधर-ऊधर घूमता रहता।आखिर परेशान होकर उसने अर्दली को बुलाया और कहा-""काम के बिना भी कोई जीवन है। मैं तो इस जीवन से तंग आ गया।अगर यहां कोई काम नहीं है,तो इससेअच्छा तो यही है कि मुझे नरक में भेज दो।'' जानते हैं, अर्दली ने क्या उत्तर दिया?उसका उत्तर था-"'आपका क्या विचार है?आप और हैं कहाँ?यही तो नरक है।''
     काम में संलग्न रहना ही वास्तव में जीवन है। जो व्यक्ति बेकार और निकम्मा रहता है, उसका जीवन नरक रूप बन जाता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। वह सदा रोगों चिन्ताओं और बे-आरामियों से घिरा रहता है।

Tuesday, February 16, 2016

मरने के बाद भी हँसा गया


     एक साधु हुआ। वह जीवन भर इतना प्रसन्न था कि लोग हैरान थे। लोगों ने कभी उसे उदास नहीं देखा,कभी पीड़ित नहीं देखा। उसके मरने का वक्त आया और उसने कहा कि अब मैं तीन दिन बाद मर जाऊँगा। और यह मैं इसलिए बता रहा हूँ कि तुम्हें स्मरण रहे कि जो आदमी जीवन भर हँसता था,उसकी कब्रा पर कोई रोये नहीं।यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि जब मैं मर जाऊँ तो इस झोंपड़े पर कोई उदासी नआये। यहां हमेंशा आनन्द था,यहां हमेशा खुशी थी। इसलिए मेरी मौत को दुःख मत बनाना, मेरी मौत को एक उत्सव बनाना।लोग तो बहुत दुःखी हुए, वह तो अद्भुत आदमी था। और जितना अद्भुत आदमी हो,उतना उसके मरने का दुःख घना था।और उसको प्रेम करने वाले बहुत थे, वे सब तीन दिन से इकट्ठे होने शुरु हो गये। वह मरते वक्त तक लोगों को हँसा रहा थाऔरअदभुत बातें कर रहा था।और उनसे प्रेम की बातें कर रहा था। सुबह मरने के पहले उसने एक गीत गाया। और गीत गाने के बाद उसने कहा, स्मरण रहे, मेरे कपड़े मत उतारना। मेरी चिता पर मेरे पूरे शरीर को चढ़ा देना कपड़ों सहित। मुझे नहलाना मत। उसने कहा था,आदेश था। वह मर गया।उसे कपड़े सहित चिता पर चढ़ा दिया। वह जब कपड़े सहित चिता पर रखा गया, तो लोग उदास खड़े थे,लेकिन देखकर हैरान हुए उसके कपड़ों में उसने फुलझड़ीऔर पटाखे छिपारखे थे।वे चिता पर चढ़ेऔर फुलझड़ीऔर पटाखे छूटने शुरुहो गये।और चिता उत्सव बन गयी।और लोग हँसने लगे।और उन्होंने कहा, जिसने ज़िन्दगी में हँसाया वह मौत में भी हमको हँसा कर गया।
     ज़िन्दगी को हँसना बनाना है। ज़िन्दगी को एक खुशी और मौत को भी एक खुशी। और जो आदमी ऐसा करने में सफल हो जाता है,उसकी साधना में इतनी तीव्र गति से वृद्धि होती है जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। वह अपने लक्ष्य में सफल हो जाता है।

Monday, February 15, 2016

सन और बिनौले का उदाहरण


     संसार में दो प्रकार के लोग मिलते हैं। पहली प्रकार के लोग सदा दूसरों का भला सोचते हैं। उनकी रूचि सदा परोपकार में रहती है। वे अपना सर्वस्व संसार के हित के लिए न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं। उनका जीवन ही जन-कल्याण के लिए होता है। एक बार एक मनुष्य ने बिनौले से पूछा-"अरे बिनौले, तुझे प्रकृति ने नरम नरम गद्दों से भीतर  लपेट कर पैदा किया और उस  पर सख्त हरा ढक्कन लगाया।
कितना सुन्दर रूप था तुम्हारा।तुझे क्या सूझी किअपने आपको बेलने में झोंक दिया और बर्फ जैसी सफेद कपास से अलग होकर नंगा हो गया। प्रकृति ने कितनी उज्जवल पौशाक दे दी थी,नंगा होने मेंतुझे क्या मिला? 'बिनौले ने उत्तर दिया-""मैं इसलिए बेलने की पीड़ा सहन करके नंगा हो जाता हूँ क्योंकि मैं ससार के लोगों का नंग नहीं देख सकता,न उनकी भूख देख सकता हूँ। उनको वस्त्र देने के लिए मैं अपने आपको बेलने में डालता हूँ और भोजन (घी,तेल) देने के लिए कोल्हू में फैंक देता हूँ। मुझ से दूसरों का अभाव सहन नहीं होता।''
        देखो बिनौला वापुड़ा मन का बड़ा जो धीर।
        खाल उतारे अपनी , पर  का ढके शरीर।।
जो लोग बिनौले की तरह परोपकारी होते हैं, वे सदा आदर के पात्र होते हैं। संसार सदा उनकी पूजा करता है और वे इतिहास में अमर पद प्राप्त करते हैं।
दूसरी प्रकार के लोग--
एक बार मैं खेतों में घूम रहा था। वहां सनुकड़े(सन) के पौधे उगे हुए थे। मैने एक पौधे से कहा-""भाई सनुकड़े,तेरा भी क्या जीवन है?किसान तुझे काटकर पूलियाँ बनाकर गन्दे जौहड़ में फैंक देता है। वहां तूं तीन चारमास तक पड़ा सड़ता रहता है।जोहड़ में तू दूरदूर तक बदबू फैलाता है। फिर निकाल कर तेरी छाल उधेड़ी जाती है। लोग रस्सियां रस्से,बना लेते हैं। तुझे ऐसा जीवन क्यों पसन्द है?''सनुकड़े ने कपट-भरी मुस्कान  से मेरी ओर ताकते हुये उत्तर दिया,""भाई,मैं संसार के जीवों को स्वतन्त्र घूमते देखना पसन्द नहीं करता।जब मैं किसी को रस्से रस्सियों से बन्धा देखता हूँ तो मेरा मन में शान्ति का अनुभव होता है। दूसरों को बन्धन में डालने के लिए ही सारा कष्ट सहर्ष सहन करता हूँ।''
           सन की देखों दृष्टता, करत न आवे लाज।
           खाल उतारे अपनी, पर  बन्धन के काज।।
दूसरी प्रकार के लोग सनुकड़े की भांति होते हैं। वे दूसरों को कष्ट देने के लिए अपने आपको कष्ट में डालना पसन्द करते हैं।वे सदा अपकार करने में रूचि रखते हैं। इन लोगों का जीवन संसार के लिए एक अभिशाप होता है।

Sunday, February 14, 2016

मुनि मंक


     योगवासिष्ठ में एक कथा आई है कि मुनि मंक एक बार दोपहर के समय रेतीले मैदान में से नंगे पाँव जा रहे थे। ग्रीष्म ऋतु,दोपहर की कड़कती धूप,ऊपर नीचे ही आग बरस रही थीऔर उनका सम्पूर्ण शरीर इस आतप से झुलसा जा रहा था। वे चाहते थे कि निकट के गाँव में पहुँचकर कुछ देर आराम करें। अकस्मात उसी समय मार्ग में ही वसिष्ठ जी मिल गये और उन्होने उस गांव में जाने से मना किया, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि उस गांव में मनमुखों का वास है।
     वसिष्ठ जी ने फरमाया कि इस मरुस्थल के आतप से तो आपका यह शरीर ही जल रहा है,परन्तु इन मनमुखों की संगति करने से आपकी आत्मा पर जो माया का आवरण पड़ जायेगा, उससे आपकी आत्मा को न जाने कितने दीर्घ समय तक जन्म मरण की अग्नि में जलना पड़ेगा। अंधेरी गुफा में सर्प बन कर रहना, पत्थर की शिला में कीड़ा होकर रहना अथवा मरुस्थल में लंगड़ा हिरण बनकर चलना इतना बुरा नही,जितना कि मनमुखों की संगति करना बुरा है। भाव यह कि बुरी संगति का प्रभाव बहुत बुरा निकलता है। वसिष्ठ जी महाराज के सत्संग के वचन सुन कर मुनिमंक जी के मन को शान्ति मिलीऔर उस, गर्म लू के दुःख को मालिक की दात समझ कर,उसे प्रसन्नतापूर्वक झेलते हुये और वाह-वाह करते हुये अपने मार्ग पर बढ़ते गये और सकुशल अपने आश्रम पर जा पहुँचे।

