Friday, December 30, 2016

दुनीचन्द का पिता लक्कड़बग्घे के रूप में

दुनीचन्द का पिता लक्कड़बग्घे के रूप में
एक बार श्री गुरुनानकदेव जी भ्रमण करते हुये एक गांव में पहुँचे। वहाँ दूनीचन्द नाम का एक अत्यन्त धनाढ¬ व्यक्ति रहता था,जो उस ज़माने में सात लाख रुपये का स्वामी था। जिस दिन श्री गुरुनानकदेव जी उस के गाँव में पहुँचे,उस दिन दूनीचन्द अपने पिता की याद में श्राद्ध कर रहा था। श्री गुरुनानकदेव जी के शुभागमन का समाचार सुनकर वह उनके चरणों में उपस्थित हुआ और विनय कर अत्यन्त सम्मान से उन्हें अपने घर ले गया।जब उसने अनेक प्रकार के व्यंजन उनके सामने परोसे, तो उन्होने दुनीचन्द से पूछा-आज तुम्हारे घर क्या है?दूनीचन्द ने विनय की-आज मेरे पिता का श्राद्ध है। उनके निमित्त आज मैने सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है। अन्तर्यामी श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-दूनीचन्द! तुम्हारे पिता कोआज तीन दिन से भोजन प्राप्त नहीं हुआ।वह भूखा बैठा है और तुम कहते हो कि उसके निमित्त तुमने सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है। दूनीचन्द ने पूछा-मेरे पिता इस समय कहाँ हैं?
     श्री गुरुनानक देव जी ने फरमाया-यहाँ से पचास कोस की दूरी पर अमुक स्थान पर एक बघियाड़ के रूप में तुम्हारे पिता बैठे हैं। तुम वहाँ प्रसाद लेकर जाओ,परन्तु डरना नहीं।तुम्हारे वहाँ जाने से उसकी मनुष्य-बुद्धि हो जायेगीऔर वह प्रसाद खा लेगा। दुनीचन्द ने वहाँ पहुँचकर देखा कि एक लकड़बग्घा एक पेड़ के नीचे बैठा है।वह उसके निकट चला गया,प्रसादआगे रखा और प्रणाम कर कहा-पिता जी!आपके निमित्त मैने आज सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है।सत्पुरुषों की कृपा से लकड़बग्घे की मनुष्य-बुद्धि हो गई। तब दुनीचन्द ने कहा-पिता जी! लकड़बग्घे की देहआपने क्यों पाई?उसने उत्तर दिया-""मेरी यह दशा इसलिए हुई,क्योंकि मैने किसी पूर्ण सतगुरु की शरण ग्रहण नहीं की थी,जिससे मन तथा मन के विकारों के अधीन होकर मैने जीवन बिताया।जब मेरा अन्तिम समय निकटआया,उस समय मेरे घर के निकट ही किसी ने गोश्त पकाया,जिस की गन्ध मुझ तक पहुँचीऔर मेरे मन में गोश्त खाने की इच्छा पैदा हुई। अन्तिम समय की उस वासना के अनुसार ही मुझे यह योनि मिली। इसलिये तुमको चाहिये कि पूर्णगुरु की शरणग्रहण कर उनके पवित्र शब्द की कमाई करो ताकिअन्त समय तुम्हारा ध्यान मालिक की ओर लगा रहे और तुम्हारा जन्म सँवर जाये।'' यह कहकर उसने प्रसाद खा लिया। दुनीचन्द घर वापस आया और श्री गुरुनानकदेव जी के चरणों में समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। और उनका शिष्य हो गया।
          देह छुटै मन में रहै, सहजो जैसी आस।
          देह जन्म तैसो मिलै, तैसे ही घर बास।।

Friday, December 2, 2016

आस्तिक और एक नास्तिक

एक आस्तिक और एक नास्तिक मनुष्य में वाद विवाद चल रहा था। नास्तिक कहता था कि ईश्वर अथवा मालिक के नाम का कोई भी अस्तित्व संसार में नहीं है। आस्तिक बोला,"" नहीं भाई! यह संसार की रचनाऔर इसका प्रबन्ध यों ही तो नहीं हो गया।जिस शक्ति अथवा सत्ता के आधार पर यह सब रचनाऔर इसका प्रबन्ध होता है,तुम उस मालिक के अस्तित्व को मानने से इनकार किस तरह करते हो?''नास्तिक बोला ""यदि तुम्हारे कथनानुसार कोई ईश्वर है मालिक है, तो वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता? बोलो,यदि तुम मुझे उस ईश्वर अथवा मालिक को दिखा तो,तब तो मैं विश्वास कर सकता हूँ अन्यथा नहीं।''इस बात को सुनकर आस्तिक ने उसे समझाया कि ईश्वर का रूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। वह इन ज़ाहिरी आँखों से नहीं देखा जा सकता। किन्तु नास्तिक किसी प्रकार से भी मानने को तैयार न हुआ। तब आस्तिक पुरुष ने उठकर ज़ोर से एक घूंसा उस नास्तिक की कमर में दे मारा।घूँसा लगने से वह नास्तिक चिल्ला उठा,""वाह भाई वा!यह भी खूब रही।जब तुमसे कोई बात न बन सकी, तो अब हाथापाई के ओछेपन पर उतर आये हो?''आस्तिक पुरुष ने उत्तर दिया-""नहीं भाई साहिब!मेरा यह मतलब हरगिज़ नहीं। मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ। अच्छा, तुम ही बताओ कि तुम रोते-चिल्लाते क्यों हो?''
   नास्तिक बोला-""वाह!रोने-चिल्लाने की तो बात ही है तुम्हारा घूँसे से कमर में इतना दर्द हो रहा है, कि कुछ कहा ही नहीं जाता।''आस्तिक ने कहा-""अच्छा, तो तुम दर्द से चिल्ला रहे हो। किन्तु भाई!मुझे तो तुम्हारा
यह दर्द कहीं भी दिखाई नहीं देता। हाँ,ज़रा दिखाओ तो, दर्द कैसा है?'' नास्तिक ने कहा,""अरे तुम भी खूब हो,भला कहीं दर्द भी दिखाई दे सकता है,जो मैं तुम्हें दिखा दूँ?''आस्तिक ने कहा,""बस, तो फिर तुम्हारे इतराज़ का जवाब तुम्हें मिल चुका। जिस तरह दर्द या तकलीफ अनुभव होते हैं,किन्तु देखे नहीं जा सकते, इसी तरह ही ईश्वर अथवा मालिक भी अनुभव के द्वारा जाना जा सकता है। परन्तु इन स्थूलआँखों से उसे देखा नहीं जा सकता।आस्तिक पुरुष का यह उत्तर सुनकर नास्तिक लज्ज़ित हुआ और उसे मालिक के अस्तित्व का विश्वास आ गया।

Friday, November 18, 2016

मन्त्रियों के रोकने पर भी राजा दान करता था

मन्त्रियों के रोकने पर भी राजा दान करता था
     एक राजा को किसी महात्मा ने यह उपदेश किया कि जब तक तुम्हारे हाथ में धन है,तब तक भलाई और परमार्थ के काम किये जाओ। वह राजा विचारवान और श्रद्धालु था। उसने महात्मा जी की बात गाँठ बाँध ली और अनेक स्थानों पर सत्संग एवं भजनाभ्यास के लिये आश्रम बनवाने आरम्भ कर दिये और साधु-महात्माओं के लिये लंगर तथाअन्य प्रकार की सेवा आदि का प्रबन्ध भी कर दिया।
     राजा के मंत्री आदि सांसारिक विचार रखने वाले थे। उनको राजा की यह उदारता एक आँख न भाती थी,अतएव वे सब के सब मिलकर एक साथ राजा को इन कामों से मना करने लगे और यह भी कहा कि राजकाज में और भी सहरुाों प्रकार कीआवश्यकतायें सामने आती रहती हैं,इसलिये राजकोष को इसप्रकार व्यर्थ के कार्यों में लुटाना उचित नहीं।चूँकि राजा दृढ़ निश्चय वाला था,इसलिये वहअपने मार्ग से तनिक भी न डगमगाया।इधर मंत्री भी चुप करके न बैठेऔर बार-बार राजा के कान भरते रहे।अन्त में राजा ने तंग आकर यहआदेश जारी कर दिया कि जो भी मुझे इन धार्मिक कामों में धन व्यय करने से रोकेगा,मैं उसकी जीभ कटवा दूंगा।भय के कारण मंत्री मुखसे कहने से तो रुक गये,परन्तुउनके मन को यह बात सहन नहीं हुई, इसलिये उन्होने एक दिन राजप्रासाद की दीवार पर ये शब्द लिख दिये-""माल जमा कुन ता अज़ खतरा निजात याबी''अर्थात यदि संकटों से बचना चाहते हो तो धन का संचय करो। राजा ने जब ये शब्द पढ़े तो समझ गया कि मंत्री मुझे धन व्यय करने से रोकना चाहते हैं। उसने उन शब्दों के नीचे ये शब्द लिखवा दिये,"'निको कारान रा खतरा व खौफ नेस्त।''अर्थात भलाई के काम करने वालों को किसी प्रकार के संकट एवं भय का सामना नहीं करना पड़ता।मंत्रियों ने देखा कि राजा ने हमारे परामर्श को रद्द कर दिया, फिर भी उन्होने एक बार और उसके नीचे लिखवा दिया,""इन्सान गाह बगाह आमाजगाहे-मुसीबत में शवद'' अर्थात् मनुष्य कभी-कभी संकट का निशाना बन ही जाता है। राजा समझ गया कि उनका संकेत है कि कभी-कभी मनुष्य को संकटों का सामना करना पड़ता है जैसे श्री रामचन्द्र जी महाराज एवं युधिष्ठिर आदि पर भी संकट आये। किन्तु इन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि संचित किया हुआ धन संकटों के आने से पूर्व ही मनुष्य का साथ छोड़ जाता है। यह विचार करके राजा ने उसके नीचे लिखवा दिया,""जमा करदा मालो-ज़र किबल अज मुसीबत ज़ाय में शवद''अर्थात् संचित किया हुआ धन संकटों के आने के पूर्व ही नष्ट हो जाता है।
    मंत्रियों ने भली प्रकारआज़मा कर देख लिया कि राजाअपने निश्चय पर अडिग है,अब यदि अधिक छेड़छाड़ करेंगे तो राजा के क्रोध से बच नहीं सकेंगे,इसलिये सब के सब शान्त होकर बैठ गयेऔर राजा नेअपना सम्पूर्ण जीवन सन्त-महात्माओं की सेवा और सत्संग में रहकर सुख-आनन्द से व्यतीत किया तथा इस लोक में भी ख्याति प्राप्त की और परलोक भी संवार लिया। इस कथा से सिद्ध होता है कि दृढ़ संकल्प में इतनी महान शक्ति है जो दृढ़ निश्चय से भक्तिमार्ग पर चल पड़ता है, वह अपना लोक-परलोक सुगमता से संवार लेता है।

Saturday, November 12, 2016

असीमित पुण्य



एक बार गुजरात की एक रियासत की राजमाता मीलण देवी ने भगवान सोमनाथ जी का विधिवत् अभिषेक किया। उन्होंने सोने का तुलादान कर उसे सोमनाथ जी को अर्पित कर दिया। सोने का तुलादान कर उनके मन में अहंकार भर गया और वह सोचने लगीं कि आज तक किसी ने भी इस तरह भगवान का तुलादान नहीं किया होगा। इसके बाद वह अपने महल में आ गईं। रात में उन्हें भगवान सोमनाथ के दर्शन हुए। भगवान ने उनसे कहा, ‘मेरे मंदिर में एक गरीब महिला दर्शन के लिए आई है। उसके संचित पुण्य असीमित हैं। उनमें से कुछ पुण्य तुम उसे सोने की मुद्राएं देकर खरीद लो। परलोक में काम आएंगे।’

नींद टूटते ही राजमाता बेचैन हो गईं। उन्होंने अपने कर्मचारियों को मंदिर से उस महिला को राजभवन लाने के लिए कहा। कर्मचारी मंदिर पहुंचे और वहां से उस महिला को पकड़ कर ले आए।
गरीब महिला थर-थर कांप रही थी। राजमाता ने उस गरीब महिला से कहा, ‘मुझे अपने संचित पुण्य दे दो, बदले में मैं तुम्हें सोने की मुद्रएं दूंगी।’ राजमाता की बात सुनकर वह महिला बोली, ‘महारानी जी, मुझ गरीब से भला पुण्य कार्य कैसे हो सकते हैं। मैं तो खुद दर-दर भीख मांगती हूं। भीख में मिले चने चबाते-चबाते मैं तीर्थयात्रा को निकली थी।

कल मंदिर में दर्शन करने से पहले एक मुट्ठी सत्तू मुझे किसी ने दिए थे। उसमें से आधे सत्तू से मैंने भगवान सोमेश्वर को भोग लगाया तथा बाकी सत्तू एक भूखे भिखारी को खिला दिया। जब मैं भगवान को ठीक ढंग से प्रसाद ही नहीं चढ़ा पाई तो मुझे पुण्य कहां से मिलेगा?’ गरीब महिला की बात सुनकर राजमाता का अहंकार नष्ट हो गया। वह समझ गईं कि नि:स्वार्थ समर्पण की भावना से प्रसन्न होकर ही भगवान सोमेश्वर ने उस महिला को असीमित पुण्य प्रदान किए हैं। इसके बाद राजमाता ने अहंकार त्याग दिया और मानव सेवा को ही अपना सवोर्परि धर्म बना लिया ।

Tuesday, November 8, 2016

आयु कुल चार वर्ष


     नौशेरवाँ को जो भी मिले, उसी से कुछ न कुछ सीखने का स्वभाव हो गया था। अपने इस गुण के कारण ही उन्होंने अपने जीवन के स्वल्प काल में ही महत्वपूर्ण अनुभव अर्जित कर लिये थे। राजा नौशेरवाँ एक दिन वेष बदलकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध किसान मिला। किसान के बाल पक गए थे, पर शरीर में जवानों जैसी चेतनता विद्यमान थी। उसका रहस्य जानने की इच्छा से नौशेरवाँ ने पूछा, "महानुभाव! आपकी आयु कितनी होगी?'
     वृद्ध ने मुस्कान भरी दृष्टि नौशेरवां पर डाली और हँसते हुए उत्तर दिया," कुल चार वर्ष।' नौशेरवाँ ने सोचा बूढ़ा दिल्लगी कर रहा है। पर सच-सच पूछने पर भी जब उसने चार वर्ष ही आयु बताई, तो उन्हें कुछ क्रोध आ गया। एक बार तो मन में आया कि उसे बता दूँ- मैं साधारण व्यक्ति नहीं, नौशेरवाँ हूँ, पर उन्होंने विवेक को संभाला और विचार किया कि उत्तेजित हो उठने वाले व्यक्ति सच्चे जिज्ञासु नहीं हो सकते, किसी के ज्ञान का लाभ नहीं ले सकते, इसलिए उठे हुए क्रोध का उफान वहीं शांत हो गया।
     अब नौशेरवां ने नये सिरे से पूछा-' पितामह! आपके बाल पक गए, शरीर में झुरियाँ पड़ गर्इं, लाठी लेकर चलते हैं, मेरा अनुमान है कि आप अस्सी से कम के न होंगे, फिर आप अपने को चार वर्ष का कैसे बताते हैं?' वृद्ध ने इस बार गम्भीर होकर कहा-आप ठीक कहते हैं, मेरी आयु अस्सी वर्ष की है, किन्तु मैने छियत्तर वर्ष धन कमाने, ब्याह-शादी और बच्चे पैदा करने में बिताए। ऐसा जीवन तो कोई पशु भी जी सकता है। इसलिए उसे मैं मनुष्य की अपनी ज़िन्दगी नहीं, किसी पशु की ज़िन्दगी मानता हूँ। इधर चार वर्ष से समझ आई। अब मेरा मन ईश्वर उपासना, जप, तप, सेवा, सदाचार, दया करुणा, उदारता में लग रहा है। इसलिए मैं अपने को चार वर्ष का ही मानता हूँ।' नौशेरवाँ वृद्ध का उत्तर सुनकर संतुष्ट हुए और प्रसन्नता पूर्वक अपने राजमहल लौटकर सादगी, सेवा और सज्जनता का जीवन जीने लगे।

