Tuesday, January 12, 2016

गीता के श्लोक पर लकीर फेर दी-20.01.2016


    एक सरलह्मदय तपस्वी थी,जो जगन्नाथपुरी में रहता था विधिवत तप साधन काआचरण करता था।उसकी धर्मपत्नी सरल सुघड़ तथा धर्मात्मा थी।अपने पति की सेवा टहल से शेषसमय में वह भी तप साधन मे लगी रहती थी। यह तपस्वी संस्कृति भाषा का अच्छा विद्वान भी था और श्री मद्भगवद्गीता को बहुत मानता था।नित्य-नियम से वह गीताजी का पाठ करता थाऔर गीता उपदेश केअनुसार निष्काम कर्म योग का क्रियात्मिक जीवन बनाना ही उसका ध्येय था। उसने ऐसा नियम बना लिया था गीता के जिन उपदेशों को पढ़ता,उनकाअक्षरशः पालन करने यत्न भी करता। यद्यपि उसके चित से सकाम भावना का समूलनाश अभी नहीं हुआ था, तथापि वह सदैव प्रयत्न यही करता था कि वह सकाम कर्म के स्तर से ऊपर उठकरअपने मन को निष्काम कर्म में स्थिर करे।श्रीमद्भगवद्गीता के नवेंअध्याय के बारहवें श्लोक को पढ़ रहा था जिसमें भगवान नेअपने भक्तोंऔर प्रेमियों के योगक्षेम वहन के उत्तरदायित्व का वचन दिया है किः-      अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनः पर्युपासते।
          तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
जब वह इसे पढ़कर प्रत्येक शब्द का अक्षरार्थ विचार रहा था। तब शब्द "वहाम्यहम्' पर पहुँचकर वहअटक गयाऔर सोचने लगा कि श्रीभगवान ने जो ऐसा कहा है कि अपने भक्तों के योगक्षेम का भार मैं स्वयं ढोता हूँ तो इसमें अतिश्योक्ति है।अन्यथा प्रभु अपने भक्तों के जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की सामग्री स्वयं ढोकर तो न लाते होंगे।अलबत्ता इतना अवश्य सम्भव है कि वे किसी न किसी माध्यम से आवश्यक जीवन निर्वाह की सामग्री भक्तों के लिये उन तक पहुँचा देते होंगे। इस प्रकार सोचता हुआ वह तपस्वी बड़ी देर तक शब्दों की इस उलझन में उलझा रहा। बार बार विचार करने पर भी कोई और बात उसकी समझ में न आ सकी और अपना दृष्टिकोण ही उसे सब प्रकार से उचित एवं युक्ति संगत प्रतीत हुआ।तब उसने मनमें कहा कि इस दृष्टिकोण से तो श्लोक में शब्द "वहाम्यहम्' कछ असंगत सा भासता है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने बाद में यह शब्द लिख दिया है।असल में इसके स्थान पर शब्द "करोम्यहम्' होना चाहिये।जिसकाअक्षरार्थ है,"'मैं करता हूँअथवा मैं करा देता हूँ।'' बस यही उपयुक्त प्रतीत होता है।अतः इस निर्णय पर पहुँचकर उसने गीता में लिखे शब्द "वहाम्यहम्' को अपनी कलम से काटकर उस के स्थान पर"करोम्यहम्' लिख दिया।अब वह सन्तुष्ट था कि अर्थ स्पष्ट हो गया है।
     इस तपस्वी के रहने का झोंपड़ा गाँव से बाहर कुछ दूरी पर था जीविकोपार्जन उसका थी मधूकरी,जो वह नित्य गाँव में जाकर कुछ घरों से माँगलाता थाऔर उन्हीं भीख के टुकड़ों से पति-पत्नी दोनों का जीवन निर्वाह होता था। प्रभु की माया ने ऐसा खेल रचा कि जिस दिन की यह घटना है अर्थात जिस दिन उसने गीता जी के उपरोक्त श्लोक के शब्दों में संशोधन किया था, उस दिन घोर मूसलाधार वर्षा हुई और वह भी ऐसी कि क्षणमात्र को न थमी। प्रातः से लेकर संध्या तक तपस्वी मधूकरी के लिये घर से न निकल सका। उसदिन पति पत्नी दोनों भूखे रहे।अगले दिन सुबह वर्षा थम गयी और आकाश स्वच्छ था।