Saturday, February 13, 2016

ऐ साधक, मन को मरा मत समझना


    मैं जाना मन मर गया मन न मोया जाय।
         वरषा भई कुसंग की दादुर ज्यों बिल्लाय।।
     दादुर मेंढक को कहते हैं उसके लिये प्रसिद्ध है कि मेंढक मर जाय, सूख जाये, मार्ग में आने जाने वाली गाड़ियों के नीचे आकर पिस जाये टुकड़े टुकड़े हो जाय किन्तु ज्यों ही वर्षा होती है तो कण कण से एक एक मेंढक पैदा हो जाता है इसी तरह पापी मन पर भरोसा रखना बड़ी भारी भूल है यह भी तब तक शान्त रहता है जब तक जीव अपने को माया से बचा कर रखे।
     एक महात्मा जी बिल्ली के सिर पर दीया जलाकर रखते थे और उसी के प्रकाश में पुस्तक पढ़ते और जिज्ञासुओं को कथा सुनाया करते। जब तक कथा समाप्त नहीं होती थी,महात्मा जी स्वयं अपने हाथ से दीपक उठा नहीं लेते थे, तब तक वह बिल्ली एक आसन पर अडोल(एकाग्र चित) होकर बैठी रहती थी। एक दिन एक समझदार सत्संगी ने सोचा कि इस बिल्ली की परीक्षा लेनी चाहिये वह घर से एक चूहा पकड़ कर दूसरे दिन साथ में ले आया। जब कथा आरम्भ हुई तो उसने चूहा छोड़ दिया। ज्यों ही वह चूहा बिल्ली के आगे से निकला तुरन्त बिल्ली की समाधी भँग हुई और वह उस चूहे के पीछे लपकी दीपक गिर गया और बुझ गया। यह मन भी ऐसा ही धोखेबाज़ है इसको सदा ही विषय विकारों से बचा कर रखना चाहिये। मन से सदा सतर्क रहना चाहिये।
    अक्सर साधकों के मन में यह प्रश्न उठता है कि कब तक साधना करें? कब उन्हें आत्मसाक्षात्कार होगा?  कई साधक तो कुछ सत्संग करके और शास्त्र पढ़कर यह समझ लेते हैं कि अब उन्हें ज्ञान हो गया है,सिद्ध हो गये हैं,ऐसा सोचकर साधन छोड़ देते हैं। इसका फल यह होता है कि वे अपनी स्थिति से गिर जाते हैं। क्योंकि मन को ज़रा भी अवकाश मिलता है तो यह पुनः विषयों के लिये मचल उठता है। जैसै घर में धूल अपने आप आ जाती है परंतु अपने आप धूल निकलती नहंी उसे निकालने के लिये झाड़ू लगाना पड़ता है। उसी प्रकार मन में बुराइयां अपने आप प्रवेश कर जाती है। लेकिन अपने आप निकलती नहीं। उन्हें निकालने के लिये साधन करना पड़ता है। इसलिये साधन भजन कभी छोड़ना नहीं चाहिए। ज्ञान होने के बाद भी ब्राहृनिष्ठा के लिये अभ्यास करना पड़ता है। उड़िया बाबा महाराज कहा करते थे कि ज्ञान होना आसान है लेकिन ज्ञाननिष्ठा कठिन है। उसके लिये अभ्यास की आवश्यकता है। बिना अभ्यास के मन वश में नहीं आता। उड़िया बाबा से एक साधक ने प्रश्न किया कि कब समझें के हम सिद्ध हो गये या हमें ज्ञान हो गया? तो वे बोले जब चित्त विषयों की ओर न जाए और संसार के विषय फीके लगने लगें। मन में राग-द्वेष का अभाव हो जाए। भगवान के सिवाय और कुछ मीठा न लगे। निरन्तर भगवान की सहज स्मृति मन में उदय होने लगे तब समझों सिद्धि  प्राप्त हुई। योग वशिष्ठ में भी ज्ञान के बाद वासनाक्षय के लिये भूमिकायें बतायी गयी हैं। ज्यों ज्यों वासना का क्षय होता है वैसे वैसे ब्राहृानन्द के विलक्षण सुख की प्राप्ति होती है।

Friday, February 12, 2016

धाटम चोर


     मीना जाति का एक भक्त था घाटम।उसका व्यवसाय ही यह था कि चोरी-डकैती से जो कुछ मिले उससे गुज़ारा करना। एक दिन एक उच्च कोटि के महात्मा से घाटम की भेंट हो गई। महात्मा जी ने पूछा कि महाशय!तुम कौन हो और क्या काम करते हो? उसने कह दिया कि मैं डाके डाला करता हूँ और लोगों को लूट-पाट करके अपनी उदरपूर्ति कर लेता हूँ।महात्मा जी ने सह्मदय भाव से कहा कि यह धन्धा छोड़ कर कोईऔर साधनअपना लो तो बहुतअच्छे बन जाओगे-क्यों व्यर्थ में दूसरों का खून चूसकर अपना पेट पालते हो?घाटम ने विनय पूर्वक उत्तर दिया महात्मा जी! यह हमारा पिता-दादाओं का दिया हुआ व्यवसाय है इसे कैसे छोड़ा जा सकता है। मैं और कुछ कर ही क्या सकता हूँ। महात्मा जी उसका ऐसा स्पष्ट उत्तर सुन कर चुप हो गये और थोड़ी देर रूक कर फिर बोलेः-
     देखो,हम तुम्हें इस चोरी-डकैती के काम से रोकना नहीं चाहते तुम यही व्यवसाय करो परन्तु हमारी चार बातें मान लो। इनकेअऩुसार चलने का पूरा प्रयत्न करते जाओगे तो भी तुम्हारे जीवन में सुन्दर परिवर्तनआ जाएगा।घाटम ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि मैं इतनी बात तो मान सकता हूँ।वे चार बातें कौन सी हैं मुझे बता दीजिये, सुनो पहली बात तो यह कि जो बात हो सच सच कहना-कभी असत्य न बोलना दूसरा सन्त महात्मा जनों की सेवा करना-तीसरा जो कुछ भी खाना पहले उसे अपने इष्टदेव जी के अर्पण कर लेना।चौथी बात यह कि आरति जहाँ भी होती हो उनमें अवश्य जाना।अब घाटम महात्मा जी के वचनअनुसार उन चार बातों को अपने जीवन में ढालने लगा। समय की बात होती है-अच्छे सात्विक संस्कारों के उदय होने का वक्त भी आ चुका था।
     एक दिन उन्हीं महात्मा जी ने घाटम को सन्देश भिजवाया कि हमारे स्थान पर आज महोत्सव है तुमअवश्य पहुँचो। घाटम ने पत्र पढ़ा और विचार किया कि वह स्थान जहाँ मुझे ग्यारह बजे पहुँचना है सात मील दूर है और इस समय साढ़े दस बजा चाहते हैं,श्री महात्मा जी को रुष्ट भी नहीं करना चाहता परन्तु जाऊँ कैसे!पैदल जाने का काम नहीं। घाटम में सत्यव्रत का पालन करने से निर्भयता आने लगी थी। वह निश्शंक होकर  राजा की  घुड़साल में घुस गया। ज्यों ही द्वार से अन्दर जाने लगा द्वारपालों ने उसे रोककर पूछ लिया,तुम कौन हो जो इस तरह बिना पूछे अन्दर घुसे जा रहे हो? घाटम ने बिना किसी हिचकिचाहट के कह दिया कि मैं चोर हूँ। वे सोचने लगे कि यह चोर भी कैसा है? जो अपने को साफ साफ चोर बता रहा है, चोर नहीं होगा-राजदरबार का कोई आदमी होगा जो इस तरह निःसंकोच भीतर चला गया है।
     घाटम ने एक मनपसन्द घोड़ा छाँटाऔर उसपर सवार होकर सर्राटे से चल दिया।मार्ग में एक स्थान परआरति हो रही थी-वह भक्त घोड़े को बाहर कहीं पेड़ के साथ बाँधकर आरति में चला गया। उधर घुड़साल के पहरेदारों को जब वास्तविकता का पता लगा तो वे घुड़सवार सिपाहीघोड़े के पद-चिन्ह देखते हुए वहाँ जा पहुँचे। देखते क्या हैं कि घोड़ा बाहर पेड़ से बँधा है और वह महाशयअन्दर आरति में मग्न हैं। जब घोड़े पर दृष्टि गई तो चकित हो गये यह देखकर कि हमारा घोड़ा तो श्वेत था और यह है काला घोड़ा!सत्य है जो शक्ति सम्पूर्ण विश्व का संचालन किया करती है और सबको निर्बन्ध करने वाली है वह अपने प्रेमी को बन्धन में कैसे डाल सकती थी!उसी ने घोड़े का रंग बदल दिया।आरति समाप्त होनेपर घाटम बाहर आया-वह ज्यों ही घोड़े पर सवार होने लगा तो सिपाहियों ने कहा कि तुम यह घोड़ाअश्वशाला से चुराकर लाये हो तुम राजा के पास चलो। घाटम ने कहा कि अब तो मैं अपने गुरुमहाराज जी के आश्रम में महोत्सव पर जा रहा हूँ- तुम ने भी साथ चलना हो तो चलो। वहाँ से लौट कर जब आऊँगा तब मुझे राजा के पास ले चलना।
     सत्यवादी भक्त घाटम लौट कर आया और सिपाहियों को साथ लेकर राजदरबार में पहुँचा। महाराज  को  सारी गाथा अथ से इति तक कह दी।राजा प्रसन्न हुए और कहा कि तुम्हें जो कुछ चाहिये मुझसे माँग लो। घाटम ने इतना ही कहा कि मैं जब कभी गुरुदर्शनों के लिये जाया करूँगा तो आप की अश्वशाला से एक घोड़ा ले लिया करूंगा-इस प्रकार गुरुदेव जी के बताए हुए सन्मार्ग का अनुसरण करते हुए भक्त घाटम जीवन्मुक्त हो गया।
     यह है सत्य पुष्प की सुगन्धि जिस के सूँघने से एक डाकू भी सच्चरित्र और सत्य प्रिय बनकर शेष सभी दुवर््यसनों से विमुक्त होकर सुशील संयमीऔर सदाचारी बनगया। सत्य की नाव पर सवार होकर घाटम ने राजा तक को भी अपना सेवक बना लिया।