Thursday, November 3, 2016

नामदेव-त्रिलोचन संवाद


          कर से कर्म करो विधि नाना
          मन में राखो कृपानिधाना।।
अर्थात् हाथ-पाँव से बेशक संसार के कार्यव्यवहार करो,परन्तु ह्मदय में परमेश्वर का सुमिरण-चिंतन हर समय बना रहे, सुरत हर समय नाम में जुड़ी रहे। सन्त नामदेव जी जाति के सींपी (दर्ज़ी) थे। कपड़ों पर कढ़ाई (बेल बूटे बनाने) का काम करते थे। जीवन निर्वाह के लिये जैसे सन्त श्री कबीर साहिब जी कपड़ा बुनने का और सन्त रविदास जी जूते गाँठने का काम करते थे,उसी प्रकार सन्त नामदेव जी कपड़े सीने का और उन पर कढ़ाई करने का कार्य करते थे।परन्तु कामकाज करते हुए भीउनकी सुरत सदा परमात्मा के सुमिरण ध्यान में जुड़ी रहती थी।
     एक दिन भक्त त्रिलोचन जी सन्त नामदेव जी से मिलने उनके घर गये। भक्त त्रिलोचन जी भी बड़े उच्चकोटि के भक्त थे, परन्तु वे कोई कामकाज नहीं करते थे।भक्त त्रिलोचन जी जब सन्त नामदेव जी के घर
पर पहुँचे तो उस समय उस समय वे कपड़ों पर कढ़ाई करने में व्यस्त थे,अतः भक्त त्रिलोचन जी के आने का उन्हें पता नहीं चला जिससे भक्त त्रिलोचन जी ने अपने मन में अभी तक यह सोच रखा था कि सन्त नामदेव जी संसार के कार्यों से विरक्त होकर सदा सुमिरणभजन में लीन रहते होंगे,परन्तु उन्हें कपड़े छापने में व्यस्त देखर त्रिलोचन जी मन में विचार करके लगे कि ये तो अभी तक सांसारिक कार्य-व्यवहार में ही आसक्त हैं, इनका मन प्रभु के सुमिरण में क्या लगता होगा? उन्होंने उस समय यह वाणी पढ़ी--
          नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत।।
          काहे छीपहु छाइलै राम न  लावहु चीत।।
    त्रिलोचन जी ने कहा कि हे नामदेव जी! तुम्हें तो माया ने मोह रखा है। तुम यह कपड़ों की कढ़ाई का काम किसलिए कर रहे हो? परमात्मा के साथ चित्त का सम्बन्ध क्यों नहीं जोड़ते? यह सुनकर सन्त नामदेव जी ने उत्तर दिया--
          नामा कहै तिलोचना मुख  ते  राम  संभालि।।
          हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि।।
  हे त्रिलोचन!नामदेव का यह कहना है कि मुख से हर समय प्रभु-नाम की संभाल कर अर्थात हर समय नाम का सुमिरण कर। हाथ-पाँव आदि से बेशक संसार के सब काम कर,परन्तु तुम्हारा चित्त सदा परमात्मा के साथ जुड़ा रहे।

Sunday, October 30, 2016

शमशान ही बस्ती है

शमशान ही बस्ती है
   एक व्यक्ति किसी गाँव में पहुँच जाना चाहता था।जाने कितनी देर से चल रहा था वह पर मन्जिल जैसे दूर दूर भाग रही थी। सूर्य प्रतिपल अस्ताचल की ओर सरकता जा रहा था। जंगल के वह सुनसान एवं अन्जान रास्ते पर से गुजरते हुए बड़ा चिन्तित था और अंधेरा घिरने से पहले  किसी गाँव तक सकुशल पहुँच जाना चाहता था। तभी आगे जंगल में मन्दिरनुमा खण्डहर के सामने बैठे एक साधु को देखकर उसके चिंतित मन को थोड़ा ढाढस बंधा। साधु के समीप जाकर प्रणाम कर उसने सानुरोध पूछा-महात्मन।मैं एक पथिक हूँ।इधर के रास्ते सेअनजान हूँ, विश्रांति के लिये रात्रि होने से पहले किसी बस्ती तक पहुँच जाना चाहता हूँ,क्या आप बता सकते हैं, इधर पास में कोई बस्ती है?साधु ने पथिक की ओर देखा। फिर उसे इशारा से उधर का रास्ता बता दिया जिधर कुछ दूरी पर एक जगह से धुआँ उठ रहा था। पथिक उस जगह भागा भागा जा पहुँचा,किन्तु तत्काल साधु के पास पुनः लौट आयाऔर शिकायत भरे लहजे में तनिक रोष भरे स्वर में बोला।यह क्या महात्मन् मैने आपसे  बस्ती  का  रास्ता पूछा था, किन्तु आपने मुझे श्मशान का रास्ता बता दिया।उसकी बात सुनकर साधुअनायास अट्टहास कर उठा। पथिक ने इसेअपनाअपमान समझा।और नाराज़गी भरे स्वर में कहा-एक तो आपने मुझे गलत रास्ता बताया और ऊपर से मेरी बातों का मज़ाक बनाकर मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। साधु उसकी नाराज़गी पर ज़रा भी असंयमित नहीं हुआ। वह संयत स्वर में बोला-वत्स। मुझे तुम्हारी विवशता पर नही बल्कि तुम्हारीअल्प बुद्धि पर हँसी आ गई थी। गलती पर मैं नहीं,बल्कि तुम हो।तुम्हारी तरह प्रत्येक संसारी यह गलती करता है। वस्तुतः तुम जिसे श्मशान समझ रहे हो,वही असली बस्ती है और जिसे तुम बस्ती समझते हो वह बस्ती नहीं, बल्कि एक सराय मात्र है, जहाँ तुम जैसे संसारी लोग दुख-सुख अपने पराए, पिता-पुत्र,पति पत्नि, बन्धु बान्धव आदि जैसे नाना भाँति के मायारूपी गृह जंजालों में उलझते सुलझते यात्रियों की भाँति आते हैं,सराय में कुछ दिनों तक निवास करते हैं और फिर एक दिन उसी श्माशन रूपी बस्ती में हमेंशा के लिये जा बसते हैं।आप जिसे बस्ती कहते हैं वहाँ से आकर उन्हें यहाँ बसते हुए हमने कई बर्षों से देखा है यहाँ से वहाँ जाते हुए किसी को नहीं देखा। तुम्ही बताओ, तुमने अपनी बस्ती से तो सबको लाकर यहाँ बसते देखा है,लेकिन क्या कभी किसी वहाँ जा बसे व्यक्ति को अपनी बस्ती में आते देखा है?पथिक इस बात पर मौन रह गया।

Wednesday, October 26, 2016

तुम कौन हो लिखकर लाओ


गुरुजिएफ के पास जब पहली दफा आस्पेन्स्की गया तो गुरुजिएफ ने उससे कहा, एक कागज़ पर लिख लाओ तुम जो भी जानते हो, ताकि उसे मैं संभाल कर रख लूँ उस सम्बन्ध में कभी चर्चा न करेंगे। क्योंकि जो तुम जानते ही हो,बात समाप्त हो गयी।आस्पेन्स्की को कागज़ दिया। आस्पेन्सकी बड़ा पंडित था।और गुरुजिएफ से मिलने के पहले एकबहुत कीमती किताब जो लिख चुका था जो एक महत्वपूर्ण किताब थी।और जब गुरुजिएफ के पासआस्पेन्सकी गया,तो एक ज्ञाता की तरह गया था। जगतविख्यात आदमी था।गुरजिएफ को कोई जानता भी नहीं था। किसी मित्र ने कहा था गांव में,फुरसत थी,आस्पेन्सकी ने सोचा कि चलो मिल लें। जब मिलने गया तो गुरजिएफ कोई बीस मित्रों के साथ चुपचाप बैठा हुआ था।आस्पेन्स्की भी थोड़ी देर बैठा, फिर घबड़ाया। न तो किसी ने परिचय कराया,उसका कि कौन है,न गुरजिएफ ने पूछा कि कैसेआए हो। बाकी जो बीस लोग थे, वह भी चुपचाप बैठे थे तो चुपचाप ही बैठे रहे। पांच-सात मिनट के बाद बेचैनी बहुत आस्पेन्स्की की बढ़ गयी। न वहां से उठ सके,न कुछ बोल सके।आखिर हिम्मत जुटाकर उसने कोई बीस मिनट तक तो बर्दाश्त किया, फिर उसने गुरजिएफ से कहा कि माफ करिये, यह क्या हो रहा है?आप मुझसे यह भी नहीं पूछते कि मैं कौन हूँ?गुरजिएफ ने आँखें उठाकर आस्पेन्सकी की तरफ देखा और कहा, तुमने खुद कभी अपने से पूछा है कि मैं कौन हूँ?और जब तुमने ही नहीं पूछा, तो मुझे क्यों कष्ट देते हो? या तुम्हें अगर पता हो कि तुम कौन हो, तो बोलो। तो आस्पेन्स्की के नीचे से ज़मीन खिसकती मालूम पड़ी। अब तक तो सोचा था कि पता है कि मैं कौन हूँ।सब तरफ से सोचा, कहीं कुछ पता न चला कि मैं कौन हूँ।
     तो गुरजिएफ ने कहा, बेचैनी में मत पड़ों, कुछ और जानते होओ, उस सम्बन्ध में ही कहो। नहीं कुछ सूझा तो गुरजिएफ ने एक कागज़ उठाकर दिया और कहा, हो सकता है संकोच होता हो,पास के कमरे में चले जाओ। इस कागज पर लिख लाओ जो जो जानते हो। उस सम्बन्ध में फिर हम बात न करेंगे और जो नहीं जानते हो, उस सम्बन्ध में कुछ बात करेंगे।आस्पेन्सकी कमरे में गया।उसने लिखा है,सर्द रात थी,लेकिन पसीना मेरा माथे से बहना शुरू हो गया पहली दफा मैं पसीने पसीने हो गया।पहली दफे मुझे पता चला कि जानता तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।यद्यपि मैने ईश्वर के सम्बन्ध में लिखा है,आत्मा के सम्बन्ध में लिखा है,लेकिन न तो मैं आत्मा को जानता हूँ,न मैं ईश्वर को जानता हूँ। वह सब शब्द मेरी आँखों में घूमने लगे। मेरी ही किताबें मेरे चारों तरफ चक्र काटने लगीं। और मेरी ही किताबें मेरा मखौल उड़ाने लगीं,और मेरे ही शब्द मुझसे कहने लगे, आस्पेन्सकी जानते क्या हो?और तब इसने वह कोरा कागज़ ही लाकर गुरजिएफ के चरणों में रख दियाऔर कहा,मैं बिलकुल कोरा हूँ जानता कुछ नहीं हूँ, अब जिज्ञासा लेकर उपस्थित हुआ हूँ वह जो कोरा कागज़ था, वह आस्पेन्स्की की समिधा थी।जब भी कोई पूरा विनम्र भाव से----विनम्र भाव का अर्थ है, पूरे अज्ञान के बोध से गुरु के पास सीखने जाए।

Friday, October 21, 2016

बंदगी

एक राजा की कथा है कि किसी बड़े राजा ने उसपर आक्रमण करके उसका राज्य छीन लिया। पुराने ज़माने में छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे और बड़े राज्यों के शासकआमतौर पर या तो छोटे छोटे राजाओं से कर वसूल करते थे, या उन परआक्रमण करके उनके राज्य अपने अधिकार में ले लिया करते थे। ऐसा ही यहाँ भी हुआ।बड़े राजा ने छोटे राजा का राज्य दबा लिया। राज्य छिन जाने पर उसके मनमें संसार की असारता का गहरा प्रभाव पड़ा और वह दुनियादारी से किनारा करके जंगल में रहकर भजन-बन्दगी करने लगा।
     कुछ समय पश्चात उसकी बंदगी रंग लाई। वह एक सिद्ध महात्मा बन गया। लोग दूर दूर से उसके दर्शनों को आने लगे।आसपास उसकी बड़ी प्रसिद्धि फैल गई। और उसे बहुत माना जाने लगा। वह राजा भी जिसने उसकेराज्य को दबा लिया था उसने भी विजित राजा की प्रसिद्धि सुनी औरअपनी रानी तथा मन्त्रियों सहित दर्शन को चला। बड़ी श्रद्धा से उसने पराजित राजाअर्थात तपस्वी राजा के आगे सीस नवाया और हाथ जोड़कर विनय की,""भगवन्!आप मुझसेअपना राज्य वापिस ले लीजिये।
इसके अतिरिक्त और भी जो कुछ आप आज्ञा करें मैं उपहार के रूप में आपकी भेंट करूँ।''तपस्वी राजा ने उत्तर दिया,""महाराज! आपका बहुत बहुत धन्यवाद,जोआपने इस कदर सौजन्य प्रकट किया।राज्य की तो खैर अब मुझे कोई इच्छा नहीं रही।हाँ,यदिआप दे सकते हैं,तो मैं कुछ वस्तुयें माँगना चाहता हूँ।''विजयी राजा ने बड़े गर्व से कहा,""हाँ-हाँ?आपसंकोच त्यागकर कहिये। जो कुछ भी आप माँगेंगे, मै तुरन्त हाज़िर करूँगा।'' तपस्वी राजा ने कहा,""अच्छा! तो सुनिये, ऐसा जीवन जिसे कभी मृत्यु का खटका न हो, ऐसा धन जो स्थिर हो, ऐसा यौवन जिसे कभी बुढ़ापा नष्ट न कर सके,ऐसा सुख जिसके उपरान्त कभी दुःख नआने पावे,और ऐसी खुशी जिस पर कभी रंज या विषाद की अन्धेरी छाया न पड़ सके, बस ये पाँच वस्तुयें मुझे दरकार हैं। यदि आप दे सकते हैं,तो यही कृपा कीजिये।''विजयी राजा का सीस झुक गया।वह बोला,"'भगवन्!ये वस्तुयें तो मैं नहीं दे सकता।ये तो ईश्वर से ही मिल सकती हैं।''तपस्वी राजा ने इतने ज़ोर से अट्टहास किया कि जंगल और पहाड़ियाँ गूँज उठीं।""बस इसी बल-बूते पर दानशील बनने का दावा कर रहे थे आप?अरे नादान! ये सब वस्तुयें तू या और कोई इन्सान भी नहीं दे सकता। इसी कारण तो मैने उस लोक-परलोक के स्वामी परमेश्वर की शरण ली है।तथा यदि ये सब प्राप्त न हों, तो फिर राज्य ले लेने से भी क्या लाभ होगा? जाओ,अपना काम करोऔर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।''
     मनुष्य की सीमाबद्ध शक्ति कर भी क्या सकती है और मालिक की असीम शक्तियाँ क्या नहीं कर सकती।यही समझनेऔर विचार करने की बात है।अज्ञानी मनुष्य आमतौर पर यह सोचा करते हैं कि हूँह। मालिकहमें खाने के लिये देने थोड़े ही आवेगा।लेकिन यही तो उनकी भूल है। मालिक तो उऩ्हें भी भोजन और सुख की सब सामग्री देता है, जो कभी भूलकर भी उसकी याद नहीं करते।फिर जो भक्त सबका भरोसा त्याग कर उसी प्रभु का ही भरोसा मन में दृढ़ कर लेगा और उसकी याद मे दिलो-जान से लगा होगा क्या वे प्रभु उसकी सँभाल और देखभाल न करेंगे? वह मालिक अपने भक्तों का दुःख दर्द बटाने और उनकी सँभाल करने को सदा प्रस्तुत रहते  हैं।