धूप निकल आयी और तपस्वी अपनी मधूकरी की झोली लेकर भीक्षाटन को घर से निकल पड़ा। अभी उसे घर से गये थोड़ी ही देर हुई थी कि एक बालक उसकी झोंपड़ी पर आया। यह बालक अत्यन्त सुन्दर था और उसका सुडौल शरीर कुन्दन के समान दमक रहा था। किन्तु उसका तेजपुन्ज शरीर सारे का सारा लहुलुहान भी हो रहा था। घर के बाहर से उस बालक ने आवाज़ लगाई, तो तपस्वी की पत्नी बाहर निकल आयी। उस बालक ने अपने हाथों में एक बड़ा सा बर्तन उठा रखा था, जिसमें भांति भांति के भोजन सामग्री भरी थी। तपस्वी की पत्नी को वह बर्तन थमाते हुए उस बालक ने मुधरंजित कोमल स्वर में कहा,''लो!यह प्रसादआपके पति ने भिजवाया है।
     तपस्वी की पत्नी उस बालक केअतिसुन्दर नख-सिख,उसके सुडौल शरीर, समुन्नत तेजोमय भाल तथा बाँकी चितवन को मुग्ध होकर देखती रह गयी।अब उसकी मधुर बोली सुनकर वह और भी विमुग्ध हो उठी। किन्तु इसके साथ ही उसके सारे शरीर को खून से लथपथ देखकर वह अत्यन्त दुःखी और चकित भी हुई। इतने मोहक नखशिख वाले बालक के कोमल तन से लहू टपकता देख उसके नेत्रों मेंअश्रु तैरने लगे। उसके हाथ से बर्तन लेते  हुए तपस्विनी ने पूछा,"" किस निर्दयी  और नृशंस ने तुम्हारी ऐसी दशा बनायी है? वह कौन ऐसा अधम आततायी है, जिसने इतने सुकोमलअंगों को यातना दी है?उत्तर में बालक ने मुस्कराकर उस के पति का नाम लिया।बाल की मुस्कान इतनी मोहक थी कि तपस्विनी का चित पानी पानी हो गया।अपनी मुग्धकारी मुस्कान को चहुँओर बखेरते हुए बालक ने कहा,"'उसी पाषाणह्मदय व्यक्ति ने मुझे तेज़ छुरी से हलाल करने की धृष्टता की है,जो तुम्हारा पति है तथायह तो मेरा भाग्य ही है कि मैं किसी प्रकार उसके पंजे से बच गया हूं। अन्यथा उसने तो मेरा कलेजा चीरडालने में कुछ भी कसर न छोड़ी थी।''यह सब सुनकर तपस्विनी का जी भर आया। इस जानकारी से उसे आश्चर्य भी हो रहा था,क्योंकि वह तोअपने पति को भद्र एवं सरल ह्मदय सज्जन ही समझती थी।बालक कोअपने घर में ले जाकर उसने उसके घाव धोये तथा घाव धोकर पट्टी बाँध दी। वह उसके घाव धोती जाती थी तथा करुणाद्र्र होकर पूछती भी जाती थी किअधिक पीड़ा तो नहीं हो रही है? कर्राहकर बालक कहने लगा,""अजी!बहुत पीड़ा हो रही है।क्या बताऊँ कि तुम्हारे क्रूर पति ने मुझे कितना कलेश पहुँचाया है।''तपस्विनी कोअब भी इसका विश्वास न हो रहा था कि उसके पति ने यह क्रूर एवं जघन्य कर्म किया होगा। इसलिये उसने पुनः कहा,""मेरे पतिदेव तो बड़ेदयालु तथा कोमल स्वभाव के हैं। वे तो एक पिपीलिका को भी कभी नहीं सताते। फिर यह क्योंकर सम्भव हो सकता है कि तुम जैसे प्रियदर्शन सुकुमार तथा मन मुग्धकारी बालक पर वे छुरा चलायें। नही, वह कोई और होगा मेरा जी ही नहीं मानता कि मेरे पति भी कभी ऐसा घृणित कार्य कर सकते हैं।''
बालक ने कहा,""अब तुम्हें विश्वास ही न हो, तो मैं कर भी क्या सकता हूँ। किन्तु मैं तुमसे सच सच ही कह रहा हूँ कि मेरी ऐसी दशा तुम्हारे पति के अतिरिक्त किसी अन्य ने नहीं बनायी। उसआततायी ने बिना मेरे किसी अपराध के और बिना कुछ भी सोचे समझे मेरे जिगर को काट डाला है।अब यहतो वही जाने कि उसने ऐसा क्यों किया।''तपस्विनी को अब भी इससे पूर्ण सन्तुष्टि न हो रही थी तथापि वह यह सोचकर मौन रही कि सम्भव है,उसके पति ने ही इस बालक केप्रति यहनृशंस व्यवहार किया हो। कुछ भी हो आज उनके घर लौटने पर मैं अवश्य पूछूँगी।