Thursday, February 11, 2016

चित्रकार को पर्स देना चाहा


इस जगत में जो भी आपकी दशा है, वह आपकी ही वासना के कारण है। वासना का अर्थ है, जो मिला है उससे हम तृप्त नहीं। जो है उससे हम तृप्त नहीं। हम अस्तित्व से कहते हैं कि इतना काफी नहीं,यहऔर चाहिए यह और चाहिए। अस्तित्व से हमारी मांग है कि हम तृप्त होंगे तब,जब यह सब हो जाये।अस्तित्व ने जो दिया है,उससे हम राजी नहीं। और अस्तित्व ने सब दिया है। जीवन दिया है और जीवन के अनूठे रहस्य दिये हैं और जीवन का परम आनन्द छिपा रखा है भीतर आपके। लेकिन वह खुलेगा तब जब आप राजी हो जायें अस्तित्व से।आपको तो उसे देखने की फुर्सत ही नहीं कि अस्तित्व ने क्या दिया। आप तो माँग किये जा रहे हैं,कि ये दो वो दो,इस देने की माँग में वह छिप ही गया है, जो दिया ही हुआ हैऔर आपको पता नहीं,जो आप मांग रहे हैं,वह कुछ भी नहीं है।जो आपको मिला ही हुआ है,उसके सामने जो आप मांग रहे हैं वह कुछ भी नहीं।
        एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया। चित्र बन गया,तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी। वह बहुत खुश थी चित्रकार से उसने कहा, कि क्या उसका पुरस्कार दूँ?चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे,मांगे भी तो कितना मांगे?हमारी माँग गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से। हम जो मांग रहे हैं वह क्षुद्र है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए। तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर माँगूं दो सौ डालर मांगू, पाँच सौ डालर मांगूं। फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी। फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूँ,शायद ज्यादा दे।डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूँ पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर। तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्ज़ी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स था, उसने कहा, अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो।यह बड़ी कीमती पर्स है।पर्स तो कीमती था लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या?माना कि कीमती हैऔर सुन्दर है,पर इससे कुछ आता जाता नहीं। इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते। तो उसने कहा,नहीं नहीं मैं पर्स का क्या करूँगा,आप कोई सौ डालर दे दें। उस महिला ने कहा तुम्हारी मर्ज़ी।उसने पर्स खोला,उसमें एक लाख डालर थे,उसने सौ डालर निकालकर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर वह चली गयी। चित्रकार अब तक छाती पीट रहा हैऔर रो रहा है,मर गये मारे गये, अपने से ही मारे गये।आदमी करीब करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है,और हम मांगे जा रहे हैं, दो दो पैसे, दो दो कौड़ी की बात और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है।

Wednesday, February 10, 2016

कलयुग से भेंट


     अमृत वेला (तीन बजे से लेकर छः बजे तक का समय)जिसे रात्री का चौथा पहर भी कहते हैं मानव शरीर को पाकर जीव का कर्तव्य है कि वह अमृत वेले में प्रभु सुमिरण में अपना चित्त लगाये। इस समय में संसार में नीरवता छाई होती है। कोलाहल से मुक्त एकान्त शान्त वातावरण में प्रभु भक्ति में मन अनायास ही स्थिर हो जाता है अतः जो इस समय निद्रा, आलस्य और प्रमाद त्याग कर प्रभु सुमिरण में मन लगाता है वह अक्षय सुख और आनन्द की निधि को प्राप्त करता है। परन्तु निद्रा आलस्य और प्रमाद के कारण ये जीव उस अक्षय सुख और आनन्द से वंचित रह जाता है क्योंकि मायाऔर काल यह नहीं चाहते कि जीव इनके पंजे से मुक्त हो जाये। वह जीव को प्रभु की ओर जाने नहीं देते। काल और माया विशेषतः अमृत वेले में ही जीव पर आलस्य प्रमाद और नींद की चादर डाल देते हैं ताकि जीव प्रभु सुमिरण करके परमात्मा से एकाकार न कर सके।
       एक बार श्री गुरुनानकदेव जी महाराज बाला और मर्दाना के साथ जीव कल्याण हेतु संसार में विचरण कर रहे थे। किसी निर्जन रमणीक वन में पहुँचे। उस समय कलयुग मानव वेष में छेदों से युक्त चादर औढ़े श्री गुरुनानकदेव जी के पास आया और विनय की। महाराज, मैं कलयुग हूँ।कलयुगी जीवों को माया में भरमा कर प्रभु मिलन के मार्ग में बाधा डालना मेरा काम है। जीवों की सुरती का नाता प्रभु से तोड़ कर माया की तरफ लगाना मेरा काम है। लेकिन आपजीवों को प्रभु प्राप्ति के मग पर अग्रसर करने के लिये अनथक प्रयास कर रहे हैं कठिनार्इंयां झेल रहे हैं मेरी आपसे विनय है कि आप जीवों को प्रभु से जोड़ने का कार्य छोड़ देें तो मैं आपको सारी पृथ्वी का राज्य दे दूँगा।आपको संसार के सारा सुख ऐश्वर्य,हीरों जवाहरात से जड़े भव्य महल, ऋद्धियाँ सिद्धियाँ दूँगा।आप सुख ऐश्वर्य से युक्त जीवन व्यतीत कीजिए परन्तु इस मार्ग को छोड़ दीजिए।श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया कलयुग यदि तेरा काम प्रभु से सम्बन्ध तोड़ने का है तो हमारा काम प्रभु से जोड़ने का है। तू हमें सांसारिक सुखों का लोभ दिखा कर हमें कर्तव्य से विमुख करना चाहता है।तू पहले अपना कर्तव्य पथ तो छोड़। पीछे हमसे कुछ कहना।और सुन,जो प्राणी भी सतपुरुषों की शरण में आएगा और उन के वचनों पर अमल करेगा उस पर तेरा प्रभाव न चल सकेगा।सन्त जन अपने कार्य में निरत हैं तो तू अपना काम करता जा। परन्तु सन्तों के सन्मुख अपनी न चलाना। कलयुग नतमस्तक हो वहां से चला गया। तब मर्दाना ने बाबा जी से विनय की महाराज यह मानव तो हीरे मोतियों के महल बनाकर दे रहा था ऋद्धियां सिद्धियाँ आदि सब कुछ देने को कह रहा था। लेकिन मुझे आश्चर्य ये है किआपको इतना धन पदार्थ देने को तैयार था परन्तु जो उसने चादर औढ़ी हुई थी उसमें तो सैंकड़ों छेद थे। कंगाल भला कुबेर का खज़ाना कैसे दे सकता है?जिसके पासओढ़ने के लिये पूरी चादर नहीं वह दूसरों को क्या देगा?बाबा जी ने फरमाया अभी वह मार्ग में ही होगा  उसके पास जाकर इस संशय का निवारण स्वयं ही कर ले। श्री आज्ञा पाकर मर्दाना अभी थोड़ी ही दूर गया था वह मानव नज़र आया मर्दाना ने आवाज़ लगाई-भले मानस, ज़रा ठहरो और कृप्या मेरे संशय का निवारण तो करते जाओ। कलयुग ठहर गयाऔर मर्दाना ने कहा।आप हमारे गुरुदेव को हीरे मोती,भव्य महल आदि दे रहे थे। लेकिन आपने स्वयं जो चादर ओढ़ी हुई है वह तो छेदों से युक्त है। जिसके पास ओढ़ने के लिये पूरा कपड़ा भी नहीं वह दूसरों को कैसे इतना खज़ाना दे सकता है?उस मानव ने कहा मर्दाना मैं कलयुग हूँ मेरा काम प्रभु से प्रीत जोड़ने वालों की प्रीत तोड़ना है।अमृत वेले में योगीजन प्रभु के प्यारे भक्त सुमिरण ध्यान करते हैं उस समय सुरति अनायास ही शब्द में एकाग्र हो जाती है। उस समय में सारे संसार परआलस्य प्रमाद और निद्रा की चादर डाल देता हूँ ताकि कोई उठकर भजन सुमिरण न कर सके। लेकिन जो सौभाग्यशाली गुरुमुख जन जीव सतपुरुषों की शरण में आ जाते हैं उनके सतउपदेशों पर चलते हैं वे आलस्य और निद्रा को त्याग कर मेरी इस चादर में छेद करके बाहर निकल जाते हैं और सुमिरण ध्यान में लग जाते हैं प्रभु के नाम के अमृत रस का पान करके अमर हो जाते हैं। इस चादर में जितने भी छेद हैं उन  प्रभु प्रेमियों द्वारा किये गये हैं।