Tuesday, October 18, 2016

करोड़ों रूपया देकर भी एक क्षण न मिला


     एक कंजूस-महाकंजूस की मौत करीब आयी।उसने करोड़ों रूपये इकट्ठे कर रखे थे।और वह सोच रहा था किआज नहीं कल जीवन को भोगूंगा। लेकिन इकट्ठा करने में सारा समय चला गया, जैसा कि सदा ही होता है। जब मौत ने दस्तक दी तब वह घबड़ाया, कि समय तो चूक गया, धन भी इकट्ठा हो गया, लेकिन भोग तो मैं पाया नहीं। सोच ही रहा था कि भोगना है। यह तो ज़िन्दगी भर से सोच रहा था और स्थगित कर रहा था कि जब सब हो जाएगा तब भोग लूँगा। उसने मौत से कहा, कि मैं एक करोड़ रूपये दे देता हूँ, सिर्फ चौबीस घंटे मुझे मिल जाएं। क्योंकि मैं भोग तो पाया ही नही। मौत ने कहा,कि यह सौदा नहीं हो सकेगा।उसने कहा कि मैं पाँच करोड़ दे देता हूं,मैं दस करोड़ दे देता हूँ,सिर्फ चौबीस घंटे। यह सब उसने इकट्ठा किया पूरा जीवन गँवाकर। अब वह सब देने को राज़ी है चौबीस घंटे के लिये। क्योंकि न तो उसने कभी पूरा मन से साँस ली,न कभी फूलों के पास बैठा,न उगते सूरज को देखा,न चांद तारों से बात की।न खुलेआकाश के नीचे हरी दूब पर कभी क्षण भर लेटा। जीवन को देखने का मौका न मिला। धन एकत्र करता रहा और सोचता रहा,आज नहीं कल,जब सब मेरे पास होगा, तब भोग लूँगा। सब देने को राज़ी है, लेकिन मौत ने कहा कि नहीं। कोई उपाय नहीं। तुम सब भी दो,तो भी चौबीस घंटे मैं नहीं दे सकती हूँ। कोई उपाय नहीं, समय गया। तुम उठो, तैयार हो जाओ। तो उस आदमी ने कहा, एक क्षण,वह मेरे लिए नहीं,मैं लिख दूँ, मेरे पीछे आने वाले लोगों के लिए। मैने ज़िन्दगी गँवायी इस आशा में, कि कभी भोगूँगा और जो मैने कमाया उससे मैं मृत्यु से एक क्षण भी लेने में समर्थ न हो सका। उस आदमी ने यह एक कागज़ पर लिख दिया और खबर दी कि मेरी कब्रा पर इसे लिख देना।
   सभी कब्राों पर लिखा हुआ है। तुम्हारे पास पढ़ने को आँखें हो तो पढ़ लेना और तुम्हारी कब्रा पर भी यही लिखा जाएगा, अगर चेते नहीं। अगर तुम देखो, तो तुम्हें जो मिला है वह अपरंपार है। जीवन का कोई मुल्य है? एक क्षण के जीवन के लिए तुम कुछ भी देने को राज़ी हो जाओगे। लेकिन वर्षों के जीवन के लिए तुमने परमात्मा को धन्यवाद भी नहीं दिया।मरूस्थल में मर रहे होंगे प्यासे,तो एक घूंट पानी के लिए तुम कुछ भी देने को राज़ी हो जाओगे। लेकिन इतनी सरिताएँ बह रही हैं, वर्षा में इतने बादल तुम्हारे घर पर घुमड़ते हैं, तुमने एक बार उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। अगर सूरज ठंडा हो जाएगा तो हम सब यहीं के यहीं मुर्दा हो जाएंगे, इसी वक्त लेकिन हमने कभी उठकर सुबह सूरज को धन्यवाद न दिया।

Friday, October 14, 2016

दुःखों की गठरियां


एक यहूदी फकीर हुआ। वह फकीरअपने दुःखों से बहुत परेशान हो गया है। कौन परेशान नहीं हो जाता है? हम सब अपने दुःखों से परेशान हैं। और हमारे दुःख की परेशानी में सबसे बड़ी परेशानी दूसरों के सुख हैं। दूसरे सुखी दिखाई पड़ते हैं और हम दुःखी होते चले जाते हैं।हम सोचते हैं कि सारी दुनियाँ सुखी है,एक मैं ही दुःखी हूँ। उस फकीर को भी ऐसा ही हुआ। उसने एक दिन रात परमात्मा को कहा कि मैं तुझसे यह नहीं कहता कि मुझे दुःख न दे, क्योंकि अगर मैं दुःख देने योग्य हूँ तो मुझे दुःख मिलेगा ही, लेकिन इतनी प्रार्थना तो कर सकता हूँ कि इतना ज्यादा मत दे। दुनियां में सब लोग हँसते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन मैं भर एक रोता हुआ आदमी हूँ। सब खुश नज़र आते हैं एक मैं ही उदास,अंधेरे में खो गया हूं। आखिर मैने तेरा क्या बिगाड़ा है? एक कृपा कर,मुझे किसी भी दूसरे आदमी का दुःख दे दे और मेरा दुःख उसे दे दे, बदल दे किसी से भी, तो भी मैं राज़ी हो जाऊँगा।
     रात वह सोया और उसने एक सपना देखा। एक बहुत बड़ा भवन है और उस भवन में लाखों खूंटियां लगी है। और लाखों लोग चले आ रहे हैं। और प्रत्येक आदमी अपनी अपनी पीठ पर दुःखों की एक गठरी बांधे हुए है। दुखों की गठरी देखकर वह बहुत डर गया,क्योंकि उसे बड़ी हैरानी मालूम पड़ी। जितनी उसकी गठरी है दुखों की-वह भीअपनी दुःखों की गठरी टांगे हुए है-सबके दुःखों की गठरियों का जो आकार है,वह बिलकुल बराबर है। मगर बड़ा हैरान हुआ। यह पड़ोसी तो उसका रोज मुस्कुराता दिखता था।औरसुबह जब उससे पूछता था कि कहो कैसे हाल हैं, तो वह कहता था कि बड़ा आनन्द है,ओ के,सब ठीक है।यह आदमी भी इतने ही दुःखों का बोझ लिये चला आ रहा है। उसमें नेता भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं।अनुयायी भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं।उसमें सभी उतना बोझ लिये हुए चले आ रहे हैं। ज्ञानी और अज्ञानी,अमीर और गरीब,और बीमार और स्वस्थ,सबके बोझ की गठरी बराबर है।
     आज पहली दफा गठरियां दिखाई पड़ीं। अब तक तो चेहरे दिखाई पड़ते थे। फिर उस भवन में एक जोर की आवाज़ गूँजी कि सब लोग अपने अपने दुःखों को खूंटियों पर टांग दें। इसने भी जल्दी से अपना दुःख खूंटी पर टांग दिया। सारे लोगों ने जल्दी की है अपना दुःख टांगने की। कोई एक क्षण अपने दुःख को अपने ऊपर रखना नहीं चाहता। टांगने का मौका मिले,तो हम जल्दी से टांग ही देंगे।और तभी एक दूसरी
आवाज़ गूँजी किअब जिसने जिसकी गठरी चुनना हो वह चुन ले तो हम सोचेंगे कि उस फकीर ने जल्दी से किसी और की गठरी चुन ली होगी। नहीं, ऐसी भूल उसने नहीं की। वह भागा घबरा कर अपनी ही गठरी को उठाने के लिए कि कहीं और कोई पहले न उठा ले,अन्यथा मुश्किल में पड़ जाये,क्योंकि गठरियां सब बराबर थीं। अब उसने सोचा कि अपनी गठरी ही ठीक है,कम से कम परिचित दुःख तो हैं उसके भीतर।दूसरे की गठरियों के भीतर पता नही कौन से अपरिचित दुःख हैं। परिचित दुःख फिर भी कम दुःख है-जाना-माना,पहचाना। घबराहट में दौड़कर अपनी गठरी उठा ली कि कोई और दूसरा मेरी न उठा ले। लेकिन जब उसने घबराहट में उठाकर चारों तरफ देखा तो उसने देखा कि सारे लोगों ने दौड़कर अपनी ही उठा ली है, किसी ने भी किसी की नहीं उठाई।उसने पूछा कि इतनी जल्दी क्यों कर रहे हो अपनी उठाने की?तो उन्होने कहा कि हम डर गए। अब तक हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं,हम ही दुःखी हैं।उसने जिससे पूछा उस भवन में,उसने यही कहा कि हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं। हम तो तुम्हें भी सुखी समझते थे, तुम भी तो रास्ते पर मुस्कुराते हुए निकलते थे। हमने कभी सोचा न था कि तुम्हारे भीतर भी इतनी गठरियों के दुःख हैं। उस फकीर ने पूछा,अपने-अपने क्यों उठा लिए,बदल क्यों न लिए? उन्होने कहा हम सबने प्रार्थना की थी भगवान से आज रात कि हम अपनी गठरियां बदलना चाहते हैं दुःखों की।मगर हम डर गए। हमें ख्याल भी न था कि सब के दुःख बराबर हो सकते हैं। फिर हमने सोचा अपनी ही उठा लेना अच्छा है। पहचान का है, परिचित है।और नए दुःखों में कौन पड़े। पुराने दुःख धीरे धीरे हम आदी भी तो हो जाते है उनके।
    उस रात किसी ने भी किसी की गठरी न चुनी। फकीर की नींद टूट गई। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है कि मेरा ही दुःख मुझे वापिस मिल गया।अब मैं कभी ऐसी प्रार्थना न करूँगा।

Sunday, October 9, 2016

मौत को सदा याद रखो


एक युवक एक सन्त जी के पास आता था।एक दिन उसने उनसे प्रश्न किया कि आपका जीवन ऐसा निर्मल है आपके जीवन की धारा ऐसी निर्दोष है कि कहीं कोई मलिनता नहीं दिखाई देती।आपका जीवन इतना पवित्र है, आपके जीवन में इतनी सात्विकता है इतनी शान्ति है लेकिन मेरा मन में यह प्रश्न उठता है कि कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर तो नहीं, कहीं ऐसा तो नहीं कि भीतर मन में विकार भी चलते हों मन में वासनायें भी चलती हों भीतर पाप भी चलता हो भीतर अपिवत्रता, बुरार्इंया हों भीतरअन्धकार हो,अशान्ति हो,चिन्ता हो ऊपर से आपने सब व्यवस्था कर रखी हो। क्योकि मुझे भरोसा नहीं आता कि अदमी इतना शुद्ध कैसे हो सकता है मैने आपको सब तरफ से देखा और परखा है कहीं कोई भूल दिखाई नहीं पड़ती। हो सकता है मेरी खोज की सामथ्र्य आपकी छिपाने की सामथ्र्य से कम होगी ऐसा सन्देह मन में होता है कि आप में कहीं न कहीं भूल होनी चाहिए।
       सन्त जी ने कहा कि तुम्हारा प्रश्न का उत्तर तो मैं बाद में दूँगा। कई दिन से एक बात मैं तुझे कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाता था। वह ये कि कई दफे तेरा हाथ पर नज़र गई लेकिन में सोचता था अभी तो देर हैअभी क्यों तुझे मरने से पहले मार देना। लेकिन अब देर नहीं है अब सत्य को छिपाना उचित नहीं है। कल सुबह सूरज उगने के साथ ही तेरा अन्त हो जायेगा। इधर सूरज उगेगा, उधर तेरा सूरज डूब जायेगा। तेरी मौत की घड़ी करीब आ गई है।यह हमारा तुम्हारा आखरी मिलन है। अब मै तुझे कह के निश्चिन्त हुआ। तुझसे कह के मेरा बोझ हलका हो गया।अब तू पूछ क्या पूछना है?वह युवक प्रश्न पूछना भूल गया। जब अपनी मौत आ गई तो किस में दोष हैं किसमें दोष नहीं हैं किसको क्या प्रयोजन है? वह उठकर खड़ा हो गया उसने कहा कि मुझे अभी कोई प्रश्न नहीं सूझता।मुझे अब घर जाने दें। सन्त ने कहा।रूको भी इतनी जल्दी क्या है। कल सुबह कोअभी काफी देर है अभी तो दिन पड़ा है रात पड़ी है चौबीस घन्टे लगेंगे इतनी घबड़ाने की कोई ज़रूरत नहीं हैअपना प्रश्न तो पूछते जाओ फिर मैं उत्तर दे न पाऊंगा। क्योंकि कल तुम विदा हो जाओगे। युवक ने कहा रखो अपना उत्तर अपने पास मुझे कोई प्रश्न नहीं पूछना मुझे घर जाने दो।हाथ पैर उसके काँपने लगे। आया था  तो शरीर में  बल था जवानी थी लेकिन लौटते समय दीवार का सहारा लेकर चलने लगा।अचानक स्वास्थ्य खो गया।घर जाकर बिस्तर पर लग गया घर के लोगों ने कहा क्या हुआ है आज?कोई बिमारी है, कोई दुःख है कोई पीड़ा है,कोई चिन्ता है? उस युवक ने कहा न कोई बिमारी है न कोई दुःख लेकिन सब गया चिन्ता है भीतर एक कँपकपी है कल मर जाना है फकीर ने कहा है कि उम्र की रेखा कट गई है। घर के लोग रोने लगे। मोहल्ले पड़ोस के लोग एकत्र हो गये। वह युवक बुझी बुझी हालत में था। अब गया तब गया। तभी फकीर ने द्वार पर दस्तक दी कहा रोओ मत। मुझे भीतर आने दो।चुप हो जाओ।उस युवक को हिलाया कहाआँखें खोल उसने आँखें खोलीं। फकीर ने कहा तेरे सवाल का जवाब देने आया हूँ युवक ने कहा जवाब माँगता कौन है?फकीर ने कहा जो मैने यह तेरे हाथ की रेखा की बात कही है वह तेरा सवाल का जवाब है अभी तेरी मौत आई नहीं है। वह युवक यह सुनकर उठकर बैठ गया-तो मौत नहीं आ रही है ?फकीर ने कहा यह मज़ाक था सिर्फयह बताने को कि अगर मौत आती है तो आदमी के जीवन में पाप खो जाता है।चौबीस घन्टे में कोई पाप किया? किसी को दुःख पहुँचाया?किसी से झगड़ा किया?उस युवक ने कहा-दुःख की बात करते हैं। दुश्मनों से क्षमा माँग ली। सिवाय प्रार्थना के इन चौबीस घन्टों में कुछ नहीं किया। फकीर ने कहा जो पवित्रता मेरे जीवन में दिखाई देती है वह मौत के बोध के कारण है। तुझे चौबीस घन्टे बाद मौत दिखाई पड़ी मुझेचौबीस साल बाद दिखाई पड़ती है इससे क्या फर्क पड़ता है मौत सत्तर दिन बाद आयेगी कि सत्तर साल बाद आयेगी। जो आ रही है वहआ ही गई है।इस बोध ने मेरे जीवन को बदल दिया है।
मृत्यु का बोध जीवन को रूपान्तरित करता है जीवन को पुष्य कीगरिमा से भरता है जीवन को पवित्रता की सुवास से भरता है जीवन को पँख देता हैपरलोक जाने के लिये परमात्मा की खोज कीआकाँक्षा जगाता है।

Thursday, October 6, 2016

अनुचित व्यवहार पर भी प्रभु से क्षमा याचना


     अयोध्या निवासी एक सन्त परम वैष्णव थे। दया-क्षमा और करूणा उन के जीवन के आभूषण थे। एक बार वे नौका द्वारा सरयू नदी को पार करने की इच्छा से घाट पर आये। उस समय नदी बाढ़ पर थी। एक ही नौका थी इसलिये उसमें पहले से ही अनेक यात्री बैठे थे। उन में आज के चंचलता और कुटिलता से भरे हुए युग के प्रतिनिधि पाँच-सात व्यक्ति भी विद्यमान थे। सन्त और सन्त के वेष में ऐसों को वैसे ही प्रायः घृणा होती है। किसी की खिल्ली उड़ाना उन का सहज स्वभाव था। फिर कोई सन्त उनकी नाव में आ बैठे-यह उनको स्वीकार न था। उन्हीं कुटिल युवकों की ओर से आवाज़ आई यहाँ स्थान नहीं है। दूसरी नौका से आ जाना। अनेक प्रकार के कटु शब्द भी कह दिये। सन्त जी असमंजस में पड़ गये। नौका दूसरी कोई थी नहीं। उन्होने नाविक से प्रार्थना की। मल्लाह ने कहा- एक ओर बैठ जाइये।
     वे दुष्ट प्रकृति के लोग कुछ कह न सके, और अब लगे उन सन्त जी पर ही कीच उछालने। परन्तु साधू जी शान्त भाव से भगवन्नाम का स्मरण करते रहे। नाव जब जल के बीच पहुँची तो वह शठ मण्डली और भी चंचल हो गई। कोई उन पर पानी उलीचने लगा, किसी ने कंकड़ी दे मारी, एक ने पास में पड़ा नुकीला कील ही उन की खोपड़ी पर फैंक दिया, परिणाम यह हुआ कि सिर से रुधिर बहने लगा। परन्तु सन्त जी उसी शान्ति की मुद्रा मैं बैठे रहे। अत्याचार की मात्रा और बढ़ गई, दूसरे यात्रियों ने उन दुर्जनों को रोका, किन्तु वे कहां मानने वाले थे। भक्तों के अंग-संग श्री भगवान ही तो होते हैं। उनसे भक्त के दुःख को कहां देखा जा सकता है। तत्काल आकाशवाणी हुई। महात्मन्! आप आज्ञा दें तो इन दुष्टों को क्षण भर में भस्मसात कर दिया जाय।
     आकाशवाणी के सुनते ही सब के सब निस्तब्ध रह गये। अब उन्हें काटो तो खून नहीं। अब तक जो सिंह बने हुए थे, उन सबको काठ मार गया। उनकी बोलती बन्द हो गई। परन्तु प्रभु भक्त सन्त जी ने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर से प्रार्थना की- हे दयासिन्धो! आप ऐसा कुछ भी न कीजिये ये अबोध बच्चे हैं। आप ही यदि इनकी अवज्ञाओं को न भुलाएंगे तो और कौन ऐसा दयावान है। आपका यदि मुझ पर स्नेह है तो इन्हें घनी घनी क्षमा दे दें। इनको सद्बुद्धि प्रदान करें। ये सुजन बन जायें। आपके श्री चरणारविन्दों में इनकी भी प्रीति हो जावे। यह है मानवता। इस जगतीतल पर मनुष्य के जीवन का आदर्श यही होना चाहिये।