    बालक के घाव धोये जाने तथा पट्टी बँध जाने से उसे किंचित सुख मिला। बालक ने अब लौट जाने का संकल्प कियाऔर बोला,""अच्छा! यह प्रसाद रख लो और मैं जाऊं।'' तपस्विनी ने उसे वहीं रुक जाने को कहा,किन्तु वह न माना।बालक के मुख से यह वृतान्त सुनकर तपस्विनी का चित अति विह्वल हो रहा था। वह इसी दुःख में खोयी खोयी बैठी रही और उसे पता न चल सका कि वह बालक कब उठकर चला गया। जब वह सचेत हुई, तब तक वह लुभावनी आकृति अदृश्य हो चुकी थी। कुछक्षण पश्चात भिक्षा की झोली भरे हुए तपस्वी अपनी कुटिया में लौट आया। अपनी पत्नी को इस प्रकार उदास तथा अशान्त देखकर उसने कारण जानने की इच्छा व्यक्त की। उत्तर में पत्नी ने बालक के आने का सब वृत्तान्त ज्यों का त्यों कह सुनाया तथा वहअपने पति पर अप्रसन्न भी हुई कि इतने मोहक तथा निरपराध बालक पर अत्याचार करते तुम्हे तनिक भी दया न आयी। तपस्वी यह सब सुनकर हक्का बक्का सा रह गया। पहले तो कुछ भी उसकी समझ में न आया। किन्तु फिर कल की घटना उसकी स्मृति में घूम गयी, जबकि उसने गीता के एक श्लोक पर कलम की नोक फेरकर उसे काट दिया था।यह सब स्मरण करके उसके नेत्र भर आये और वह अपने किये पर पश्चाताप करने लगा। अब उसे पूर्ण विश्वास हो गया किअपने भक्तों की जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की सामग्री(योगक्षेम) को भगवान् स्वयं ढोकर भी उनके घरों तक पहुँचा देते हैं, जैसे कि वे उसके घर पहुँचा गये थे।
     एकान्त में जाकर वह प्रभुमूर्ति के सम्मुख घुटनों के बल गिर गया और करुण भाव से रो रोकर प्रार्थना करने लगा,""भगवन्! मुझ अधम का अपराध क्षमा कीजै। मैने बिना जाने- बूझे आपके ह्मदय को घायल किया है। मुझे इसका दण्ड मिलना ही चाहिये।आपकी पवित्र और सच्ची वाणी पर विश्वास न करके मैने अपनी ही दुर्बलता का प्रमाण दिया है। अपनी तुच्छ बुद्धि द्वारा निर्णय देकर मैनेआपके वचन का खण्डन किया। मेरे इसी अपराध के कारण ही आपने मुझे अपने मनोहर दर्शन से भी वंचित रखा। तब भी आपकी इतनी दया क्या कम है कि मेरी भूल को दृष्टि में न रखते हुएआपने स्वयं कष्ट करके मेरे घर में दर्शन दिये और इस दरिद्र झोंपड़ी को पवित्र किया।आपने मुझ पापी का इतना ख्याल किया कि स्वयं यहाँ आकर भोजन सामग्री पहुँचायी। प्रभो दीनबन्धो!मेरी इस अनजानी गलती को क्षमा करके मुझे अपने चरणों मे लगा लीजिये। आपकी दयाऔर उदारता का बदला तो कोई दे ही नहीं सकता। मुझ पर दया करोऔर मेरा सबअपराध क्षमा कर दो।बड़ी देर तक वह इसप्रकार की आत्र्त प्रार्थना करुण ह्मदय से करता रहाऔर रो रोकर प्रभु चरणों को भगोता रहा।इसी अवस्था में रोते रोते वह अचेत होकर मूर्ति के चरणों में गिर पड़ा।जब उसकी चेतना लौटी, तो क्या देखता है कि वही बालक रूप धारी भगवन उसके सिर को अपनी गोद में रखे बड़े स्नेह से सहला रहे हैं।श्री भगवान के मंगलमय दर्शन पाकर तपस्वी का मन आनन्द से भर गया। इसके बाद वह अपने स्थान से उठा और बार बार प्रभु चरणों में सीस झुकाने तथा क्षमा-याचना करने लगा।कुछ क्षण उसे दर्शन देकर तथा उसके सिर पर प्यार का हाथ फेर कर श्री प्रभु अन्तर्धान हो गये। आनन्द तथा उल्लास में भरे तपस्वी ने गीता उठायी और उस पर सब जगह, सब ओर बार बार "वहाम्यहम्' शब्द लिखने लगा।
   इस कथा से भी उसी तथ्य की पुष्टि होती है कि प्रभु के भजन ध्यान तथा सेवा में निमग्न रहने वाले भक्तों का सब प्रकार का उत्तरदायित्व भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। और भक्तों को किसी प्रकार की कमी नहीं आने देते।

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