Tuesday, January 12, 2016

ढपोर शंख-17.01.2016


     एक आदमी ने परमात्मा की बड़ी पूजा-प्रार्थना की। परमात्मा प्रसन्न हुआ।और जिस शंख को बजाकर वह आदमी पूजा करता था, परमात्मा ने कहा,अब यह शंख तेरे लिए वरदान है। तू इसे सम्हाल कर रख।और तुझे जो भी इससे मांगना हो,मांग लेना,वह तुझे मिल जाएगा।वह आदमीघर आ गया। पहले तो बड़ा उत्तेजित रहा। घर आते ही द्वार दरवाज़े बंद करके उसने शंख से कहा,कि एक महल मिल जाए,महल मिल गया।हीरे बरस जाएं घर में,हीरे बरस गए। एक सुन्दर स्त्री आ जाए,सुन्दर स्त्री आ गई। धीरे-धीरे,जब सभी होने लगा,तो बड़ा निराश हो गया। कुछ बचा ही नहीं करने को।आशा करने को नहीं बचा।वह जो आशा सेआकाश टंगा था, बिलकुल गिर गया,ऐसा लगा। अब जो कहे,वह हो जाता है। बड़ी मुश्किल में पड़ गया,आदमी आशा में जीने वाला था। सत्य में तो जी नहीं सकता था।अब यह जो शंख था, यह हर चीज़ को सत्य बना देता था।सपने को भी सत्य बना देता था।वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। बड़ी ऊब आने लगी। सबसे सुन्दर स्त्री भी ऊब देने लगी। हीरे-जवाहरात पड़े रहते। कौन सम्हाले?क्या करे? महल बड़ा था,सब कुछ था। जो चाहता, सब उसी वक्त हो जाता।
     एक दिन एक सन्यासी घर में मेहमान हुआ। रात उस संन्यासी ने कहा, कि मेरे पास एक शंख है। यह शंख बड़ा अद्भुत है। इससे तुम मांगो दस हज़ार,यह अद्भुत फौरन कहता है, दस हज़ार क्या करोगे,बीस हज़ार ले लो। यह बड़ा अद्भुत शंख है। वह आदमी बड़ा उत्सुक हुआ इस शंख में। क्योंकि उसकी तो आशा मर गई थी। वह जो शंख उसके पास था,यथार्थ था। वह हर चीज़ को सत्य बना देता। उसकी आशा मर गई थी। उसने कहा, शंख एक मेरे पास भी है, जिससे मैं बड़ा ऊब गया हूँ। ऐसा करो, हम बदल लें। शंख बदल लिए गए।
     सन्यासी तो शंख लेकर चलता बना। इसने अपना नया शंख रखा, फिर उसे बड़े उत्साह से कहा, दस करोड़ रुपये दे दे। उसने कहा, दस करोड़ में क्या होगा,बीस करोड़ ले ले। वह बड़ा प्रसन्न हुआ, कि यह है शंख तो। उसने कहा, अच्छा बीस करोड़ दे दे। उसने कहा, बीस करोड़ में क्या होगा?चालीस करोड़ ले ले। वह महाशंख था। वह सिर्फ बोलता ही था। तुम जितना करो, उसका दुगुना करके बोलता था। थोड़ी देर में तो उसने छाती पीट ली, कि यह तो मारे गए। यह शंख देता तो कुछ भी नहीं है। वह कहता, पचास मंजिल का मकान, वह कहता, क्या करोगे? सौ मंज़िल का मकान ले लो। तुम कहो सौ,वह कहता है दो सौ। वह शंख आशा का शंख था,कामना का,तृष्णा का।तृष्णा दूष्पूर है। वह कभी मरती नहीं। तुम जो मांगो, उससे दुगुना सपना दिखाती है। वह कहता, एक स्वर्ग? दो स्वर्ग ले लो। मगर देना-लेना कुछ भी नहीं, सिर्फ कोरी बातचीत थी। छाती पीटता, लेकिन अब देर हो चुकी थी।
   तुमने भी-सभी ने,जीवन के यथार्थ को छोड़कर आशा का शंख पकड़ लिया है। जीवन का यथार्थ तो देने को तैयार है वह सब, जिससे तुम्हारी तृप्ति हो सकती है, लेकिन तुम्हारी आशा मानने को राज़ी नहीं है। और ज्यादा-और ज्यादा।आशा का अर्थ है और-और-और। जितना हो, उससे ज्यादा। जो हो,उससे ज्यादा। कुछ भी मिल जाए, आशा तृप्त नहीं होती। आशा अतृप्ति का सूत्र है। आशा को छोड़ दोगे तभी जीवन का सत्य पाओगे।अर्थात भविष्य की चिंता छोड़ो वर्तमान प्रयाप्त है,जो तुम्हारे पास नहीं है, उसकी फिक्र मत करो। जो तुम्हारे पास है,वह ज़रूरत से ज्यादा है, ज़रा उसे भोगो। सपने मत फैलाओ सत्य काफी है।

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