Sunday, October 2, 2016

मानसी पूजा


नोट-सन्त बुल्लेशाह इनायतशाह के शिष्य थेऔर बुल्ला साहिब, जिनका नाम पहले बुलाकी राम था,सन्त यारी साहिब के गुरुमुख शिष्य थे। और गुलालचन्द, जो बाद में गुलाल साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुए,उनके यहाँ बुल्लेसाहिब नौकरी करते थेऔर विशेषकर हल चलाने के काम पर नियुक्त थे।गुलाल साहिब जब कभी बुल्ला साहिब को काम पर भेजते तो बुल्ला साहिब भजन-ध्यान में लग जाने के कारण प्रायः देर कर देते थे। अन्य नौकरों ने कई बार इनकी सुस्ती की शिकायत गुलालसाहिब से की और वह कई बार बुल्ला साहिब पर क्रद्ध हुए।
     एक दिन का बात है कि बुल्ला साहिब हल चलाने के लिए खेत पर गए थे कि वहँा भगवान के ध्यानऔर मानसी सेवा में लग गए। उसी समय गुलालसाहिब मौके पर पहुंच गएऔर बैलों को हल के साथ फिरते और बुल्लासाहिब को खेत की मेंड़ परआँखें बन्द किये हुए बैठा देखकर यह समझे कि बुल्ला साहिब ऊँघ रहे हैं, अतः गुलाल साहिब ने क्रोध में भरकर उन्हें लात मारी जिससे बुल्ला साहिब एक बारगी चौंक उठे और उनके हाथ से दही छलक गया।यह कौतुक देखकर गुलाल साहिब हक्के-बक्के हो गए। क्योंकि बुल्ला साहिब के हाथ में दही का कोई बर्तन नहीं था। यद्यपि गुलाल साहिब ने बुल्ला साहिब को बड़ी ज़ोर की लात मारी थी, परन्तु फिर भी बुल्ला साहिब बड़ी ही विनम्रता के साथ बोले-क्षमा कीजिये,मैं भगवान का ध्यान करते-करते उनकी सेवा में लग गया था और उन्हें भोग लगवाने के लिए भोजन परोस चुका था,केवल दही बाकी था, उसे परोस ही रहा था कि आपके हिला देने से वह दही गिर गया। बुल्लासाहिब की ऐसी मन की तन्मयताऔर उच्चअवस्था देखकर गुलाल साहिब उनके चरणों पर गिर पड़े,अपनेअपराध के लिए क्षमा माँगी और उसी समय बुल्ला साहिब को अपना गुरु धारण कर लिया।
     उपरोक्त प्रमाण से सत्संगी एवं जिज्ञासु पुरुष स्वयं ही समझ सकते हैं कि मन के एकाग्रता एवं तन्मयतापूर्वक साधन में लगने का कितना महानलाभ है,इसलिए भक्ति के साधनों परआचरण करते हुए जिज्ञासु को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहियेऔर इस बात की पूरी कोशिश करना चाहिये कि शरीरऔर इन्द्रियों के साथ साथ उसका मन भी इन साधनों में एकाग्रता और तन्मयता के साथ संलग्न रहे। ऐसा करने से निश्चय ही उसे पूरा पूरा लाभ होगा और वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होगा।

Monday, September 26, 2016

शिवाजी द्वारा किला बनवाना


आम संसारी मनुष्य अज्ञानवश आजीविका की चिंता में पड़कर व्यर्थ ही स्वयं को दुःखी और परेशान किये रहता है। उसे हर समय यही चिंता सताती रहती है कि यदि वह आजीविका का प्रबन्ध न करे, तो शायद वह, उसका परिवार तथा आश्रितजन-सभी भूखे मर जायें। किन्तु सत्पुरुषों का कथन है कि यह मनुष्य की भूल एवं अज्ञानता है।
     छत्रपति शिवाजी के समय की घटना है। वे एक पहाड़ी के ऊपर किला बनवा रहे थे, जिसके निर्माण में सैंकड़ों व्यक्ति लगे हुये थे। एक दिन शिवाजी केले का निरीक्षण कर रहे थे। इतने व्यक्तियों को काम में लगे देखकर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे किला बनवाने से कितने लोगों की रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध हो रहा है। यदि मैं यह किला न बनवाता, तो पता नहीं इनका गुज़ारा कैसे चलता? शिवाजी के गुरुदेव समर्थ स्वामी गुरु रामदास जी समय के पूर्ण महापुरुष थे। महापुरुष तो त्रिकालवदर्शी और घट-घट की जानने वाले होते हैं, फिर भला शिवाजी के मन की बात उनसे कहां छिपी रह सकती थी? शिवा जी के मन से इस भ्रम को दूर करने के लिये वे तुरन्त किले की ओर चल दिये। वे जैसे ही किले के निकट पहुँचे, एक सैनिक ने तत्काल शिवाजी को उनके आने की सूचना दी। गुरुदेव के आगमन का समाचार पाकर शिवाजी किले के नीचे उतर आये और गुरुदेव के चरणों में प्रणाम कर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। समर्थ स्वामी गुरु रामदास जी ने एक बड़े पत्थर की ओर संकेत करते हुये फरमाया-शिवा! इस पत्थर को बीच से तुड़वाओ। शिवाजी ने तुरन्त मिस्त्रियों को पत्थर तोड़ने का आदेश दिया। पत्थर के टूटने पर सब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि वह पत्थर बीच में से पोला है, अर्थात उसमें एक गड्ढा बना है जिसमें पानी भरा है और एक मेंढक उसमें बैठा हुआ है। श्री गुरुदेव ने शिवाजी को सम्बोधित करते हुये फरमाया-शिवा! इस मेंढक को खाना-पीना कौन दे रहा है?
     गुरुदेव के ये वचन सुनते ही शिवाजी चौंक उठे और उन्हें अपने मन में उत्पन्न वह विचार स्मरण हो आया कि मेरे किला बनवाने से कितने लोगों की रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध हो गया। उन्हें अपनी भूल का अनुभव हुआ, अतः उन्होने गुरुदेव के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी। श्री गुरुदेव ने फरमाया ऐसा विचार पुनः कभी भी मन में न लाना।  सबको रोज़ी-रोटी देने वाला परमात्मा है। जबकि वह पत्थरों में रहने वाले जीवों का भी ध्यान रखता है, तो क्या जो किले के निर्माण में कार्यरत हैं, उनका ध्यान वह न रखेगा? शिवाजी ने अपनी भूल के लिये पुनः क्षमायाचना की। इसी विषय में गुरुवाणी में फरमान हैः-
     सैल पथर महि जँत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ।
कहने का अभिप्राय यह कि सबकी आजीविका तथा पालन पोषण का दायित्व मालिक का है और वही सबको रोज़ी रोटी देता है। इसलिये इस विषय में मनुष्य को अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। इसका अर्थ कोई यह न समझ ले कि धनोपार्जन करने अथवा कामकाज करने से मना किया जा रहा है तथा आलसी एवं निकम्मा बन जाने की और काम काज से जी चुराने की शिक्षा दी जा रही है। नहीं, ऐसा कदापि नहीं है पुरुषार्थ करना तथा संसारिक कर्तव्यकर्मों से जी चुराने की शिक्षा सन्त सत्पुरुष कभी नहीं देते, परन्तु हर समय आजीविका की चिंता में गलतान रहकर जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल जाना यह कदापि उचित नहीं है।

Thursday, September 22, 2016

दूनी चन्द


     दूनीचन्द ने श्री गुरुनानक देव जी के चरणों में विनय की-मेरे पास सात लाख रुपये हैं,जिन में हर समय मेरा मन लगा रहता है। आप मुझे कोई ऐसी युक्ति बताएं, जिससे यह माया परलोक में मेरे साथ जा सके।
सतपुरुष तो जगत में आते ही जीवों को प्रमाद की निद्रा से जगाने और उन्हें सत्पथ पर लगाने के लिये हैं, अतएव उन्होने उसे एक सुई देते हुए फरमाया- तुम पहले हमारा एक काम करो। यह सुई संभालकर रख लो, परलोक में हम यह सुई तुम से वापस ले लेंगे।
     दुनीचन्द ने सुई ले ली और अपनी स्त्री के पास जाकर बोला-महापुरुषों ने यह सुई दी है और फरमाया है कि इसे परलोक में वापिस ले लेंगे,इसलिये इस सुई को कहीं सम्भाल कर रख लो। उनकी पत्नी ने कहा-जब कि संसार की कोई भी वस्तु यहां तक कि मनुष्य की देह भी उसके साथ नहीं जाती,तो फिर आप यह सुई  कैसे साथ ले जायेंगे?यह सुई उन्हें वापिस कर दीजिए। ज्ञात होता है कि यह सुई उन्होने केवल आपकी आँखें खोलने के लिए ही आपको दी है ताकिआपको इस बात का ज्ञान हो जाये कि एक सुई तक भी यहाँ से मरते समय साथ नहीं जाती। वे अवश्य  ही पूर्ण महापुरुष हैं और हमारे कल्याण के लिये ही हमारे घर में पधारे हैं।इसलिये मेरी मानिये तो उनकी शरण ग्रहण कर जीवन का उद्धार कीजिये। तत्पश्चात दोनों ने श्री गुरु नानकदेव जी के चरणों में उपस्थित होकर विनय की-गुरुदेव! ये सुई मैं आपको परलोक में कैसे दे सकता हूँ क्योंकि इसे परलोक में मैं कैसे ले जा सकता हूँ। श्री गुरुनानक देव जी ने फऱमाया जैसे एकत्र किया हुआ सारा धन ले जाओगे वैसे ये सुई भी ले जाना। दूनीचन्द तुम अमीर नहीं हो तुम गरीब हो क्योंकि साथ ले जाने वाला धन तुम्हारे पास नहीं है।सम्पत्ति वही होती है जो विपत्ति में काम आये। तब श्री गुरुनानकदेव जी ने यह बाणी उच्चारण की।
          लख मण सुइना लख मण रूपा लख साहा सिरि साह।।
          लख लसकर लख बाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह।।
          जिथै साइरु लंघणा अगनि पाणी असगाह।।
          कंधी  दिसि न आवई  धाही  पवै  कहाह।।
          नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह।।
अर्थः-किसी के पास लाखों मन सोना हो,लाखों मन चांदी हो,लाखों शाहों का भी वह शाह हो,लाखों की सेना हो,लाखों वादन हों,तथा उस बादशाह के पास लाखों घोड़े हों, परन्तु जहां संसार-सागर को पार करना है, जहाँ अथाह आग-पानी विद्यमान है,जहां किनारा दिखाई नहीं पड़ता, जहां लोग चीख-चीखकर शोर मचाते हैं, श्री गुरुनानक देव जी फरमाते हैं कि वहां पता चलता है कि वास्तविक अर्थों में बादशाह कौन है?बादशाह वास्तव में वही है,जो गुरु कीआज्ञानुसार नाम की कमाई करके भवसागर से पार हो जाता है। श्री गुरुनानकदेव जी के वचन सुनकर दोनों ने श्रद्धासहित उनकी स्तुति कर विनय की हम आपकी शरण हैं हमें भव से पार कीजिए।आपने हमारे ऊपर अत्यन्त कृपा की हैआज हम कृतार्थ हो गये। हमेंअपने शिष्यत्व में लीजिये।श्री गुरुनानकदेव जी ने उन्हेंनाम का सच्चा धन बख्शीश किया। आज्ञानुसार नाम की कमाई कर वे अपना जन्म सफल कर गये और लोक-परलोक संवार गये।

Sunday, September 18, 2016

अहंकार की पोटली


एक सम्राट एक रथ से गुज़रता था। जंगल से आता था शिकार करके। राह पर उसने एक भिखारी को देखा,जो अपनी पोटली को सिरपर रखे हुए चल रहा था।उसे दया आ गई। बूढ़ा भिखारी था। राजपथ पर मिला होता,तो शायद सम्राट देखता भी नहीं। इस एकान्त जंगल में-उस बूढ़े के थके-माँदे पैर,जीर्ण देह,उस पर पोटली का भार-उसे दया आ गई। रथ रोका, भिखारी को ऊपर रथ पर ले लिया। कहा, कि हाँ तुम्हें जाना है, हम राह में तुझे छोड़ देंगे। भिखारी बैठ गया।सम्राट हैरान हुआ पोटली वह अब भी सिर पर रखे हुए है?उसने कहा,""मेरे भाई,तू पागल तो नहीं है? पोटली अब क्यों सिर पर रखे है?अब तो नीचे रख सकता है। राह पर चलते समय पोटली सिर पर थी,समझ में आती है। पर अब रथ पर बैठकर किसलिए पोटली सिर पर रखे है?'' उस गरीब आदमी ने कहा, ""अन्नदाता,आपकी इतनी ही कृपा क्या कम है कि मुझे रथ पर बैठा लिया। अब पोटली का भार और रथ पर रखूँ क्या यह योग्य होगा?'' लेकिन तुम सिर पर रखे रहो, तो भी भार तो रथ पर ही पड़ रहा है।
     ठीक वैसी ही दशा है सन्देह और श्रद्धा की। तुम सोचते हो-सोच तो वही रहा है। तुम करते हो-कर भी वही रहा है। तुम नाहक ही बीच में निर्मित हो जातो हो। तुम यह जो पोटली सिर पर ढो रहे होअहंकार की और दबे जा रहे हो,और अशान्त,और परेशान।और रथ उसका चल ही रहा है, तुम कृपा करो। रथ पर ही पोटली भी रख दो, जिस पर तुम बैठे हो। तुम निÏश्चत होकर बैठ जाओ।श्रद्धा का इतना ही अर्थ है।श्रद्धा इस जगत में परम बोध है। सन्देह अज्ञान है। वह बूढ़ा आदमी मूढ़ था। थोड़ी सी समझ हो, तो पोटली तुम नीचे रख दोगे। सब चल ही रहा है। जब तुम नहीं थे,तुम कल नहीं रहोगे,तब भी सब चलता रहेगा।तुम क्षण भर को हो यहाँ। तुम क्यों व्यर्थ अपने को अपने सिर पर रखे हुए हो? उतार दो पोटली। जीवन,मरण दोनों उसी के हैं। सुख भी उसी का, दुःख भी उसी का। बीमारी भी उसी की,स्वास्थ्य भी उसी का। अगर तुम बीच से बिलुकल हट जाओ,तो बड़ी से बड़ी क्रान्ति घटित होती है। जिस दिन तुम कहते हो,सब तेरा, उसी दिन दुःख मिट जाता है,उसी दिन मृत्यु मिट जाती है। क्योंकि दुःख और मृत्य अस्वीकार में है।
एक बात स्मरण रखें, जो दूसरे को दुःख देता है, वह अंततः दुःखी हो जाते हैं। और जो दूसरे को सुख देता है, वह अंततः बहुत सुख को उपलब्ध होता है।इस वजह से यह कह रहा हूँ कि जो सुख देने की चेष्टा करता है,उसके भीतर सुख के केन्द्र विकसित होते हैं।फल बाहर से नहीं आते हैं, फल भीतर पैदा होते हैं। हम जो करते हैं, उसी की रिसेप्टिविटी हमारे भीतर विकसित हो जाती है।जो प्रेम चाहता है,प्रेम को फैला देऔर जो आनंद चाहता है,वह आनंद को लुटा दे।और जो चाहता है,उसके घर पर फूलों की वर्षा हो जाये, वह दूसरों के आंगनों में फूल फेंक दे,और कोई रास्ता नहीं है।करुणा का एक भाव प्रत्येक को विकसित करना ज़रूरी है साधना के लिए।इसके साथ ही प्रमुदिता-उत्फुल्लता,प्रसन्नता, आनंद का एक बोध, विषाद का अभाव। हम सब विषाद से भरे हैं। हम सब उदास लोग, थके लोग हैं।हम सब हारे हुए,पराजित,रास्ते पर चलते हैं और समाप्त हो जाते हैं। हम ऐसे चलते हैं, जैसे आज ही मर गये हैं। हमारे चलने में कोई गतिऔर प्राण नहीं है,हम सुस्त हैं,और उदास हैं, और टूटे हुए हैं,और हारेहुए हैं।यह गलत है। जीवन कितना ही छोटा हो, मौत कितनी ही निश्चित हो,जिसमें थोड़ी समझ है, वह उदास नहीं होगा।