Tuesday, February 9, 2016

महापुरुषों के एक ईशारे से जीव कल्याण


सतपुरुष श्री गुरुनानक देव जी की जन्म साखी में एक साखी का वर्णन मिलता है कि एक बार श्री गुरुनानकदेव जी महाराज बाला और मरदाना के साथ एक गाँव के बाहर पेड़ के नीचे विराजमान थे।प्रभु कीर्तन हो रहा था सर्दियों के दिन थे शाम का समय था एक सौदागर अपने कम्बल व
खेस लेकर उधर से निकला। प्रभु कीर्तन की ध्वनि सुनकर समीप पहुँचा। सतपुरुषों के दर्शन किये उन्हें दण्डवत प्रणाम करके वहीं प्रभु कीर्तन श्रवण
करने का आनन्द लेने लगा।जब कीर्तन समाप्त हुआ तो उसने श्री चरणों में विनय की हे सच्चे पादशाह सर्दी बहुत पड़ रही है ये कम्बल ग्रहण करें। मेरी सेवा स्वीकार करें। श्री गुरुनानक देव जी ने फरमाया कि प्रेमी इन कम्बलों को हम कहाँ उठाते फिरेंगे हमें इनकी आवश्यकता नहीं है लेकिन उसके बार बार आग्रह करने पर कम्बल ले लिये वह सौदागर कम्बल भेंट करके नाम दीक्षा व आशीर्वाद प्राप्त करके चला गया। थोड़ी ही देर में एक दुर्जन व्यक्ति आया उसने देखा कि ये साधु लोग हैं इनके पास नयेऔर बड़े कीमती कम्बल हैं। इनसे छीन लेने चाहिये। संसार में हर प्रकार के जीव होते हैं दुर्जन भी सज्जन भी।महापुरुषों को तो सभी का निस्तार करना होता है उनका रूप ही परमार्थ रूप होता है। जगत कल्याण के लिये ही संसार में आते हैं उस दुर्जन व्यक्ति ने उनसे कहा कि आप ये कम्बल मेरे हवाले कर दो नहीं तो उचित नहीं होगा।रोब दाव जमाने लगा।श्री गुरुनानक देव जी ने फरमाया भाई।कम्बल तो तू भले ही ले ले परन्तु तुझे मालूम है देख कितनी सर्दी पड़ रही है कम से कम हमें कहीं से आग तो ला दे ताकि हम आग जलाकर ताप कर ही गुज़ारा कर लेंगे।पहले तो वह न माना कि आप चले जायेंगे मुझे धोखा दे रहे हैं। फिर भी उसने कहा अगर आप आग चाहते हैं लेकिन मैं आग कहाँ से लाऊं?आग इस समय अब कहाँ से मिलेगी। सत पुरुष श्री गुरुनानकदेव जी ने हाथ का इशारा करके फरमाया कि वो सामने देख एक चिता जल रही है उसी में से आग ले आओ। जब आग लेने के लिये जलती चिता के पास गया तो उसने देखा कि विष्णु पार्षदों मेंऔर यम दूतों में झगड़ा हो रहा है।यमदूतों का कहना था कि इसने(जिसकी चिताजल रही थी)अपनी ज़िन्दगी में कोई शुभ कर्म नहीं किया कभी सतसंग श्रवण नहीं किया इसलिये ये यमलोक ले जाने के योग्य है इसे हम ले जायेंगे परन्तु विष्णु पार्षदों का कहना था कि इसकी तरफ अभीअभी सतपुरुषों ने इशारा
किया है इसलिये ये विष्णु लोक में जाने का अधिकारी है इसे आप नहीं ले जा सकते हम ले जायेंगे। जब उन दोनों का झगड़ा उसने सुना तो सोचने लगा कि जिन सत्पुरुषों केएक इशारे से ही देह त्याग के पश्चात भी आत्मा ये रूह विष्णुलोक को जा रही है।तो अगर इन महापुरुषों की शरण में जाने से उनका सतसंग श्रवण करने से कितना लाभ प्राप्त होगा?मैं भी कितना अधम हूँ जो ऐसे महापुरुषों की सेवा न करके उल्टा उनसे कम्बल छीनकर उन्हें कष्ट देना चाहता हूँ।धिक्कार है मुझे।वह अपनेआप में पश्चातापकरता हुआ वापिस लौट आया श्रीचरणों में दण्डवतप्रणाम कर अपने अपराधों की क्षमा माँगने लगा।विनय करने लगा कि प्रभो मैने अपनी ज़िन्दगी मे कोई शुभ कर्म नहीं किया मेरा निस्तार कैसे होगा। आप अगर कृपा करें तो मेरा निस्तार हो सकता है।मुझपर कृपा करके सतमार्ग दर्शायें सतपुरुषों ने उसकी अचल निष्ठा देखकर उसे नाम दान देकर कृतार्थ कर दिया।

Monday, February 8, 2016

शेख सादी साहिब के पास जूते नहीं थे


     शेख सादी साहिब जी एक बार कहीं जा रहे थे। उस समय उनके पाँव में जूते नहीं थेऔर न ही उनके पास पैसेथे कि वे जूते खरीद सकें। वेअपनी इस स्थिति पर दुःखी हो रहे थे कि मार्ग में चलते चलते उनकी दृष्टि एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी,जिसकी दोनों टाँगें नहीं थीं। यह देखते ही शेष सादी साहिब घुटनों के बल वहीं बैठ गए और पश्चाताप करते हुए भगवान के चरणों में प्रार्थना करने लगे-हे मेरे मालिक! यदि तू मुझे भी ऐसा ही बना देता,तो मेरा क्या वश चलता?तेरा लाख लाख धन्यवाद है कि तूने मुझे टाँगे तो दे रखी हैं जिनसे मैं भलीप्रकार चल फिर सकताहूँ।
     इसी तरह ही सांसारिक धन पदार्थों की दृष्टि से भीअपने से नीचे वालों को देखना चाहिए और हर समय प्रभु का उपकार मानना चाहिए कि मुझे प्रभु ने उनसे अधिक धन पदार्थ दे रखे हैं। यदि अपने से ऊँची स्थिति वालों को मनुष्य देखेगा, तो हाय हाय करते हुए ही जीवन व्यतीत होगा। उसे यह विचार करना चाहिए कि भगवान ने उसे जो सुख-सुविधा के सामान दे रखे हैं,यहि वह न देता,तो उसका क्या वश चल सकता था और यदि अब भगवान सब ले ले,तब भी वह क्या कर सकता है?
          दस बसतु ले पाछै पावै। एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै।।
          एक भी न देइ दस भी हिरि लेई।तउ मूड़ा कहु कहा करेइ।।
          जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा। ता कउ कीजै सद नमस्कारा।।
सतपुरुष फरमाते हैं कि मनुष्य को परमात्मा जो दस वस्तुएँ देता है, उन्हें तो वह चुपचाप संभाल लेता है, उनके लिए तो वह भगवान को धन्यवाद तक नहीं देता, परन्तु एक वस्तु के लिए भगवान के प्रति अपना विश्वास
गँवा लेता है। यदि परमात्मा वह एक वस्तु भी न दे और दी हुई दस वस्तुएं भी वापिस ले ले, तो बताओ! अज्ञानी जीव क्या कर सकता है? इसलिए जिस भगवान के सामने पेश नहीं चल सकती, उस भगवान ने जो कुछ दे रखा है, उसी में सन्तुष्ट रहते हुए सदा भगवान के आगे सिर झुकाना चाहिए और उसके उपकारों को स्मरण करना चाहिए, यही गुरुमुख पुरुष के लक्षण हैं। ऐसे गुरुमुख ही सदा प्रसन्न रहते हैं।

