एक प्रसिद्ध घटना है। महाराजा रणजीत सिंह कहीं घूमने जा रहे थे। अचानक किसी ओर से एक पत्थर आकर उनके सिर में लगा और रक्त बहने लगा। उनके सैनिक एक बुढ़िया को पकड़कर लाये। उसी ने वह पत्थर फैंका था। रणजीत सिंह के पूछने पर बूढिया काँपती हुई बोली। अन्नदाता, मैने पेड़ से फल तोड़ने के लिए पत्थर फेंका, मगर न जाने कैसे वह आपको लग गया। मुझसे अपराध हुआ, मुझे दण्ड दीजिये। रणजीत सिंह ने बुढ़िया को छोड़ने का आदेश दिया और उसे धन देते हुए कहा, पत्थर मारने से जब निर्जीव वृक्ष फल देता है तो मैं प्रजापालक होकर तुम्हें दण्ड कैसे दे सकता हूँ? इस सहनशीलता और क्षमादान से उनकी महानता प्रकाशित हो उठी।
एक आदमी चोरी में सफल हो जाता है, पर चोरी की सफलता में उसकी आत्मा टूट जाती है, और नष्ट हो जाती है। बाहर सफलता दिखाई पड़ती है भीतर विफलता हो गई। सस्ते में कीमती चीज़ बेच दी। उसकी हालत ऐसी है, जैसे किसी पर क्रोध में आ गया और पास का हीरा जोर से फेंक कर मार दिया पत्थर समझकर, सफल तो हो गया चोट पहुँचाने में, लेकिन जो खो दिया चोट पहुँचाने में उसका उसे पता ही नहीं है। बुराई में आदमी जब सफल होता है तो भीतर टूट जाता है, नष्ट हो जाता है।और जो वह चुका रहा है वह बहुत ज्यादा है जो मिल रहा है वह कुछ भी नहीं है। इससे उल्टी घटना भी घटती है, भलाई में जब कोई आदमी विफल हो जाता है तो भी सफल होता है, क्योंकि भलाई में विफल हो जाना भी गौरवपूर्ण है। भलाई करने की कोशिश की, यह भी क्या कम है? और भलाई करके विफल होने की हिम्मत की, यह क्या कम है? और भलाई में विफल होकर भी, फिर भलाई ज़ारी रखी निश्चित भीतर आत्मा निर्मित होती चली जायेगी। आत्मा एक गहन अनुभव है, धैर्य का, प्रतीक्षा का, साहस का, श्रम का और भरोसे का।
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