Tuesday, September 13, 2016

सुखी होने की तरकीब


दूसरों का सुख दिखायी पड़ता है, अपना दुःख दिखायी पड़ता है।अपना सुख दिखायी नहीं पड़ता दूसरे का दुःख दिखायी नहीं पड़ता।सब दुःखी हैं अपने दुःख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण। और जब तक आपकी यह वृत्ति है तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुःख अगर आपको दिखायी पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरु हो गये। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखायी पड़ेगा।
     एक फकीर था जून्नून।कोई भी आदमी उसके पास मिलनेआता,तो वह हँसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है ?वह कहता एक तरकीब मैने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूँ,जिससे मैं सुखी हो जाऊँ। एक आदमी आया, उसके पास एक आँख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है?उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया,मेरे पास दोआंखें हैं,हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद।एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गज़ब अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिये हैं। एक मुर्दे की लाश को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा,हम अभी जिन्दा हैं,और पात्रता कोई भी नहीं है।और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गये होते इस आदमी की जगह तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।
     जुन्नून दुःखी नहीं था,कभी दुःखी नहीं हो सका क्योंकि उसने दूसरे का दुःख देखना शुरु कर दिया।और जब कोई दूसरे का दुःख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि मेंअपना सुख दिखायी पड़ता है।और जबकोई दूसरा का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुःख दिखायी पड़ता है।
प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करने का एक अन्य उपाय यह है कि मनुष्य को परमात्मा ने जो कुछ दे रखा है,सदा उसमें ही सन्तुष्ट रहे। परमात्मा का आभारी रहकर मन में यह विचार करता रहे कि अनेकों ऐसे मनुष्य भी संसार में होंगे, जिन्हे ये वस्तुयें भी उपलब्ध नहीं हैं।

Saturday, September 10, 2016

बिल्ली भर मत पालना।

एक फकीर मर रहा था तो उसने अपने शिष्य से कहा कि देख, एक बात का ख्याल रखना, बिल्ली भर मत पालना। वह फकीर मर गया इतना ही कहकर।इसकी व्याख्या भी न कर गया। शिष्य तो बड़ा परेशान हुआ। बिल्ली न पालना,आखिरी संदेश!कोई ब्राहृज्ञान की बात करनी थी। जीवन भर इस बुद्धू की सेवा कीऔर आखिर में मरते वक्त यह कह गया कि बिल्ली न पालना। बिल्ली हम पालेंगे ही क्यों?बिल्ली से लेना-देना क्या है। और बिल्ली पाल भी ली तो इससे मोक्ष में कौन-सी बाधा पड़ती है। किसी शास्त्र में लिखा नहीं कि बिल्ली मत पालना। बड़े-बड़े आदेश दिए हैं। ऐसा मत करना, वैसा मत करना, दस आज्ञाएँ हैं-मगर बिल्ली मत पालना।चोरी मत करना,बेईमानी मत करना,झूठ मत बोलना -समझ में आता है, मगर बिल्ली मत पालना, यह कौन सी नैतिकता का आधार है। उसे हैरान देखकर एक दूसरे बूढ़े आदमी ने कहा, तू परेशान मत हो। मैं तेरे गुरु को जानता हूँ, वह ठीक कह गया है। और मैं भी तुझसे कहता हूँ कि अगर उसकी बात मानकर चला तो बच जाएगा।
उसकी बात न मानी तो मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि वह मुश्किल में पड़ा था।शिष्य ने पूछा मुझे पूरी बात समझाकर कह दें,कैसी मुश्किल?क्योंकि मेरी अकल में ही नहीं बात बैठती। मैने बड़े शास्त्र पढ़े हैं, मगर बिल्ली मत पालना। तो उसने कहा,सुन तेरा गुरु कैसी मुसीबत में पड़ा।तेरे गुरु ने संसार छोड़ दिया डर से कि यहां फंस जाऊंगा,जैसे लोग छोड़ देते हैं डर से। शादी नहीं की,दुकान नहीं की बाज़ार में नहीं बैठा,भाग गया। जंगल में जाकर रहने लगा। एक मुसीबत आई। सिर्फ दो लंगोटियाँ थीं उसके पास।बस उतनी दो लंगोटियाँ ले गया था। वह सूखने डालता,रात को चूहे लंगोटी काट देते। उसने गांव के लोगों से पूछा कि क्या करना?
     उऩ्होने कहा एक बिल्ली पाल लो। बस वहीं से सारा उपद्रव शुरु हुआ, सारा संसार शुरु हुआ। बात जंची गुरु को,उसने बिल्ली पाल लीं। बिल्ली चूहे तो खा गई, लेकिन जब चूहे खा गई तब बिल्ली भूखी बैठी रहे वहां सूखने लगी। अब उसकी हत्या का पाप लगेगा। तो उस फकीर ने लोगों से पूछा कि भाई यह तो ठीक है,तुमने सुझाव दिया,तुम्हारी बात काम कर गई, चूहे खत्म कर दिए बिल्ली ने। मगर अब बिल्ली का क्या हो? तो उन्होने कहा, ऐसा करो,एक गाय पाल लो, तुम्हें भी दूध मिल जाएगा, बिल्ली को भी दूध मिल जाएगा। तुम यह जो रोज़ रोज़ भीख मांगने जाते हो, इस झंझट से भी बचोगे। और गाय हम दे देते हैं, हमारी भी झंझट मिटेगी कि तुम्हें रोज़-रोज़ आना,रोज़ तुम्हें हमें भिक्षा देना।गायें गांव के पास बहुत है, हम एक गाय तुम्हें गांव की तरफ से दे देते हैं।      फकीर को बात जंची, बात सीधी गणित की थी। गाय पाल ली, लेकिन झंझट-अब गाय के लिए घास चाहिए, भोजन चाहिए, गांव के लोगों ने
कहा, अच्छा यह हो कि ज़मीन तो यहां पड़ी ही है ढेर तुम्हारे पास,थोड़ी खेती-बाड़ी करने लगो,बैठे-बैठे करते भी क्या हो।तो घास भी हो जाएगा, गेहूँ भी हो जाएंगे,तुम्हारी रोटी का भी इंतजाम हो जाएगा। बिल्ली भी मज़ा करेगी, गाय भी मज़ा करेगी,तुम भी मज़ा करो। तो बेचारे ने खेती-बाड़ी शूरु की। अब खेती-बाड़ी करे कि भजन कीर्तन करे? गायों को सम्हाले,बिल्ली को सम्हाले कि शास्त्र पढ़े?फुर्सत ही न मिले भजनकीर्तन की। शास्त्र इत्यादि भूलने लगे।उसने गांव के लोगों से कहा,तुमने तो यह झंझट बना दी।मुझे समय ही नहीं मिलता।तो उन्होने कहा,ऐसा कामकरो कि गांव में एक विधवा है,उसका कोई है भी नहीं, वह भी परेशान है। उसको हम रख देते हैं यहां,तुम्हारी सेवा भी करेगी,रोटी भी--तुम मज़े से भजन करना, तुम कीर्तन करना, वह रोटी भी बना देगी। और मज़बूत विधवा है और किसान रही है, खेती-बाड़ी भी कर देगी।
     यह बात भी जंची। गणित फैलता चला गया। विधवा भी आ गई। उसने खेती-बाड़ी भी शुरु कर दी, हाथ-पैर भी दबा देती,बीमारी होती तो सिर भी दबा देती। फिर जो होना था सो हुआ। फिर विधवा से प्रेम लग गया। कुछ बुरा भी न था,आखिर इतनी सेवा करती थीऔर उस पर प्रेम न उमगे तो क्या हो। वे ही गांव के लोग आ गये कि यह बात ठीक नहीं अब अच्छा यही होगा कि आप इससे विवाह कर लो,क्योंकि इससे बड़ी बदनामी हो रही है,हमारे गांव की बदनामी हो रही है।तो विवाह हो गया, बच्चे हुए। फिर उपद्रव फैलता चला गया,फैलता चला गया। फिर बच्चों का विवाह हुआ। और उस बूढ़े आदमी ने कहा, तुम्हारा गुरु ठीक कहगया है कि बिल्ली मत पालना,यह उसकी ज़िन्दगी भर का सार है।
उस  बिल्ली से ही सब उपद्रव शुरु हुआ था।उपद्रव तो कहीं से भी शुरु हो सकते हैं।और बिल्ली की भीऔर गहराई में जाओ तो लंगोटी से शुरु हुआ।गुरु को असल में कहना था कि लंगोटी मत रखना। मगर कुछ तो रखोगे। लंगोटी,भिक्षापात्र,कुछ तो रखोगे। नहीं तो ज़िन्दगी चलेगी कैसे? जीओगे कैसे?कोई राजमहल ही नहीं बांधते हैं,कोई भी चीज़ बांध लेगी। तो असली सवाल यह नहीं है कि क्या तुम्हारे पास है,असली सवाल यह है कि क्या तुम्हारे पास वह कला है जिससे तुम वस्तुओं के बीच रहते हुए भी वस्तुओं से मुक्त रह सको?


Tuesday, September 6, 2016

सन्त हृदय

 
मौलाना रुम साहिब एक बार एक धनी व्यक्ति के घर गये मार्ग में चलते चलते उन्हें काफी देर हो गई।जब वे लगभग रात के दस बजेउस व्यक्ति के घर पहुँचे,द्वार बन्द हो चुका था। उस समय सर्दी भी अत्यधिक पड़ रही थी। रूम साहिब का शरीर ठंड के मारे थर-थर काँप रहा था, परन्तु आँखों से प्रभु प्रेम के अश्रु गिर रहे थे।सर्दी के कारण वे अश्रुकण रूम साहिब की दाढ़ी पर गिरकर बर्फ बनते जा रहे थे। उन्होने इतना कष्ट सहन कर लिया, परन्तु द्वार खटखटाना उचित न समझा ताकि उसे कष्ट न हो और उसके आराम मंे बाधा न पड़े। दरअसल उस व्यक्ति ने हज़रत मौलाना रुम साहिब जी को एक दिन पहले अपने घर पर भोजन के लिये निमन्त्रण दिया था।लेकिन अगले दिन उसे स्मरण ही न रहा कि उसने रुम साहिब को भोजन के लिये निमन्त्रण दिया है और रात उनके आने की प्रतीक्षा किये बिना ही सो गया था।
     जब प्रातः उसने द्वार खोला,तो रूम साहिब की दाढ़ी पर बर्फ जमी देख कर उसका माथा ठनका। कि बहुत भारी भूल हुई। उसने रूमसाहिब के चरणों में गिर कर अपनी भूल के लिये क्षमा मांगी कि मुझसे बहुत भारी अपराध हुआ मुआफ करें। और विनय की,हुज़ूर आप यदि एक बार भी द्वार खटखटा देते, तो हम लोग तुरन्त द्वार खोल देते।आप इस कष्ट से बच जाते और हमें आपके दर्शन तथा सेवा का सौभाग्य प्राप्त हो जाता। रूमसाहिब ने हंसते हुये फरमाया-आपके आराम में बाधा डालने की अपेक्षा मुझे अपने शरीर पर कष्ट वहन करनाअधिक श्रेष्ठ प्रतीत हुआ। और हमारी इस कुर्बानी के बदले अगर तुम परमात्मा की राह में चल पड़ो तो समझो कि ये सौदा बहुत सस्ता है। इस प्रकार के क्रियात्मिक जीवन से सन्त महापुरुष लोगों के सम्मुख प्रमाण प्रस्तुत कर जाते हैं।

Friday, September 2, 2016

मेरी हालत खुद देख लो


प्रतीक्षा करो।इसका अर्थ यह नहीं है कि, प्यासे मत बनो। प्यास तो तीव्र हो, प्रतीक्षा अनंत हो। प्यास तो ऐसी हो, जैसे अभी चाहते हो और प्रतीक्षा ऐसी हो कि जैसे कभी भी मिलेगा, तो भी जल्दी है। ये दो गुण तुम्हारी जीवन-धारा में जुड़ने चाहियें। सूफी फकीर बायज़ीद अपने शिष्यों से कहा करता था, कि हर काम ऐसे करो, जैसे यह आखिरी दिन है। आलस्य का उपाय नहीं है। यह सूर्यास्त आखिरी सूर्यास्त है। अब कोई सूर्योदय नहीं होगा। कोई कल नहीं है, बस आज सब समाप्त है। और हर काम ऐसे भी करो कि जीवन अनंतकाल तक चलेगा। कोई जल्दी नहीं है। बड़ा विरोधाभास है। ये तुम दोनों बात एक साथ कैसे साध सकोगे। ये साधी जाती हैं। ये सध जाती हैं। और जिस दिन ये सधती है, तुम्हारे भीतर एक ऐसा अपूर्व संगीत जन्मता है, जिसमें प्यास तो प्रबल होती है, प्रतीक्षा भी उतनी ही प्रबल होती है। प्यास तो तुम्हारी होती है, तुम जलते हो, आग की लपट बन जाते हो, व्याकुलता गहन होती है। यह तुम्हारी दशा है, लेकिन इस कारण तुम परमात्मा से यह नहीं कहते कि तू अभी मिल। तुम परमात्मा से कहते हो, यह प्यास मेरी है, मैं जलूँगा, लेकिन मैं राज़ी हूँ, जब तुझे मिलना हो, तेरी सुविधा से मिल। मैं द्वार पर बैठा रहूँगा। मैं दस्तक भी न दूँगा। मैं प्यासा रहूँगा। मेरी प्यास एक अग्नि बन जायेगी अगर वही मेरे द्वार दस्तक बन जाये तो पर्याप्त है, लेकिन मैं और जल्दी न करूंगा। यह भक्ति का रसायन है। यह भक्ति का पूरा शास्त्र है कि तुम माँगो भी और जल्दी भी न करो। प्रार्थना भी हो, और होंठ पर माँग भी नआये।
     बायजीद जब प्रार्थना करता था, तो कभी उसके होंठ न हिलते थे। शिष्यों ने पूछा, हम प्रार्थना करते हैं, कुछ कहते हैं, तो होंठ हिलते हैं आपके होंठ नहीं हिलते? आप पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं भीतर? क्योंकि भीतर भी आप कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता। बायजीद ने कहा, कि मैं एक बार एक राजधानी से गुज़रता था, और एक राजमहल के सामने सम्राट के द्वार पर मैंने एक सम्राट को भी खड़े देखा, और एक भिखारी को भी खड़े देखा। वह भिखारी बस खड़ा था। फटे-चीथड़े थे शरीर पर। शरीर ढंका नहीं है उन कपड़ों से। उससे तो नंगा भी होता तो भी ज्यादा ढंका होता। पेट सिकुड़कर पीठ मेे लग गया है, हड्डियाँ निकल आयी हैं, आँखें धंस गयी हैं। जीर्ण-जर्रजर्र देह थी, जैसे बहुत दिन से भोजन न मिला हो। शरीर सूख कर काँटा हो गया। बस आँखें  ही दीयों की तरह जगमगा रही  थीं। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा-अब गिरा! सम्राट उससे बोला कि बोलो क्या चाहते हो? उस फकीर ने कहा, अगर मेरे, आपके द्वार पर खड़े होने से, मेरी माँग का पता नहीं चलता, अगर मुझे देखकर तुम्हें दया नहीं आती तो मेरी बात सुनकर भी क्या फर्क पड़ेगा। तो कहने की कोई ज़रूरत नहीं। क्या कहना है और? मैं द्वार पर खड़ा हूँ, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है। बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना बन्द कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूँ। वह देख लेगा। मैं क्या कहूँ? और अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे? और अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकता, तो मेरे शब्दों को क्या समझेगा।
      लबे-इज़हार की ज़रूरत क्या। आप हूँ अपने दर्द की फरियाद। ।
भक्त जलता है। बड़ी गहन पीड़ा है उसकी। गहनतम पीड़ा है भक्ति की। उससे बड़ी कोई  पीड़ा नहीं। और मिठास भी बड़ी है उस पीड़ा में, क्योंकि वह एक मीठा दर्द है, और परम प्रतीक्षा भी है उसमें। भक्त रुक सकता है, अनंतकाल तक रुक सकता है। और जिस दिन तुम अनंतकाल तक रुकने को तैयार हो, उसी दिन उसी शान्ति में द्वार खुलता है। प्रकृति बड़ी शांति से बहती है। फूल जल्दी नहीं करते। वृक्ष जल्दी नहीं पकते-रुकते हैं, राह देखते हैं चांद-तारे भागते नहीं, अपनी गती को स्थिर रखते हैं।