Sunday, February 7, 2016

बन्दीछोड़


छठी पादशाही श्री हरिगोबिन्द साहिब जी के बढ़ते हुये यश को देखकर चन्दू हर समय अपने मन में ईष्र्या-द्वेष की अग्नि में जलता रहता था। एकबार उसनेआगरा के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी को लालच देकर इस बात पर राज़ी कर लिया कि वह बादशाह जहांगीर के पास जाये और रमल फेंककर अथवा किसी अन्य प्रकार से उसे यह विश्वास दिलाये कि बादशाह के ऊपर साढेसाती आने वाली है। यह साढ़ेसाती बादशाह पर बहुत भारी है।जिसमें बादशाह के प्राण जाने का भी भय है।जब बादशाह इस साढ़ेसाती से बचने का उपाय पूछे,तो उससे यह कहे कि श्री गुरुहरि गोबिन्द साहिब जी को चालीस दिन ग्वालियर के किले में नज़रबन्द किया जायेऔर उनसे यह कहा जाये कि वे बादशाह के कुशल क्षेम के लिये मालिक के आगे प्रार्थना करें।ज्योतिषी लालच में आ गया।चन्दू के कहेअनुसार वह बादशाह के पास गयाऔर उसे साढ़ेसाती का भय दिखा कर कहा कि यदि आप गुरु हरिगोबिंद साहिब को चालीस दिन के लिये ग्वालियर के किले में रखेंऔर वे वहां रहकरआपके लिये मालिक से प्रार्थना करें,तोआपका कष्ट टल सकता है।बादशाह बहकावे में आ गया। उसने गुरुमहाराज जी से विनय की कि आप चालीस दिन ग्वालियर के किले में रहकर मेरे स्वास्थ्य के लिये मालिक से प्रार्थना करें। महापुरुषों की प्रत्येक कार्यवाही जीवों के हित एवं कल्याण के लिये ही होती है। उनके प्रत्येक कार्य में कोई न कोई रहस्य छिपा होता है, जिसे वे स्वयं ही जानते हैं, साधारण जीव उन रहस्यों को क्योंकर जान सकते हैं? श्री गुरुमहाराज जी ने किले में जाना स्वीकार कर लिया।ग्वालियर के किले में उनदिनों बावन राजा कैद थे,जिन्हें अकबर ने किले में नज़रबन्द किया थाऔर जो अब तक वहीं कैद थे।वे जीवन से पूरी तरह निराश हो चुके थे और दुःखों चिंताओं में घुल-घुल कर उनके शरीर अस्थिपिंजर मात्र रह गये थे।श्रीगुरुमहाराज जी के किले में पदार्पण करते ही वहां सतसंग की पवित्र-निर्मल धारा प्रवाहित होने लगी।महापुरुषों के पावन दर्शन कर के तथा उनके कल्याणकारी वचनों को श्रवण करके मुर्दा शरीरों में फिर से जान पड़ गई।उनकी सब चिंतायें,दुःख तथा कष्ट काफूर हो गये। वही किला जो पहले उनके लिये बन्दीगृह था,महापुरुषों के वहां चरण डालते ही अब बैकुण्ठ से भी अधिक सुखदायी बन गया। सभी गुरुमहाराज जी के सेवक बन गये और उनके दर्शन एवं सतसंग के अमृत पान करने के साथ-साथ उनके वचनानुसार नाम का सुमिरण करने लगे। इसी प्रकार कई महीने बीत गये।
     इधर बादशाह जहांगीर को वास्तव में ही रोगों ने घेर लिया और धीरे-धीरे उसका स्वास्थ्य बहुत गिर गया। तब लाहौर के सूफी फकीर मियांमीर ने दिल्ली आकर बादशाह को समझाया कि यह सारा कष्ट तुम्हारे ऊपर इसलिये आया है, क्योंकि तुमने दुष्ट लोगों के बहकावे में आकर गुरु हरिगोबिंद साहिब को, जो कि पूर्ण महापुरुष हैं, ग्वालियर के किले में नज़रबन्द कर दिया।आज इस बात को कई महीने हो गये।
     यदि भलाई चाहते हो, तो उन्हें तत्काल सम्मानपूर्वक रिहा कर दो। जब बादशाह ने गुरुमहाराज जी की रिहाई का सन्देश भेजा,तो गुरु महाराज जी ने उत्तर में बादशाह को कहलवा भेजा कि हमारे साथ इन सब राजाओं को भी स्वतन्त्र करो तो ठीक अन्यथा हम भी इस किले से बाहर नहीं जायेंगे। तब बादशाह ने दोबारा सन्देश भिजवाया कि जितने राजा आपके चोले को पकड़ लेंगे,वे सब आपके साथ बाहर जा सकेंगे। तब गुरुमहाराजजी ने बावन कलियों वाला चोला बनवाकर पहन लिया। प्रत्येक राजा ने एक एक कली पकड़ ली और गुरुमहाराज जी की कृपा से कैद से मुक्ति प्राप्त की।
     महापुरुष तो संसार मेंअवतरित ही इसीलिये होते हैं ताकि वे जीवों को दुःखों, कष्टों तथा चिंताओं की ज्वाला से निकाल कर,चौरासी की कैद से छुड़ाकर,उन्हें सुख एवं आनन्द प्रदान करें और उन्हें हर प्रकार के बन्धन से मुक्ति दिलायें।इसलिये यदि सुख और आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुये जीवन का सच्चा लाभ प्राप्त करने की इच्छा है, तो फिर सच्चे सेवक बनो। मनमति का त्याग कर सद्गुरु की आज्ञा अथवा वचन को दृढ़तापूर्वक पकड़ लो,श्री आज्ञा को श्रद्धापूर्वक ह्मदयंगम कर ह्मदय से उसकी पालना करो। इसी में जीवन का सच्चा लाभ और परम कल्याण है।                 

