Friday, January 8, 2016

शरणागति (स्टीमर के साथ बँधी नाव जल्दी पहुँचती है)

09.01.2016

     गंगा का निर्मल तट था। कुछ एक जिज्ञासु जन एक सिद्ध महापुरुष के समीप बैठे जीवन चर्चा करते थे। एक भक्त ने सहसा प्रश्न किया,""ऐ सच्चे साहिब! आप दया करके हमें यह समझाईये कि गुरु की शरण लेने से विशेष लाभ क्या होता है?'' गुरुदेव ने सामने बहती हुई विशाल नदी की ओर इशारा करते हुए पूछा, "'देखो नागेश! महानदी में वह क्या खड़ा है?'' नागेश ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया, ""भगवन्! वह स्टीमर है, जो भाप से चलता है।'' गुरु जी ने आगे पूछा, ""उस स्टीमर के दायें बायें क्या है?'' नागेश ने कहा, ""वे तो नौकायें खड़ी हैं। ""अच्छा नागेश! अब यह बताओ कि स्टीमर वर्दवान तक जो यहाँ से साठ मील दूर है, कितनी देर में पहुँचा देगा?'' ""कोई पाँच एक घण्टे में पहुँचायेगा प्रभो।'' विनम्र स्वर में नागेश ने प्रार्थना की। गुरु जी ने कहा, ""बहुत अच्छा। यदि हम नाव से वर्दवान जाना चाहें तो वह हमें कितने समय में लक्ष्य तक ले जायेगी?'' ""जी महाराज! अठारह घण्टों में।'' उत्तर मिला।
     तब बड़ी गम्भीर मुद्रा में श्री गुरुदेव ने दूसरे शिष्य राजेश से प्रश्न किया, ""वत्स! अगर पन्द्रह-बीस यात्रियों को सवार कराके उस स्टीमर के साथ ही बाँध दी जाये तो बताओ वह नैय्या कितना समय लेगी वर्दवान तक? राजेश बड़े विनय भाव से बोला,"'प्रभो! उस नाव को भी उतने ही घण्टे पहुँचने में लगेंगे, जितने स्टीमर को लगते हैं। क्योंकि अब नाव और स्टीमर में कोई गति और काल का अन्तर थोड़े ही रह जायेगा।'' गुरु जी ने समझाना शुरु किया, "'शरणागत पुरुष की भी ऐसी ही अवस्था होती है। एक साधक जो अपने बल पर पूजा-पाठ, जप-तप, सन्ध्या वन्दन, नित्य-नियम आदिक करता है, उसे पग पग पर अपने डिग जाने का भय रहेगा। उसकी अपने मन से आरम्भ की हुई साधना पर कोई विश्वास नही हो सकता। एक पल में वह तोला है, तो दूसरा क्षण में वह माशा भी हो सकती है। क्योंकि उसकी सारी तपस्या का आधार सुनी-सुनाई बातों पर है। हाँ यदि उसने किसी पूर्ण-सिद्ध सत्पुरुष के द्वार पर जाकर उनसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना करके दीक्षा ले ली हो और फिर चले उनके बताये हुये सन्मार्ग पर, तो उसकी सफलता में सन्देह नहीं रह सकता। बशर्ते कि वह उन गुरुदेव के पवित्र वचनों का पाबन्द हो। नियमपूर्वक भजन-अभ्यास किया करता हो, और उसकी पूर्ण निष्ठा उन्हीं में हो।'' अपने आपा को उनके श्री चरणों पर न्यौछावर कर दे। आठों पहर उनकी प्रसन्नता के निमित्त शुभ कर्म करे। इस प्रकार जब वह भक्त अपने इष्टदेव की श्री कृपा का पात्र बन गया, तब तो क्या कहने। उस पर बड़ी अपार अनुकम्पा हो गई। उसके योग और क्षेम का भार स्वयं इष्टदेव अपने ऊपर ले लेते हैं। उसे न किसी अप्राप्त वस्तु को पाने की आकाँक्षा रहती है और न ही प्राप्त वस्तु के संरक्षण की चिन्ता। सन्त जनों के आँचल में रहकर जो अपनी जीवन यात्रा को चलाते हैं, उन गुरुमुख जीवों का योग-क्षेम अपने आप ही होता रहता है।

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