Monday, August 29, 2016

बुद्ध से पूछा सुखी कितने हुये


महात्मा बुद्ध एक गाँव में गये और एक आदमी ने उनसे आकर पूछा कि चालीस वर्षों से निरंतर आप गाँव-गाँव घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए कितने लोग मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है, कुछ हिसाब है? वह आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा। बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा। क्योंकि बुद्ध जैसे लोग खाता-बही लेकर नहीं चलते हैं, कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया, बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब रखें। बुद्ध मुश्किल में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये, चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने का? बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूँ। और एक छोटा सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं कर लाऊँगा। और सांझ आ जाता हूँ हिसाब पक्का रखना, मैं जानना ही चाहता हूँ कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए, कितने लोगों ने परमात्मा पा लिया। कितने लोग आनन्द को उपलब्ध हो गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।
     बुद्ध ने उससे कहा, कि यह कागज़ ले जाओ और गाँव में एक एक आदमी से पूछ आओ, उसकी ज़िन्दगी की आकांक्षा क्या है, वह चाहता क्या है? वह आदमी गया, एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोंपड़ियां थी, उसने एक-एक घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की बहुत ज़रूरत है, और किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने कहा, और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है, पत्नी चाहिए। किसी ने कहा और सब ठीक है, लेकिन स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी उम्र मिल जाये और तो बस और सब ठीक है। सारा गाँव में घूमकर सांझ को जब वह लौटने लगा तो रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूँगा जाकर। क्योंकि उसे ख्याल आ गया कि शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव भर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा, शान्ति चाहिए, जिसने कहा, परमात्मा चाहिए, जिसने कहा आनन्द चाहिए। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये थे, सांझ वह आदमी मुश्किल में पड़ गया। बुद्ध के सामने खड़ा हो गया। बुद्ध ने कहा, ले आये हो? उसने कहा, ले तो आया हूँ। बुद्ध ने कहा, कितने लोग शान्ति चाहते हैं? उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला गाँव में। बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शान्ति? तो रुक जा। उसने कहा, लेकिन अभी तो मैं जवान हूँ, अभी शान्ति लेकर क्या करूँगा? जब उम्र थोड़ी ढल जाये तो मैं आऊँगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है, अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर पूछता है वही सवाल? कि कितने लोग शान्त हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूँ।

Friday, August 26, 2016

जो निर्भार है, वही ज्ञानी है

जो निर्भार है, वही ज्ञानी है
ऐसा हुआ कि श्री गुरु नानक देव जी एक गांव के बाहर एक कुँए के तट पर आकर ठहरे। वह गांव सूफियों का गांव था। उनका बड़ा केन्द्र था। वहां बड़े सूफी थे, गुरु थे, पूरी बस्ती ही सूफियों की थी। खबर मिली सूफियों के गुरु को, तो उसने सुबह ही सुबह गुरुनानक देव जी के लिए एक कप में भर कर दूध भेजा। दूध लबालब भरा था। एक बूंद भी और न समा सकती थी। उन्होंने पास की झाड़ी से एक फूल तोड़कर उस दूध की प्याली में डाल दिया। फूल तिर गया। फूल का वज़न क्या? उसने जगह न माँगी। वह सतह पर तिर गया। और प्याली वापस भेज दी। श्री गुरुनानक देव जी का शिष्य मरदाना बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है? उसने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं , क्या रहस्य है? यह हुआ क्या? श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया, कि सूफियों के गुरु ने खबर भेजी थी कि गांव में बहुत ज्ञानी हैं, अब और जगह नहीं। मैने खबर वापस भेज दी है कि मेरा कोई भार नहीं है। मैं जगह मांगूंगा ही नहीं, फूल की तरह तिर जाऊँगा।
     जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वज़न है, अभी अज्ञानी है, और जब तुममे वज़न होता है तब तुमसे दूसरे को चोट पहुंचती है। जब तुम निर्भार हो जाते हो, तब तुम्हारे जीवन का ढंग ऐसा होता है कि उस ढंग से चोट पहुंचनी असंभव हो जाती है। अहिंसा अपने-आप फलती है, प्रेम अपने-आप लगता है, कोई प्रेम को लगा नहीं सकता, और न कोई करुणा को आरोपित कर सकता है। अगर तुम निर्भार हो जाओ, तो ये सब घटनाएं अपने से घटती हैं, जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध व हत्या चलती है। हल्के मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने-आप चलती है इसलिए मौलिक सवाल भीतर से अंहकार को गिरा देने का है।

Tuesday, August 23, 2016

गुरु की तालाश


   एक दिन श्री वचन हुये कि अधिकतर लोग यह कहते हैं कि कोई पूर्ण सन्त मिलते ही नहीं, गुरु करें तो किस को करें? उनसे यह पूछना चाहिये कि क्या तुम पूर्ण शिष्य की श्रेणी पर पहुँच गये हो,जो तुमको पूर्ण गुरु के न मिलने की शिकायत है?यदि तुम्हें पूर्ण गुरु मिल भीजायें, तो तुम उनको किस प्रकार पहचान सकोगे? पूर्ण की पहचान भी तो पूर्ण ही कर सकता है। यदि तुमको वे पूर्णपूरुष ज्ञान-ध्यान आदि की बातें बताना चाहें, तो क्या उनके उच्चकोटि के विचारों और दृष्टकोण को समझने की योग्यता भी तुम में है?उदाहरणार्थ यदि किसी एम.ए.पास प्रोफैसर को दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाने पर नियुक्त कर दिया जाये, तो वे विद्यार्थी उसके व्याख्यान और उच्चविचारों को कब समझ सकते हैं?और यदि प्रोफैसर उनके साथ माथापच्ची करे तो आश्चर्य नहीं कि दो-चार दिन में ही परेशान होकर अपने काम से भी जाता रहे। प्राथमिक कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने के लिये मैट्रिक पासअध्यापक की आवश्यकताहै जो सिर पचा-पचा कर उनको पढ़ाया करेऔर एम.ए.पास अध्यापक बी.ए.अथवा एफ.ए.के छात्रों को पढ़ाने का कार्य कुशलता पूर्वक कर सकता है और इन कक्षाओं के छात्र उसके दृष्टिकोण और संकेतों को भली प्रकार समझ सकते हैं।इसी प्रकार अनाधिकारी द्वारा भी पूर्ण पुरुषों की खोज करना व्यर्थ है,क्योंकि यदि पूर्ण पुरुष मिल भी जायें तो वह न उनकी पहचान कर सकेगा और न उनकी शिक्षा पर उसको निश्चय आवेगा।इसलिये जिज्ञासु को चाहिये कि जो भी साधु-सन्त मिलें, उनसे श्रद्धा एवं आस्था सहित अत्यन्त प्रेम और उत्साह से मिले और उनकी सेवा तथा सत्कार करे,जैसा कि कथन हैः-
          तुलसी या संसार में, सबसे मिलिये धाय।।
          न जाने किस भेस में नारायण मिल जायें।।
 फरमाते हैं कि ऐ जिज्ञासु!यदि तुझे पूर्ण पुरुषों से मिलने की अभिलाषा है तो तू प्रत्येक साधू-सन्त सेश्रद्धासहित मिलऔर उनकी पवित्र संगति से लाभ उठा।शनैः शनैः जब तुझमें योग्यता उत्पन्न हो जायेगी, तब एक दिन तुझे पूर्ण महापुरुष जो कुल मालिक का साकार रूप होते हैं,अवश्यमेव मिल जायेंगे। जिज्ञासु को चाहिये कि प्रत्येक साधू-सन्त से मिले और उनका सतसंग करके अपने को अधिकारी बनाए और उनकी बताई हुई युक्ति पर श्रद्धा और विश्वास के साथ आचरण करे तथा उसकी कमाई करे।इस प्रकारआचरण करते रहने से जब वह अधिकारी बन जायेगा तो उसे एक दिन पूर्ण सन्त सदगुरु भी अवश्य मिल जायेंगे।
दाना डालना परिन्दों को शुरु कर दे।इक दिनआयेगा  हंस ज़रूर बन्दे।।
कहते हैं कि एक लड़का अपने पिता के साथ मेला देखने गया। मेले में प्रायः भीड़-भाड़ तो हुआ ही करती है, संयोग से वह लड़का उस भीड़ में अपने पिता से अलग हो गयाऔर लगाअपने पिता को ढूँढने।चूँकि उसके पिता ने सिर पर पीला साफा बाँध रखा था, इसलिये जो व्यक्ति भी पीला साफा बाँधे हुए दिखाई देता,उसी के पास दौड़ कर जाता,परन्तु पास जा कर जब उसे देखता तो अपने पिता को न पाकर उदास हो जाता। इतने पर भी उसने अपना प्रयास न छोड़ा और जिसके सिर पर पीला साफा देखता,उसी से दौड़ कर मिलता।अन्तः प्रयासऔर खोज करते-करते उसे अपना पिता भी मिल गया।इसी प्रकार साधू-महात्माओं से भी मिलते रहना चाहिये और उनसे जितना भी सत्संग का लाभ प्राप्त हो सके,प्राप्त कर लेना चाहिये। होते-होते एक दिन मनोकामना पूर्ण होगी और पूर्ण महापुरुषों के दर्शन भी हो जायेंगे।
       प्रिउ  प्रिउ  करती  सभु  जगु  फिरी मेरी  पिआस  न  जाइ।।
       नानक सतिगुरि मिलिए मेरी पिआस गई पिरु पाइया घिर आइ।।
मालिक के दर्शनऔर उसकी प्राप्ति की आशा को लेकर मैं स्थान स्थान पर फिरता रहा, परन्तु मेरी पिपासा शान्त न हुई श्री गुरुनानकदेव जी फरमाते हैं कि जब मुझे पूर्ण पुरुष सदगुरु देव जी मिले, तब मेरी तृषा शान्त हुई और मुझे अपने घट में ही गुरु-कुपा से मालिक  का दर्शन प्राप्त हुआ।

Friday, August 19, 2016

खुदा की अँगुली में अँगुठी पहना दो


        चूँ  तू  करदी  जाते मुर्शिद रा कबूल।।
        हम खुदा दर जातिस आमद दम रसूल।।(मौलाना रुम साहिब)
अर्थः-जब कि तूने मुर्शिदे कामिल को मान लिया है अर्थात उनकी शरण ले ली है तो विश्वास रख कि खुदा और रसूल उसी में आ गए। मुर्शिद की ज़ात से अलग उनकी कोई हस्ती नहीं। भाव यह है कि चूंकि आम संसारी लोग सच्चाई और रूहानियत से दूर होते है। उन्हें सच्चाई की खबर तो होती नहीं। इसी कारण सच कहने वाले पर एतराज़ करते हैं।
     मालेर कोटला(हरियाणा)का किस्सा है।कुछ दिनों पहले जिस समय वहां नवाब की हकूमत थी।एक बार उस शहर में एक फकीर साहिब ने एक सुनार से कहा-कि खुदा की उंगली में अंगूठी डाल दो और अपनी उँगलीआगे कर दी।संयोगवश वहां पर बहुत से मुसलमान खड़े थे,उनको यह बात बहुत बुरी लगी। यह काफिर है इसे पकड़ो और सजा दो। बात बढ़ते बढ़ते नौबत यहां तक पहुँची कि फकीर साहिब पकड़े गए।अदालत में मुकद्दमा पेश हुआ। मौलवी और काज़ियों ने अपनी सम्मति से फतवा दे दिया कि इसे फाँसी दे दी जाय।
     फकीर साहिब बेपरवाह थे।न जीने की खुशीऔर न मरने का गम। सूली का प्रबन्ध किया गया। पूछा गया कि कोई आखिरी खाहिश है? फकीर साहिब हँसे। कहने लगे अच्छा हम नवाब से मिलना चाहते हैं। जिसने फाँसी का हुक्म दिया है।नवाब के समक्ष उसे लाया गया। फकीर साहिब ने प्रश्न किया यह दुनियाँ किस की है? नवाब साहिब ने जवाब दिया खुदा की।फकीर साहिब-""मुल्क व दौलत-माल वगैरा किसका है? ''नवाब साहिब-""खुदा का''फकीर साहिब-'' इन सब इन्सानों को किसने बनाया?''नवाब-''खुदा ने''फकीर साहिब-""यह सब किसके हुए।''नवाब-खुदा के।फकीर साहिब -यह सब जिस्म व जान किसकी हुई।'' नवाब-""खुदा की। फकीर साहिब-""जानता है तू किसका है।'' नवाब ने कहा-खुदा का। तेरीआँख,तेरा हाथ आदि किसके हैं?खुदा का। फकीर साहिब इसी तरह हरेक चीज़ हाथ,पैर कान,आँख आदि का नाम लेकर सब की बाबत प्रश्न करते रहे। नवाब जवाब देते देते थक गया।और उन्हें क्रोध आ गया।पूछा, आप क्या चाहते हैं। फकीर साहिब ने हँस कर फरमाया गज़ब करते हो जब कि यह सब कायनात खुदा की है, तुम्हारा जिस्म खुदा का है और जिस्म का एक एक अंग खुदा का ठहरा तो क्या ये बेचारी उंगली खुदा की नहीं?नवाब साहिब के होश ठिकाने हुए। मौलवी और काजी सब दंग रह गए। तुरन्त पहला हुक्म मंसूल करके रिहाई का हुक्म सुनाया गया।
इस सबका भाव और सारांश यह है कि भगवंत का अर्थ पूर्ण गुरु से है। दूसरे शब्दों में रूहानियत के सब संतसत्पुरुषों का भी यहीफरमान है कि परिपूर्ण संत सतगुरु ही साक्षात  पूर्णब्राहृ भगवंत का स्वरुप हैं और परि पूर्ण संतसदगुरु का सच्चा भक्त ही वास्तव में भगवंत का सच्चा भक्त है।

Tuesday, August 16, 2016

नाम बेड़ी सन्त मल्लाह


          नाम बेड़ी सन्त मल्लाह। पार लगावें ख्वाहमखाह।।
     एक सुबह, एक घुड़सवार एक रेगिस्तानी रास्ते से निकल रहा था। एकआदमी सोया हुआ हैऔर उस घुड़सवार ने देखा,उस आदमी का मुंह खुला हुआ हैऔर एक छोटा सा साँप उसके मुँह में चला गया।वह घुड़- सवार उतरा। उसके पीछे उसके दो साथी थे। उनको उसने बुलाया। उस आदमी को उठायाऔर ज़बरदस्ती उसे घसीटकर पास ही नदी के किनारे ले गये और ज़बरदस्ती उन तीन चार लोगों ने उसे पानी पिलाना शुरु किया। वह आदमी चिल्लाने लगा,क्या तुम मनुष्यता के शत्रु हो,तुम क्यों मुझे पानी पिला रहे हो?तुम क्यों मुझे परेशान कर रहे हो?क्याज़बरदस्ती है यह?लेकिन उन्होंने बिल्कुल भी नहीं सुना। वे ज़बरदस्ती पानी पिलाते गये।वह नहीं पीने को राज़ी हुआ,तो उन्होंने धमकी दी कि वे उसे कोड़ों से मारेंगे। उस गरीब आदमी को ज़बरदस्ती पानी पीना पड़ा।लेकिन वह पानी पीता गयाऔर चिल्लाता गया, विरोध करता गया कि तुम क्या कर रहे हो? मुझे पानी नहीं पीना है। जब बहुत पानी वह पी गया, तो उसे उल्टी हो गयी और उस पानी के साथ वह छोटा सा साँप भी बाहर निकला। तब तो वह हैरान रह गया।वह आदमी कहने लगा कि तुमने पहले क्यों न कहा?मैं खुद ही अपनी मर्ज़ी से पानी पी लेता। उस घुड़- सवार ने कहा,मुझे जीवन का अनुभव है पहली बात, अगर मैं तुमसे कहता कि सांप तुम्हारे मुंह में चला गया है। तो तुम हँसते और कहते, क्या मज़ाक करते हैं। सांप और कही मुंह में जा सकता है?दूसरी बात, अगर तुम विश्वास कर लेते, तो यह भी हो सकता था कि तुम इतना
घबड़ा जाते कि तुम बेहोश हो जाते।और तुम्हें बचाना मुश्किल हो जाता।तीसरी बात,यह भी हो सकता था कि तुम पानी भी पीने को राज़ी होते,तो हमारे समझाने बुझाने में इतनी देर लग जाती कि फिर उस पानी पीने का कोई अर्थ न रहता। मुझे क्षमा करना, उस घुड़सवार ने कहा, मज़बूरी में हमें तुम्हारे साथ जोर करना पड़ा।उसके लिए क्षमा कर देना। लेकिन वह आदमी धन्यवाद देने लगा हज़ार हज़ार धन्यवाद देने लगा। यही आदमी थोड़ी देर पहले चिल्ला रहा था कि क्या तुम आदमियत के शत्रु हो, तुम यह क्या कर रहे हो? एक अन्जान आदमी के साथ यह क्या ज़बरदस्ती हो रही है। अब वह हज़ार हज़ार धन्यवाद दे रहा है।