Friday, February 5, 2016

नेक कमाई ही फलती फूलती है।


संसार में रहते हुए सच्चाई, सदाचार तथा संतोष पूर्वक जीवन यापन करने का उपदेश देते हुए श्री परमहँस दयाल जी ने एक बार वचन फरमाये कि नेक कमाई बहुत फूलती फलती है।
     एक कथा है कि मारवाड़ के किसी गाँव में एक पठान और एक ब्रााहृण आपस में बड़े मित्र थे।खर्च आदि की तंगी से दुःखी होकर दोनों ही रोज़गार की खोज में दिल्ली चले आये।पठान ने तो शाही बावर्चीखाने
में नौकरी कर ली जहाँ वेतन के अतिरिक्त नाना-प्रकार के स्वादिष्ट खाने मिलते थे।इसके अतिरिक्त ऊपरीआमदनी भी काफी थी।अतः थोड़े समय में ही वह खूब ह्मष्ट-पुष्ट और धनवान हो गया। ब्रााहृण बेचारा किसी वज़ीर के यहाँ खाना पकाने पर मुलाज़िम हो गया। वज़ीर साहिब कुछ दस्तकारी करते थे और उससे जो कुछ पैदा होता, उसी से उनकी रसोई का खर्च चलता था। केवल एक प्रकार की दाल और रोटी ही उनकी रसोई में पकती थी। ब्रााहृण को वेतन भी हर महीने नहीं मिल पाता था तथा भोजन भी पौष्टिक नहीं था अतः वह कमज़ोर हो गया।
     जब दोनों मित्र आपस में मिलते तो पठान उस ब्रााहृण से मज़ाक करता कि तुमने कैसे कंजूस के यहाँ नौकरी की है। यह सुनकर ब्रााहृण चुप रहता। मन ही मन वह ऐसी शान्ति और सन्तोष अनुभव करता कि उसे कभीअधिक धन कमाने का लालच पैदा ही नहीं हुआ।पठान ने जब खूब धन एकत्र कर लिया तो वहां से अवकाश लेकरअपने घर जाने का विचार किया।यात्रा की तिथि निश्चित करके ब्रााहृण से भी पूछा कि यदि तुम्हारा विचार हो तो मेरे साथ चलो। ब्रााहृण ने वज़ीर साहिब से विदा मांगी परन्तु उन्होंने स्वीकार न किया।जब चलने का दिनआया तोब्रााहृण ने विनय की,""हुज़ूर! मेरा एक मित्र घर जा रहा है। यदि आज्ञा हो तो बच्चों के लिए कुछ भेज दूँ?''वज़ीर साहिब ने जेब में हाथ डाला।संयोग से उस समय केवल दो पैसे उनकी जेब में थे। वे उन्होने निकाल कर ब्रााहृण को दे दिये। गरीब ब्रााहृण बड़े आदमी से क्या कह सकता था। कहर दरवेश बर जान दरवेश। खामोश हो गया,सोचा कि मित्र से जाकर मिल तो लें। बाज़ार से गुज़र रहा था कि अनार बिकते हुये दिखाई पड़े।
सोचा कि मारवाड़ में अनार बिल्कुल नहीं होते, यही भेज देने चाहियें। दो पैसों में दस बारह अनार मिल गये। वह ले जाकर उसने अपने मित्र को दे दिये और सारा वृत्तान्त सुना दिया।
     पठान यात्रा करते करते जब मारवाड़ पहुँचा तो किसी बड़े शहर में रात्रि को ठहरा।वहाँ सराय में चोरों ने उसका सारा धन-माल चुरा लिया। अनार कपड़े में बँधे हुये खूँटी पर टँगे थे,उनपर किसी की दृष्टि न पड़ी। बेचारा सुबह उठा तो अपना धन-माल न पाकर अत्यन्त दुःखी हुआ कि अब क्या करे और किस प्रकार घर पहुँचे?संयोग की बात कि उस शहर में जो बड़ा साहुकार था, उसका इकलौता लड़का बहुत सख्त बीमार था और किसी भयानक रोग से पीड़ित था।हकीम ने बताया किअगर इसको अनार के दाने तत्काल खिलाये जायें तो इसके जीवन की आशा है। ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि कोई अनार लाकर देगा, उसको बहुत धन दिया जायेगा। पठान ने इस अवसर को गनीमत समझा और तुरन्त वे अनार ले जाकर सेठ को दे दिये। जब वहअनार उस लड़के को खिलाये गए तो मालिक की कृपा से वहस्वस्थ हो गया।उस साहुकार ने बहुत सा धन उन अनारों के बदले में दिया। उन रुपयों में से खर्च करते हुए वह पठान अपने घर पहुँचा।जितना धन शेष बचा था,वह सब ब्रााहृण के घर वालों को दे दिया। मार्ग की कठिनाइयों व धन प्राप्ति का सब हाल लिख कर ब्रााहृण के पास भी भेज दियाऔर यह भी लिख दिया किअब तुमको नौकरी करने की आवश्यकता नहीं है। पर्याप्त धन मिल गया है, घर वापिस चले आओ।उस ब्रााहृण ने सारी बात वज़ीर महोदय को बतला कर विनती कि कि ये  दो पैसे आपने कैसे  दिये थे  कि जिनके  बदले
इतना धन प्राप्त हो गया।वज़ीर ने उत्तर दिया कि मैं शाहीकोष को अपने निजी खर्च में बिल्कुल नहीं लाता। अपनी दस्तकारी और परिश्रम की कमाई से जो पैसा बनता है,उसीसे काम चलता हूँ।तुमने बहुत ईमानदारी से काम किया था, इसलिए मैं नहीं चाहता था कि शाही कोष से तुमको वेतन दिया जाये। सो मैने अपनी मेहनत की कमाई में से ही दो पैसे दे दिये थे। परन्तु मैं इस बात को भी जानता था कि वे दो पैसे तुम्हारे पूरे जीवन के लिए पर्याप्त होंगे।अब यदि तुम घर जाना चाहो तो बड़ी प्रसन्नता से जा सकते हो। ब्रााहृण उनसे विदा लेकर जब घर आया तो पठान ने उन रुपयों के लिए जो यात्रा में उसने खर्च किये थे,क्षमा मांगी। ब्रााहृण ने कहा कि जो कुछरूपया तुम वसूल करके लाए हो,उसमें से तुमआधे भाग का अधिकार रखते हो, क्योंकि यदि तुम किसी प्रकार की ख्यानत करते तो मुझे क्या मालूम हो सकता था?वास्तव में उन दो पैसों में से जो मेरे वेतन में मुझे मिले है,केवल एक पैसा ही मेरीआयु के लिए काफी होगा।शेष एक पैसा तुम अपने काम में लाओ।इस प्रकार उन नेक कमाई से उन दोनों ने ही लाभ उठाया।

तीन प्रकार की प्रार्थनाएं करने वाले


कजानजाकिस ने अपनी एक किताब में लिखा है, कि मैने  तीन तरह के लोग देखे और तीन तरह की प्रार्थनायें करते देखे।पहले तरह के लोग हैं, वे कहते हैं, ""परमात्मा!हम धनुष हैं,तू हमारी प्रत्यंचा पर तीर को चढ़ा। कहीं ऐसा न हो,कि तू तीर को चढ़ाये ही न,प्रत्यंचा को खींचे ही न और हम जंग खाकर ऐसे ही समाप्त हो जाएं। दूसरे हैं,और दूसरी तरह के प्रार्थना करने वाले लोग,वे कहते हैं,तू प्रत्यंचा पर तीर को चढ़ा, हम तेरे धनुष हैं परमात्मा, लेकिन ज़रा ख्याल से चढ़ाना। कहीं ज्यादा मत खींच देना, कहीं ऐसा न हो,कि प्रत्यंचा टूट ही जाये।और तीसरी तरह के लोग हैं और तीसरी तरह की प्रार्थना करने वाले, वे कहते हैं, हे परमात्मा!हम तेरे धनुष हैं,तू अपने तीरों को हमारी प्रत्यंचाओं पर चढ़ा और फिक्र मत करना, कम ज्यादा का हिसाब मत रखना, तेरे हाथ में टूट भी गये, तो इससे बड़ा कुछ और होना नहीं है।यह जो तीसरी तरह का व्यक्ति है,यही उपलब्ध कर पायेगा। पहली तरह का व्यक्ति कहता है, कहीं हम ऐसे ही न चले जाये, उसकी नज़र अपने पर ही लगी है अभी कहीं ऐसा न हो,
कि जंग खा जायें बिना किसी सफलता के स्वर्ग को जाने, ऐसे ही न खो जायें।हमें तू सफल बना।लेकिन न तो परमात्मा से सम्बन्ध हैप्रार्थना का, न साहस है प्रार्थना का। डर है कि कहीं जंग न खा जायें और डर है कि कहीं असफल न मर जायें लोभ की आकाँक्षा है, लोभ की प्रार्थना है।
     दूसरी तरह के लोग है, ज्यादा चालाक हैं,होशियार है। परमात्मा के साथ भी सौदा करना चाहते हैं,वहां भी अपना गणित लेकर आते हैं।वहाँ भी हिसाब-किताब रखते हैं। दुकानदार हैं। ऐसे व्यक्ति भी परमात्मा के निकट नहीं पहुँच सकते। ऐसे व्यक्ति भी परमात्मा को भी पूरी स्वतंत्रता नहीं दे रहे हैं। उसको भी नियंत्रण में रख रहे हैं। उसको भी बाँधकर चलाना चाहते हैं। परमात्मा को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं, परमात्मा के हिसाब से स्वयं नहीं चलना चाहते।और जब तक तुम परमात्मा के साथ चलने को राज़ी नहीं हो,तब तक तुम उसे उपलब्ध न कर सकोगे। जब तक तुम चाहते हो वह तुम्हारे पीछे चले, तब तक तुम्हारा सम्बन्ध ही न जुड़ पायगा।
     तीसरी तरह के लोग है, तुम तीसरी तरह के लोग बनना। प्यारी है उनकी प्रार्थना और बड़ी महत्वपूर्ण, कि हम तेरे धनुष हैं। हम तेरे साधन है,उपकरण हैं। तू अपने तीरों को चढ़ा। हमारे लक्ष्यों को भेदने की नहीं, तेरे ही लक्ष्यों को भेदने के लिए। हम तो केवल धनुष हैं। तू अपने तीरों को चढ़ा और अपने लक्ष्यों के भेद और इसकी फिक्र ही मत करना, कि हम बचें के टूटें। तेरे हाथ में टूट ही गये तो इससे बड़ा और क्या होना हो सकता है। ये समर्पित हैं। इनकी प्रार्थना में न तो भय है, न लोभ है। इनकी प्रार्थना में तो सिर्फ एक प्रार्थना है और वह प्रार्थना यह है, कि तू
हमें अपना उपकरण बना ले। उस उपकरण बनने में हम मिट जायें, तो हमारा सौभाग्य है।इसलिए यह जानते हुए भी किअपनी कोई पात्रता नहीं है, फिर भी तुम जाना। अगर यह सब जानते हुए तुम गये और विनम्रता से गये और परमात्मा के उपकरण बनने की आकाँक्षा से गये,तो तुम्हारी पात्रता तुम्हें मिल गई। तुम खाली हो, यही तुम्हारी पात्रता है।ऐसी पात्रता वाला ही श्रद्धावान हो सकता है। वह सभी अवस्थाओं में सम रहता है। वह कहता है कि  जन्म जैसे उसने दिया था, मृत्यु भी उसी ने दी। जब जन्म में भी उसी का हाथ था, तो मृत्यु में भी उसी का हाथ है। जब उस का हाथ है,तो सब ठीक है।फिर शिकायत कहाँ?वह कहता है कि हमारी क्या ज़रूरत, तू कर ही रहा है। तू सदा ठीक ही कर रहा है।और हमारे सोचने-विचारने से कुछ बदलता भी तो नहीं। जो होता है, हो होना है,हो रहा है,सब ठीक मेरे बीच में खड़े होने की ज़रूरत ही क्या है। इसी का नाम विनम्रता है, निरहंकारिता है। ऐसा ही व्यक्ति उस को पा लेता है।