Thursday, August 11, 2016

संत सेवा हेतु सब कुछ कुर्बान


एक बार बारिश के मौसम में कुछ साधू-महात्मा अचानक कबीर जी के घर आ गए , बारिश के कारण कबीर साहिब जी बाज़ार में कपडा बेचने नही जा सके, ओर घर पर खाना भी काफी नही था , उन्होंने अपनी पत्नी लोई से पूछा , " क्या कोई दुकानदार कुछ आटा -दाल हमें उधार दे देगा , जिसे हम बाद में कपडा बेचकर चूका देगे " पर एक गरीब जुलाहे को भला कौन उधार देता जिसकी कोई अपनी निशिचत आय भी नही थी। लोई कुछ दुकानदार पर सामान लेने गई पर सभी ने नकद पैसे मांगे। आखिर एक दुकानदार ने उधार देने के लिए उसके सामने एक शर्त रखी, वह एक रात उसके साथ बिताएगी, इस शर्त पर लोई को बहुत बुरा तो लगा, लेकिन वह खामोश रही,,, जितना आटा-दाल उन्हें चाहिए था, दुकानदार ने दे दिया, जल्दी से घर आकर लोई ने खाना बनाया , ओर जो दुकानदार से बात हुई थी कबीर साहिब को बता दी ,, रात होने पर कबीर साहिब ने लोई से कहा की दुकानदार का क़र्ज़ चुकाने का समय आ गया है , साथ में यह भी कहा की चिंता मत करना , सब ठीक हो जाएगा, जब वह तैयार हो कर जाने लगी, कबीर जी बोले क़ि बारिश हो रही है ओर गली कीचड़ से भरी है , तुम कम्बल ओढ़ लो , मै तुमे कंधे पर उठाकर ले चलता हू,,, जब दोनों दुकानदार के घर पर पहुचे , लोई अन्दर चली ओर कबीर जी दरवाजे के बाहर उसका इंतज़ार करने लगे,,, लोई को देखकर दुकानदार बहुत खुश हुआ ,,, पर जब उसने देखा की बारिश के बावजूद न लोई के कपडे भीगे है ओर ना पाँव , तो उसे बहुत हैरानी हुई , उसने पूछा " यह क्या बात है क़ि कीचड़ से भरी गली में से तुम आई हो , फिर भी तुमारे पावो पर कीचड़ का एक दाग भी नही , तब लोई ने जवाब दिया " इसमें हैरानी की कोई बात नही , मेरे पति मुझे कम्बल ओढा कर अपने कंधे पर बिठाकर यहाँ पर लाये है ... यह सुनकर दूकानदार बहुत दंग रह गया, लोई का निर्मल ओर निष्पाप चेहरा देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ और अविश्वास से उसे देखता रहा, जब लोई ने कहा की उसे पति कबीर साहिब जी वापस ले जाने के लिए बाहर इंतज़ार कर रहे है तो दुकानदार को अपनी नीचता ओर कबीर साहिब जी की महानता को देख-देख कर शर्म से पानी-पानी हो गया , उसने लोई ओर कबीर साहिब जी से दोनों घुटने टेक कर क्षमा मांगी , कबीर साहिब जे ने उसको क्षमा कर दिया ओर दुकानदार , कबीर जी के दिखाए हुए मार्ग पर चल पड़ा जोकि था परमार्थ का मार्ग, ओर समय के साथ उनके प्रेमी भक्तो में गिना जाना लगा, भटके हुए जीवो को सही रास्ते पर लाने के लिए संतो के अपने ही तरीके होते है ,

" संत ने छोड़े संतई चाहे कोटिक मिले असंत ,
चन्दन विष व्यामत नही लिपटे रहत भुजंग "

पूर्ण संत हर काल में हर किसी की के मन की मैल ओर विकारो को प्रभु का ज्ञान करवाकर प्रभु की कृपादर्ष्टि का पार्थ बनाता है ...

Saturday, August 6, 2016

महात्मा जी से चिलम माँगी


     एक महात्मा जो शान्त,गम्भीर स्वभाव के थे, किसी बन में एकान्त कुटिया बनाकर रहते थे।मनुष्य में यदि सद्गुण हों,तो उसकी ख्याति फैल ही जाती है। इन महात्मा के सम्बन्ध में भी धीरे धीरे यह बात दूर दूर तक फैल गई कि आपने क्रोध को जीत लिया है, शान्त शीतल स्वभाव रखते हैं तथा क्षमा और नम्रता आपमें कूट कूट कर भरी है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं,जो औरों की प्रशंसाऔर बड़ाई सहन नहीं कर सकते। इसी प्रकार के कुछ लोगों मे यह ठहरी कि इन महात्मा को क्रोध दिलाया जाये।अति उदण्ड प्रकृति के दो व्यक्तियों ने इस बात का बीड़ा उठाया। वे दोनों महात्मा जी की कुटिया पर आये।
     एक ने आते ही कहा,"'महाराज!ज़रा गाँजे की चिलम तो दीजिये।'' महात्मा जी ने नम्र स्वर में उत्तर दिया,"'भाई!हम न गाँजा पीते हैं, न रखते हैं।''तब दूसरा व्यक्ति बोला,""अच्छा!तो तम्बाकू ही पिलवा दीजे।'' महात्मा जी ने कहा,"'हमने तम्बाकू भी कभी इस्तेमाल नहीं किया।'' पहले व्यक्ति ने कहा,""तब तुम साधू होकर जंगल में बैठे क्या करते हो, जबकि तुम्हारे पास न गाँजा है, न चिलम?''
     महात्मा जी सुनकर मौन रहे।परन्तु उधर मौन रहने वाले कहाँ थे? वे तो निश्चय ही करके आये थे कि महात्मा को क्रोध  दिलाना है, इतने में ही वे सब तमाशबीन लोग,जिन्होंने इन्हें यहाँ भेजा था,वे भी इधर उधर से आकर वहाँ एकत्र हो गये,उनके आ जाने पर इन दोनों में से एक ने सब को सुना सुनाकर महात्मा जी पर अनेक मिथ्या दोषारोपण किये। दूसरा भी मौन न रहा। दोनों का अभिप्राय यही था कि किसी प्रकार महात्मा जी को क्रोध आये। परन्तु महात्मा जी पर उनकी इन वाहियात बातों का कुछ भी प्रभाव न पड़ सका और वे पूर्ववत् मौन रह कर सब कुछ सुनते रहे।जब दोनों के द्वारा गालियों के कठोर पत्थर फैंके जाने पर भी उधर से एक तिनका भी फेंका जाता न दिखाई दिया, तो वे दोनों भी थककर मौन हो रहे।अब महात्मा जी अपने स्थान से उठे और शान्त भाव से हँसकर बोले,"'कल ही एक भक्त  शक्कर की एक पुड़िया हमारी भेंट कर गया था। यह लो और इसे जल में घोलकर पी लो, जिससे तुम्हें कुछ शान्ति मिले। तुम लोग बहुत थक गये हो।''
    बुराई के बदले में महात्मा जी का ऐसा सद्व्यवहार देखकर वे दोंनों मारे लज्जा के गड़ से गये। उन्होंने महात्मा जी के चरणों में सर टेक दिया औरअपने अपराध की क्षमा मांगने लगे।और जब महात्मा जी ने हँसकर उन दोनों को क्षमा कर दिया,तो उन्होने पूछा,""महाराज! हमारे इतना कुछ अपशब्द कहने पर भीआपको क्रोध क्यों नहीं आया? महात्मा जी ने उसी प्रकार स्मित-हास्य-पूर्वक उत्तर दिया,""भैय्या!जिसके पास जो भी जिन्स होती है,वह उसी का ढिंढोरा पीटता है और दूसरों को भी वही माल पेश कर सकता है।तुम्हारे पास जो जिन्स थी,वह तुमने हमें दिखला दी। अब हमारे पास जो माल है,बस हम तम्हें पेश कर रहे हैं। तुम्हारी जिन्स तुम्हारे लिये अच्छी हो तो  हो, हमें वह नापसन्द है, इसलिये हमने लौटा दी।'' यह सुनकर दोनों और भी लज्जित हुए और एक बार फिर उन्होने महात्मा जी के चरण  पकड़ कर क्षमा-याचना की। तब महात्मा जी ने कहा,"" सुनो! गलती कोई अऩ्य व्यक्ति करे और हम व्यर्थ अपने मन में आग जला लें, भला यह कहाँ उचित है?क्रोध तो भयानक आग है। यदि तुम्हारे बुरा व्यवहार से हम अपने ह्मदय में आग जला लें, तो अपना ह्मदय ही जलेगा। किसी अन्य का इसमें क्या जावेगा,हमें तो सच्चे गुरु ने यह शिक्षा दी है कि क्रोध करनाऔर अपने तन में छुरा घोंप लेना एक बराबर है। औरों से ईष्र्या करनाऔर विष के घूँट पीना एक ही बात है। दूसरों को गाली देना अपने आपको गाली देना है। किसी के भी दुव्र्यवहारअथवा गालियों से हमारा बिगड़ता ही क्या है,जो हम वृथा क्रोध करें?''उन लोगों ने भी क्रोध तथा दुव्र्यहार से तौबा करली,जिससे उनके जीवन सुधर गये।

Tuesday, August 2, 2016

शेख सादी साहिब धन चोर ले गये


शेख सादी साहिबअपने समय में माने हुए व्यक्ति थे। फकीरों साधु-सन्तों की संगति से उन्होंने सन्तोष रूपी शिक्षा को दृढ़ता से पल्ले बाँध लिया। भगवान की कृपा से घर में धन-माल सब कुछ था परन्तु इसके लिये उन्हें अहंकार नहीं था।कोई सम्बन्धी कहता कि मियाँ!इतना क्या करोगे? उत्तर देते कि जिसका है वही सम्भाल लेगा मुझे क्या चिन्ता? शेख सादी साहिब तोअपनी मस्ती में मस्तदुनियाँ का कार्य-व्यवहार करके हुएफकीरों की संगति में समय व्यतीत करते हुए जीवन का लाभ ले रहे थे।
     कुछ समय बीता।कुछ धन सन्तों की सेवा-टहल में खर्च कर दिया और शेष को चोर चुराकर ले गए। किसी मित्र ने कहा-मियाँ! अब कैसे बसर होगा?उत्तर मिला कि जैसे पहले था वैसे अब हूँ,मेरा धन तो कहीं नहीं गया।उसीअनुरूप ही फकीरों की सेवा टहल जो पहले धन से करते थे अब तन से करने लगे। इसी पर सन्तोष था कि ऊँट तो उनके पास है जिससे आने जाने में असुविधा नहीं थी।
          जो कुंजे कनाअत में है तकदीर पर शाकिर।
          है जौक  बराबर  उन्हें कम और जियादा।।
जो सन्तोषी है,वे भाग्य पर भरोसा रखते हैं। उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर है।उन्हें जो मिलजाए उसी पर सब्रा करते हैं। एक बार यह घटना घटित हुई कि एक सौदागर ऊँटों पर कुछ लादकर ले जा रहा था। उसने अपना धन माल सुरक्षा की दृष्टि से एक बहुत ही बूढ़े लद्दू ऊँट पर लाद दियाऔर उस पर टूटी-फूटी काठी रख दी और उस काठी में अशर्फियों की थैली रख दी। ऐसा उसने इसलिये किया ताकि बूढ़े ऊँट पर किसी की दृष्टि न पड़े।वह सौदागर जंगल से गुज़र रहा था कि अकस्मात् युद्ध में शत्रु से लूटा माल लेकर कुछ लोगआ रहे थे, उन्होंने सौदागर से सब ऊंट व माल छीन लिए।उनमें वह बूढ़ा ऊँट भी था।सभी सरदार अन्य ऊंटों पर सवार हो गएऔर एक सरदार अभी कुछ दूर बूढ़े ऊँट पर जा ही रहा था कि उधर से शेख सादिसाहिबअपने ऊंट पर सवार मिल गए। वह ऊँट भी अच्छा था और काठी भी नई थी।सरदार ने""आव न देखा ताव''बूढ़े ऊंट से उतर कर शेख सादि साहिब के अच्छे ऊँट को छीन लियाऔरअपना बूढ़ा ऊंट उन्हें दे दिया और कहा कि चल बैठ इस ऊंट परऔर चला जा।वह सरदार शेख सादि साहिब के ऊँट को लेकर चला गया। शेख सादिसाहिब बूढ़े ऊँट को लेकरअपने घर आ गए।और कहने लगे किअच्छा हुआ परमात्मा ने अब इसकी सेवा टहल करने को दिया है।ज्यों ही ऊंट से काठी उतारकर एकओर रखने लगे कि झनझनाती स्वर्ण मोहरें थैली में से गिर पड़ींऔर ऊंट से चीथड़ों की कमानी उतारी तो ढेर धन उसमें छिपा पाया।उन्होने आकाश की ओर देखकर कहा-वाह भगवान!सच है,जिसे देता है छप्पर फाड़कर देता है।और मुझे थप्पड़ खा कर ज़बरदस्ती लेना पड़ा।भगवान जो कुछ करता हैअच्छाही करता है।