Thursday, February 4, 2016

महात्मा जी को खाने में प्याज खिलाये


     किसी राजा के दरबार में एक फकीर यह सदा किया करता था कि ""नेकों के साथ नेकी करोऔर बदों की बदी स्वयं उनको नष्टकर देगी'' एक दरबारी इस सदा से अत्यन्त अप्रसन्न हुआ करता था। उसने राजा से चुगली की कि हुज़ूर! अमुक फकीर ऐसा कहा करता है कि राजा के मुख से दुर्गन्ध आती है। राजा ने कहा-उसको हमारे सामने लाओ, हम इसकी जांच-पड़ताल करेंगे। चुगलखोर ने फकीर को कहला भेजा कि राजा की ओर से आप की दावत है और उस दिन भोजन में बहुत से प्याज़ पकवा कर उस फकीर को खिलाये, तत्पश्चात्  राजा  के समक्ष उपस्थित किया जब फकीर राजा के सम्मुख गया तो उसको विचार हुआ कि कहीं प्याज़ की दुर्गन्ध राजा को अप्रिय न लगे, इसलिये सामने जाकर मुख पर हाथ धर लिया।
     चुगलखोर ने उसी समय राजा को संकेत में कहा कि हज़रत! देखिये इसने आपके मुख की दुर्गन्ध से बचने के लियेअपने मुख पर हाथ धर लिया है। राजा ने फकीर से तो कुछ न कहा, एक पत्र अपने नगर कोतवाल के नाम लिखकर फकीर को दिया और कहा कि इसको कोतवाल के पास ले जाओ। उस राजा की यह नीति थी कि जिस किसी को विशेष पुरस्कार देता था, उसको नगर कोतवाल के नाम पत्र लिख कर दिया करता था।उस चुगलखोर ने समझा कि अवश्य ही इस फकीर को भी कोई विशेष पुरस्कार मिला है। शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल कर फकीर के पीछे हो लिया और विनय की कि हज़रत!यह पत्र यदि आप मुझे दे दें तो मैं कोतवाल को पहुँचा दूँ, आप व्यर्थ कष्ट क्यों करते हैं। फकीर ने वह पत्र उसी को सौंप दिया। वह पत्र लेकर कोतवाल के पास पहुँचा।उसमे लिखा हुआ था कि पत्रवाहक को बिना देर किये कत्ल करा देना और उसकी खाल में भुस भरवा कर हमारे पास भिजवा देना, यदि देर हुई तो पूछताछ होगी। कोतवाल ने पत्र पढ़कर जल्लाद को आदेश दिया कि इस व्यक्ति को तत्काल कत्ल कर दो।चुगलखोर ने बहुतबावेला मचाया और फरियाद की और कहा कि ज़रा तुम राजा से तो पूछ लो, किन्तु कोतवाल ने पूछताछ के भय से उसकी एक न सुनी और तत्काल उसको कत्ल करा दिया। फिर उसकी खाल में भुस भरवा कर राजा के पास भेज दी।जब राजा को यह ज्ञात हुआ तो फकीर को बुलवाकर सब वृतान्त पूछा कि तुमने हमारे विषय में यह कहा था कि राजा के मुख से दुर्गन्ध आती है? फकीर ने इनकार किया और कहा कि मैं तो सदैव यही सदा किया करता हूँ कि नेकों के साथ नेकी करो और बदों की बदी स्वयं उनको नष्ट कर देगी। मालूम नहीं उसने क्या समझा।
     तब राजा ने फिर पूछा कि तुमने हमारे सामने आते समय मुख पर हाथ क्यों रखा था?फकीर ने उत्तर दिया-उस दिन भोजन में बहुतअधिक प्याज़ सम्मिलित थी,उसकी गन्ध आपको अप्रिय न लगे, इसलिये मैने अपने मुख पर हाथ धर लिया था। फिर पत्र के विषय में पूछा तो फकीर ने कह दिया कि मार्ग में उस व्यक्ति ने (जिसने मुझे प्याज़ खिलाये थे) पत्र मुझसे ले लिया था कि मैं स्वयं ले जाऊँगा। उस समय राजा को फकीर की सत्यता प्रकट हुई और उससे कहा कि आप यह सदा प्रायः किया करें कि""नेकों के साथ नेकी करो और बदों की बदी स्वयं उन्हें नष्ट कर देगी।'' जैसा कि आज की घटना से सिद्ध हो गया है कि उस चुगलखोर ने वास्तव में ही अपनी बदी का दंड स्वयं अपने हाथों पाया।

Wednesday, February 3, 2016

दो मुमुक्षु मुक्त होने के इच्छुक


     किसी महात्मा के पास दो व्यक्तियों ने जाकर विनय की कि महाराज! हमको मुक्त कर दीजिए। और इसी इच्छा को लिये बहुत दिनों तक महात्मा जी के पास जाते रहे, परन्तु महात्मा जी ने उनकी तरफ रुख न किया। एक दिन वे दोनों व्यक्ति किसी गांव से रुपया उगाह कर ला रहे थे कि मार्ग में महात्मा जी के आश्रम पर ठहर गये। महात्मा जी उचित अवसर जान कर एक बड़ा काबुली छुरा अन्दर से निकाल लाये और उनसे पूछा कि क्यों भाई! एक मुक्त होगा अथवा तुम दोनों ही मुक्त होंगे? और यह कहकर पत्थर पर छुरा तेज़ करने लगे। यह देखकर एक तो भयभीत हो गया और उसने सोचा कि महात्मा जी के मन में कुछ पाप आ गया है, इसलिये अपनी थैली उठाकर चुपके से खिसक गया। किन्तु दूसरा बैठा रहा। जब महात्मा जी छुरा तेज़ कर चुके तो पीछे घूम कर देखा कि एक तो भाग निकला है। दूसरे से कहा कि भाई! भला चाहता है तो तू भी जान बचा कर भाग जा, वरना व्यर्थ में मारा जायेगा तो लोगों को इसी प्रकार मुक्त करता हूँ। उसने हाथ जोड़कर विनय की-महाराज! यदि आप इसी प्रकार मुक्त करते हैं तो मुझको शीघ्र मुक्त कर दीजिये, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि आपका विचार बदल जाये और मैं मुक्त होने से रह जाऊं। महात्मा जी समझ गये कि यह दृढ़ विश्वासी है, नहीं टलेगा। छुरे को तो धर दिया और उसको परमार्थ के भेद समझा कर और अपनी कृपा-दृष्टि डाल कर निहाल कर दिया। ""नानक नदरीं नदरि निहाल'' सन्त सत्पुरुषों ने सत्य कहा हैः-
          यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
          सीस दिये जो गुरु मिलें, तौ भी सस्ता जान।।
          जां बजानां बिदह वगरना अज़ तो बिस्तानद अजल।।
          खुद तू मुन्सिफ बाश ऐ दिल! र्इं निको यां आँ निको।।
अर्थः- अपना जीवन अपने मालिक को समर्पित कर दे अर्थात् उनके नाम पर अर्पण कर दे, वरना मृत्यु का देवता तुझ से छीन कर ले जायेगा। फकीर कहते हैं कि ऐ मन! अब तू स्वयं ही न्यायाधीश बनकर न्याय कर कि यह ठीक है कि तू अपना जीवन अपने हाथों अपने मालिक को सौंप दे अथवा वह ठीक है कि तुझ से तेरे प्राणों को काल बलपूर्वक छीन कर ले जाये।

Monday, February 1, 2016

एक भाई दूध में पानी मिलाता था


    एक दिन श्री वचन हुये कि किसी नगर में दो ब्रााहृण सगे भाई रहते थे।पिता की मृत्यु के पश्चात छोटे बाई ने चतुराई से सारी सम्पत्ति अपने अधिकार में रख लीऔर बड़े भाई को यूं ही कुछ थोड़ा बहुत देकर टाल दिया। बड़ा भाई नेक और ईमानदार था। उसने थोड़ी सी पूँजी से कुछ कारोबार प्रारम्भ कर दिया और जो दो-चार आना प्रतिदिन उस पूँजी से
पैदा करता, उसी से ही अपनी गृहस्थी का पालन करता था। कुछ समय पश्चात छोटा भाई उसके पास आया और कहने लगा कि मैने पिता की सारी कमाई उड़ा दी है। अब मेरे पास कुछ नहीं रहा,यहाँ तक कि भूखे मरने की स्थिति आ गई है। यदि तुम से कुछ हो सके तो मेरी सहायता करो। उसने उत्तर दिया कि मैं दो-चार आने नित्यप्रति कमाता हूँ, उससे बड़ी कठिनता से दिन कटते हैं। खैर,एक रूपया ले जा। गाँव से दूध लाकर बेचा कर। दो-तीन आने प्रतिदिन बच ही जाया करेंगे, उसी से निर्वाह करना। किन्तु सावधान! बेईमानी न करना। छोटे भाई ने रुपया ले लिया और गाँव से दूध लाकर बेचना आरम्भ किया।
    एक दिन उसके मन में पाप समायाऔर उसने दूध में पानी मिलाकर बेचना प्रारम्भ किया, यहां तक कि कुछ दिनों में बहुत धन कमाया और बहुत बड़ी दुकान खोल ली।उसमें भी कपट का व्यापार ज़ारी रखा। उस के बड़े भाई ने उसको बहुत मना किया,परन्तु वह अपने दुश्कर्म से न रुका। एक दिन बड़े भाई ने एक फकीर से कहा कि महाराज!इस संसार में बेईमान सदैव सुखीऔर धनवान होते हैंऔर ईमानदार दुःख और कष्ट में घिरे रहते हैं,इसका क्या कारण है?यह कहकर उसनेअपनाऔर अपने भाई का सब हाल बतलाया और यह भी कहा कि वह प्रायः ऐसा कहा करता हैः- ऐ ख्यानत बर तू रहमत अज़ तू गंजेयाफ्तम।।
          ऐ दयानत बर तू लानत अज़ तू रंजेयाफ्तम।।
अर्थः-ऐ बेईमानी तू फले-फूले कि तुझसे मैने खज़ाना पा लिया है। ऐ ईमानदारी तेरा नाश हो कि तुझ से मैने दुःख और कष्ट ही पाया है। फकीर ने पूछा कि वह क्या बेईमानी करता है? उसने उत्तर दिया कि
दूध में पानी मिला कर बेचता है। साधू ने पूछा कि क्या तू बता सकता है कि उसने कितने लोटे पानी अब तक दूध में मिला कर बेचा है?उसने हिसाब लगा कर गिनती बतला दी,क्योंकि वह नित्यप्रति उसको मिलाते देखता और गिनती करता रहा था।साधू ने कहा कि एक मनुष्य के कद के बराबर गढ़ा खोदो और उतने ही लोटे मापकर पानी के उसमें डाल दो।जब उसने गढ़ा खोदकर पानी भर दिया तो फकीर नेआदेश दिया कि ज़रा तू इसमें उतर कर खड़ा हो जा। जब वह गढ़े में उतरा तो उसकी गर्दन तक पानी आया। तब साधू ने उससे कहा कि अभी पानी की मात्रा उसके डूबने के लिये काफी नहीं है। जब उतने लोटे पानी और मिला लेगा, तब नष्ट हो जायेगा।और उसकी यह सम्पत्ति उसकी बेईमानी का फल नहीं अपितु उसके पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों का फल है। किन्तु खेद! कि वह बेईमान उसको भी नष्ट कर रहा है। यदि वह बेईमानी न करता और ईमानदारी से व्यापार करता,तब भी उसे इतना धन तो समय पर मिल ही जाताऔर उसके कुछ काम भी आता,परन्तुअब तो बेईमानी करने के कारण उसकी सब सम्पत्ति नष्ट हो जायेगी।अब भी यदिसन्मार्ग पर आ जाये तो उसका बचाव हो सकता है, परन्तु उसके सिर पर तो पाप का भूत सवार है।
     वह फकीर से मिल कर घर चला आया। उसने भाई को बेईमानी करने से बहुत मनाकिया,परन्तु उसने एक न मानी बड़ा भाई दिन गिनता रहा।जब पानी के लोटों की गिनती पूरी हो गई, तो शाम के समय छोटा भाई दूध के नीचेआग बुझाकरऔर उन बुझी हुई लकड़ियों को लकड़ियों के ढेर में फेंक कर सो रहा।एक लकड़ी में संयोग सेआग लगी रह गई।
वही सुलग कर पूरा ढेर में लग गई और दुकान आदि सब जलने लगीं। वह नींद से चौंक कर उठा।अड़ोस-पड़ोस के लोग आग बुझाने को दौड़े, परन्तु व्यर्थ।जो कुछ सामान आदि था,सब जलकर राख हो गया। उसकी अंटी में केवल एक रुपया बँधा था,वही उसके पास बचा।यह वही रुपया था जो उसके बड़े भाई ने अपनी ईमानदारी की कमाई में से दिया था। सत्य है ईमानदारी की कमाई कभी व्यर्थ नही जाती।

धीरे चले तो जल्दी पहुँचोगे


     दौड़ने वाले पीछे रह जाते हैं,और जो सहज चलते हैं वे बहुत आगे निकल जाते हैं।कोरिया में एक वृद्ध भिक्षु एक नदी पार कर रहा है।और उसके साथ एक युवा भिक्षु भी है। नदी के पार पहुँचकर जैसे ही नाव बांधी है मांझी ने, तो उन्होने उस बूढ़े से पूछा है कि गांव कितना दूर है, क्योंकि हमने सुना है कि सूरज ढलते ही गांव का द्वार बन्द हो जायेगा। और सूरज ढल रहा है। कितना दूर है?हम पहुँच पायेंगे कि नहीं? मांझी ने नाव बांधते हुए कहा कि धीरे गये तो पहुंच भी सकते हैं। अब ऐसे पागल की बात कौन सुने। उन्होने सोचा कि यह पागल है। इसकी बात में पड़े तो गये। क्योंकि कहता है कि धीरे गये, तो पहुँच भी जाओगे।
     वे भागे। फिर उन्होने पूछा भी नहीं। सांझ हो रही है। सूरज ढला जा रहा है। वे तेज़ी से भाग रहे हैं, क्योंकि द्वार बन्द हो गया, तो जंगल में रह जाना पड़ेगा। पहाड़ी रास्ता है।फिर सूरज एकदम ढलने के करीब हो गया है, वे और तेज़ी से भागे। फिर वह बूढ़ा गिर गया। उसके घुटने टूट गये और लहू बह गया और उसकी किताबों के पन्ने बिखर गये, जो वह सिर पर लिये था। फिर वह मांझी पीछे से गीत गाता हुआ आ रहा है। वह पास आकर खड़ा हो जाता है। उसने कहा, मैने कहा था, क्योंकि मेरा बहुत दिन का अनुभव है। रोज ही सांझ यहां कोई उतरता है,और रोज़ ही कोई मुझसे पूछता है कि कितनी दूर है? पहुँच जायेंगे न सूरज ढलते? तो मेरा निरंतर का अनुभव यह है कि जो धीरे जाते हैं, वे पहुँच भी जाते हैं। रास्ता बहुत बीहड़ है। जो तेज़ी से जाते हैं,अक्सर गिर जाते हैं। लेकिन मेरी बात उस वक्त ठीक नहीं लगती, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि धीरे गये,तो कैसे पहुँचेंगे। क्योंकि हमारा पहुँचने का ख्याल ही तेज़ जाने वाले से जुड़ा हुआहै।लेकिन कुछ मुकाम ऐसे भी हैं जहां धीरे जाने से पहुँचते हैं।और कुछ मुकाम ऐसे हैं,जहां जाने से कभीपहुँचते ही नहीं। न जाने से पहुँच जाते हैं। पर उन मुकामों का हमें कोई पता नहीं है।
     सक्रियता जो है, वह आपकी चेष्टा नहीं है।सक्रियता आपके भीतर शक्ति का सहज प्रगटन है,आपकी चेष्टा नहीं है।आप अपनी चेष्टा से सक्रिय नहीं हैं।और अगर आप बिल्कुल सहज हो जाते हैं, तो आपके भीतर की जो शक्ति है, वह आपको सक्रिय रखेगी।लेकिन वह सक्रिय
होना उतना ही होगा, जितनी शक्ति होगी, उससे ज्यादा कभी नहीं होगी। इसलिए रिएक्शन की निष्क्रियता कभी भी नहीं आयेगी और कभी थेकेंगे नहीं, क्योंकि थकने के पहले शक्ति वापस लौट जायेगी।