Saturday, July 30, 2016

मूसा मरेया मौत से आगे मौत खड़ी


एक फकीर से किसी ने जाकर पूछा कि हमें मृत्यु और जीवन के संबंध में कुछ समझाये?उस फकीर ने कहा कहीं और जाओ। अगर केवल जीवन के सम्बन्ध में ही समझना हो तो मैं समझाऊँ लेकिन मौत के
सम्बन्ध में समझना हो तो कहीं और जाओ। क्योंकि मौत को तो हम जानते ही नहीं कि कहीं है। हम तो केवल जीवन को जानते हैं।
    जो जानता है वह केवल जीवन को जानता है इसके लिए मौत जैसी कोई चीज़ रह ही नहीं जाती।और जो सोता है वह केवल मौत को ही जानता है वह जीवन को कभी नहीं जान पाता।सोया हुआआदमी इन अर्थों में मरा हुआआदमी है।उसे जीवन का केवलआभास है,कोईअनुभव नहीं।वह सोया हुआ है इसलिए वह एक जड़ यंत्र है,सचेत आत्मा नहीं। और इस सोये हुए होने पर वह जो भी करेगा,वह मृत्यु के अलावा उसे कहीं नहीं ले जा सकता है, चाहे वह धन एकत्र करे,चाहे वह धर्म एकत्र करे, चाहे वह दुकान चलाये और चाहे वह मन्दिर जाए चाहे वह यश कमाये और चाहे वह त्याग करे। उसका कुछ भी करना उसे मृत्यु के बाहर नहीं ले जा सकता है।
    एक राजा ने रात सपना देखा। वह घबरा गया और उसकी नींद टूट गई। फिर तो उतनी रात उसने सारे महल को जगा दिया और सारी राजधानी में खबर पहुँचा दी कि मैने एक सपना देखा है। जो लोग मेरे सपने का अर्थ कर सकें, उसकी व्याख्या कर सकें, वे शीघ्र चले आयें। गांव के जो भी पंडित थे,विचारशील लोग थे,ज्ञानी थे,भागे हुए राजमहल आये। और उन्होंने राजा से पूछा कि कौन सा सपना आपने देखा है कि आधी रात को आपको हमारी ज़रूरत पड़ गई। उस राजा ने कहा, मैने सपने में देखा है कि मौत मेरे कंधे पर हाथ रखकर खड़ी हैऔर मुझसे कह रही है कि साँझ ठीक जगह परऔर ठीक समय पर मुझे मिल जाना।मुझे तो कुछ समझ में नहींआता कि इस सपने का क्या अर्थ है?
तुम्हीं मुझे समझाओ। ये लोग विचार में पड़ गये और सपने का अर्थ करने लगे। क्या होगा, इसकी सूचना क्या है? इसके लक्षण क्या हैं? और तभी महल के एक बूढ़े नौकर ने राजा को कहा,इनके अर्थ और इनकी व्याख्यायें और इनके शास्त्र बहुत बड़े हैं। और साँझ जल्दी हो जायेगी। मौत ने कहा है साँझ होते होते सूरज ढलते ढलते मुझे ठीक जगह पर मिल जाना। मैं तुम्हें लेने आ रही हूँ। उचित तो यह होगा कि आपके पास जो तेज से तेज़ घोड़ा हो, उसको लेकर इस महल से साँझ तक जितनी दूर हो सके निकल जायें।इस महल में अब एक क्षण भी रुकना खतरनाक है। जितनी दूर जा सकें, चले जायें। मौत से बचने का इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। और अगर इन पंिडतों की व्याख्या के लिए रुके रहे तो ये क्या अर्थ करेंगे तो मैं आपसे कह देता हूँ कि ये पंडित जो आज तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं, कोई निष्पत्ति और कोई समाधान पर नहीं पहुँचे हैं हालाँकि हज़ारों साल से विचार कर रहें हैं। जब ये अभी तक जीवन का ही कोई अर्थ नहीं निकल पाये तो मौत का क्या अर्थ निकाल पायेंगे?साँझ बहुत जल्दी हो जायेगी इनका अर्थ न निकल पायेगा।आप भागें यही ठीक है। इस महल को जल्द से जल्द छोड़े दें यही उचित है। राजा को बात समझ में आई। उसने अपना तेज़ से तेज़ घोड़ा बुलवायाऔर उस पर बैठ कर भागा। दिन भर वह भागता रहा।न उसने धूप देखी न छाँव न उस दिन उसे प्यास लगी,न भूख। जितनी दूर निकल सके उतने दूर निकल जाना था। मौत पीछे पड़ी थी। महल से जितना दूर हो जाये उतना ही अच्छा था। जितना मौत के पंजे से बाहर हो जाये उतना ही अच्छा था। साँझ होते होते, वह सैंकड़ों मील दूर निकल गया। सूरज ढल रहा था। उसने एक बगीचे में जाकर घोड़ा ठहराया।वह प्रसन्न था कि वह काफी दूर आ गया है। जब घोड़ा बाँध ही रहा था तभी उसे अनुभव हुआ कि पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रख दिया है।उसने लौटकर देखा। वह घबरा गया।उसके सारे प्राण कंप गये। जो काली छाया रात सपने में उसे दिखाई पड़ी थी वही खड़ी थी। घबरा कर राजा ने पूछा तुम। तुम कौन हो?उसने कहा,मैं हूँ तुम्हारी मृत्यु क्या भूल गयेआज की रात ही मैने तुम्हें स्मरण दिलाया था कि साँझ होने के पहले,सूरज ढलने के पहले, ठीक समय,ठीक जगह पर मुझे मिल जाना। मैं तो बहुत घबराई हुई थी क्योंकि जहां तुम थे,वहां से इस वृक्ष के नीचे तक, ठीक समय पर आने में बहुत कठिनाई थी। लेकिन तुम्हारा घोड़ा बुहत तेज़ थाऔर उसने तुम्हें ठीक समय,ठीक जगह पर पहुँचा दिया। मैं तुम्हारेघोड़े को धन्यवाद देती हूँ।इस जगह तुम्हें मरना थाऔर मैं चिन्तित थी कि सूरज ढलने तक तुम इस जगह तक आ भी पाओगे या नहीं।
    दिन भर की दौड़ साँझ को मौत में ले गई। सोचा था बचने के लिए भाग रहा है। और उसे पता भी न था कि बचने के लिए नहीं भाग रहा था बल्कि जिससे बचना चाह रहा था प्रतिक्षण उसके ही निकट होता जाता था।उसे पता भी न था कि उसका उठाया हुआ प्रत्येक कदम उसे मौत के मुँह में ले जा रहा था। हम सब भी अपने अपने घोड़े पर सवार हैं। और हम सब भी मौत के मुँह में चले जा रहे हैं। हम जो भी करेंगे, वह शायद हमें उस ठीक जगह पहुँचा देगा जहाँ मौत हमारी प्रतीक्षा कर रही है।और हम जिस रास्ते पर भी चलेंगे, वह हमें मौत के अतिरिक्त कहीं नहीं ले जायेगा आज तक यही होता रहा है।

Tuesday, July 26, 2016

जितनी ज़मीन घेर लो आपकी


     एक राजा का जन्मदिन था। कहते हैं उसने सारी ज़मीन जीत ली थी। अब उसके पास जीतने को कुछ भी नहीं बचा था। उसने अपनी राजधानी के सौ ब्रााहृणों को भोजन पर आमंत्रित किया। वे उसके राज्य के सबसे विचारशील पण्डित थे। जन्म दिन के उत्सव में उन्होने भोजन किया और पीछे उस राजा ने कहा, मैं तुम्हें जन्म दिन की खुशी में कुछ भेंट करना चाहता हूँ। लेकिन मैं कुछ भी भेंट करूँ तुम्हारी आकांक्षा से भेंट छोटी पड़ जायेगी। तुम न मालूम क्या सोचकर आये होंगे कि राजा क्या भेंट करेगा। तो मैं जो भी भेंट करूँगा, हो सकता है, वह छोटी पड़ जाये इसलिए मैं तुम्हारे मन पर ही छोड़ देता हूँ तुम्हारी भेंट। मेरे भवन के पीछे दूर दूर तक श्रेष्ठतम ज़मीन है राज्य की। तुम्हें जितनी ज़मीन उसमें से चाहिए उतनी पहले तुम दीवाल बनाकर घेर लो, वह तुम्हारी हो जायेगी। जो जितनी ज़मीन घेर लेगा, वह उसकी हो जायेगी।ऐसा मौका कभी न मिला था और वह भी ब्रााहृणों को। वे ब्रााहृण तो खुशी से पागल हो उठे।उन्होने अपने मकान बेच दिये,अपनी धन-संपत्ति बेच दी, सब बेचकर वे वड़ी दीवाल बनाने में लग गये। जो जितना उधार ले सकता था, मित्रों से माँग सकता था, सब ले आये थे।यह मौका अदभुत था।ज़मीन मुफ्त मिलती थी। राज्य की सबसे अच्छी ज़मीन थी।सिर्फ रेखा खींचनी थी,दीवाल बनानी थी।बड़ी बड़ी दीवालें उन्होने बनाकर जो जितनी ज़मीन घेर सकता था,घेर ली। तीन महीनों के बाद जबकि वह ज़मीन करीब करीब घिरने के निकट पहुँच गयी थी, राजा ने घोषणा की कि मैं एक खबर और कर देता हूँ जो सबसे ज्यादा ज़मीन घेरेगा उसे मैं राजगुरु के पद पर भी नियक्त कर दूँगा। अब तो पागलपन और तेज़ हो गया।अब जिसके पास जो भी था,कपड़े लत्ते भी बेच दिये।उच्च ब्रााहृणों ने अपनी लंगोटियाँ लगा लीं क्योंकि कपड़े लत्ते बेच कर भी चार र्इंट आती थीं तो थोड़ी ज़मीन और घिरती थी। वे करीब करीब नंगे और फकीर हो गये। वे ज़मीन घेरने में पागल हो गये। आखिर समय पूरा हो गया। ज़मीन उन्होने घेर ली। दिन आ गया, और राजा वहां गया और उसने कहा कि मैं जांच कर लूँ और राजगूरु का पद दे दूँ। तो तुममें से जिसने ज्यादा ज़मीन घेरी हो, वह बताये। जो दावा करेगा। उसकी जाँच कर ली जायेगी। एक ब्रााहृण खड़ा हुआ। उसको देखकर बाकी ब्रााहृण हैरान रह गये। वह तो सबसे ज्यादा गरीब ब्रााहृण था। उसने एक थोड़ा-सा ज़मीन का टुकड़ा घेरा था,शायद सबसे कम उसी की ज़मीन थी और वह पागल सबसे पहले खड़ा हो गया। और उसने कहा, मेरी ज़मीन का निरीक्षण कर लिया जाये,मैने सबसे ज्यादा ज़मीन घेरी है। मैं राजगुरु के पद पर अपने को घोषित करता हूँ।राजा ने कहा, ठहरो। लेकिन उसने कहा ठहरने की कोई ज़रूरत नहीं,मैं घोषित करता हूँ। बाद में तुम भी घोषणा कर देना चलो ज़मीन देख लो।
      जब उसने दावा किया था तो निरीक्षण होना ज़रूरी था सारे ब्रााहृण और राजा उसकी ज़मीन पर गयेऔर देखकर ब्रााहृण हँसने लगे। पहले तो उसने थोड़ी सी दीवाल बनायी थी। मालूम होता था, रात में उसने दीवाल तोड़ दी थी, रात दीवाल भी न रही। राजा ने कहा,कहाँ है तुम्हारी दीवाल?बस ब्रााहृण ने कहा, मैने दीवाल बनायी थी फिर मैने सोचा, दीवाल कितनी ही बनाऊँ जो भी घिरेगा वह छोटा ही होगा। फिर मैने सोचा दीवाल गिरा दूँ क्योंकि दीवाल कितनी ही बड़ी ज़मीन को घेरे तो भी ज़मीन आखिर छोटी ही होगी। घिरी होगी तो छोटी ही होगी।तो मैंने दीवाल गिरा दी है। मैं सबसे बड़ी ज़मीन का मालिक हूँ।मेरी ज़मीन की कोई दीवाल नहीं हैइसलिए मैं कहता हूँ राजगुरु की जगह खड़ा हूँ।
    राजा उसके पैर पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे पहली दफा ख्याल में आया है कि जो दीवाल गिरा देता है वह सबका हो जाता है, सबका मालिक हो जाता है और जो दीवाल बनाता है वह कितनी ही बड़ी दीवाल बनाये तो भी ज़मीन छोटी ही घेर पाता है। मनुष्य के चित्त पर बहुत दीवालें हैं, इसके कारण मनुष्य को बड़ा करना है तो उसकी सारी दीवालें गिरा देना ज़रूरी हैं और जो लोग भी इन दीवालों को गिराने में लगे हैं वे ही लोग मनुष्यता की सेवा कर रहे हैं। जिसके मन पर कोई दीवाल न हो तो वही सबका मालिक हो जाता है।

Saturday, July 23, 2016

सुग्रीव जी का मोह

कहते है कि जब सुग्रीव और भगवान श्री राम जी की मित्रता हो गई तो सुग्रीव ने प्रभु जी को माता सीता की खोज कर उन्हें वापिस ले के आने का वायदा किया। कुछ समय बीत गया श्री राम जी ने लक्ष्मण से कहा वर्षा ऋतु गई और शरद ऋतु आ गई परन्तु अभी तक जानकी जी की कोई सुध न मिली। जैसे कैसे एक बार कही से पता चल जाए कि जानकी फलां जगह पर है तो मुझे काल से क्यों न लड़ना पड़े, एक पल में उसे जीत कर सीता जी को वापस ले आऊं।
हे तात। जो जानकी कहीं भी हुई परन्तु जीती होगी तो चतन करके अवश्य ले आऊंगा। मालूम होता है सुग्रीव ने भी राज्य तख्त, शहर, स्त्री और खजाना पाकर हमारी सुधि विसार दी है अर्थात सुग्रीव भी माया में फंस कर हमको भूल गया है। जिस बाण से मैंने बाली को मारा है। इस मुर्ख का भी उसी बाण से नाश करूंगा।

जासु कृपा छूटे मद मोहा।
ताकहु उमा कि सपनेहु कोहा।।

शिवजी कहते है, हे पार्वती। जिनकी कृपा मात्र से ही संसार के मद, मान, मोह, छूट जाते है। उसमे सुपने के अन्दर भी क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता। यह केवल भय दिखाया है ताकि दास सावधान रहे। क्योंकि भय के बिना भक्ति नहीं हो सकती। भय तथा क्रोध के अन्तर्गत भी दास पर उनका प्यार भरा होता है। लक्ष्मण ने भगवान को क्रोधवंत जान धनुष बाण हाथ में लिया। भगवान ने देखा कि लक्ष्मण तो तैयार हो गया है, कहीं बेचारे सुग्रीव को मार ही ना डाले। तब करुणा सागर भगवान ने लक्ष्मण को समझाया कि हे भाई। सुग्रीव को केवल भय दिखाकर मेरे पास ले आओ, मारना नहीं क्योंकि वह मेरा मित्र है। उधर तो भगवान की मौज उठी कि लक्ष्मण जी के द्वारा वह सुग्रीव को अपने पास बुलाकर उससे अपना कारज करवाने की सोच रहे है तो इधर हनुमान जी के दिल में ख्याल हुआ कि भगवान का कार्य सुग्रीव ने विसार दिया है, उसे चेतन्य करना चाहिये।

सेवक स्वामी एक मत, जो मत में मत मिल जाय।
चतुराई रीझे नहीं, रीझे मन के भाये।।

हनुमान जी ने सुग्रीव के पास जाकर सिर निवाया और राज्य नीति के चारो नियमो साम, दाम, भेद और दण्ड को कह कर समझाया। हे राजन। साम (समान दृष्टि) से भगवान आप के साथ मित्रता बना चुके है। दाम (धन दौलत) के साथ राज्य आदि दे चुके है। अब रहे भेद और दण्ड के लिए भगवान का बाण है, जिससे बाली को मारा था। इसलिए शीघ्र ही जानकी जी की खोज का कार्य आरम्भ करना चाहिये। तब सुग्रीव ने सुनकर बड़ा भय माना। कहने लगा सच है, विषयो ने मेरी बुद्धि मार दी और ज्ञान हर लिया। अब हे हनुमान। शीघ्र ही जहाँ तहां दूत भेजे जावे और जानकी जी की कोई खोज निकाली जाये। उसके पश्चात लक्ष्मण जी भगवान की आज्ञा से शहर में आते है और सुग्रीव पर क्रोध करते है। परन्तु इधर तो भगवान की प्रेरणा से हनुमान जी ने पहले ही मार्ग साफ़ कर रखा था। सुग्रीव जी, लक्ष्मण जी से श्रमा मांगते है और सब मिलकर भगवान के पास जाते है, तब सुग्रीव जी भगवान के चरणकमलो में सिर निवाय हाथ जोड़कर प्रार्थना करते है। हे नाथ। मेरा कोई दोष नहीं है आपकी माया अति प्रबल है, जिसने मुझे भूला दिया है। हे देव। यह तब ही छूटती है जब आप दया करते है जैसे अब मै माया में फंस गया था और आपने दया करके मुझे छुड़ा लिया। हे स्वामी। सुर, नर, मुनि लोग भी विषयों के वश में है तो फिर मै अति नीच कामी पशु बन्दर की क्या गिनती है। हे नाथ। मेरा तो अनुभव यह है कि जिस मनुष्य को स्त्री के नेत्रों का बाण नहीं लगा, और जो मनुष्य क्रोध रुपी अँधेरी रात में जागा हुआ है अर्थात क्रोध और मोह अज्ञान से साफ़ है। हे प्रभु। जिसने लोभ रुपी फांसी में अपना गला नहीं बंधाया है वह मनुष्य तो आपके समान है अर्थात तुम में और उसमे कोई भेद नहीं है। परन्तु यह गुण जीव को अपनी साधना और कमाई से प्राप्त नहीं हो सकती, ये तो केवल आप की दया से ही कोई कोई पा सकते है।
        तब भगवान सुग्रीव की इस प्रकार ज्ञान, वैराग युक्त वाणी सुनकर हँसे। हे सुग्रीव। चिन्ता मत करो, तुम मुझे अपने भाई भरत के समान प्यारे हो। हे सखा अब मन लगाकर यही यतन करो जिससे जानकी की सुधि मिले। अब सीता जी की खोज शुरू हो जाती है, सुग्रीव जी आज्ञा पाते हुए, अनेक शूरवीर योद्धा अपनी-अपनी सेनाओ के सहित सब दिशाओ को चल पड़ते है। सबसे पीछे अंगद, नील, जाम्बवन्त और हनुमान आदि योद्धाओ को मुखातिव करते हुए सुग्रीव इस प्रकार शिक्षा देकर उनको दक्षिण दिशा को भेजते है। हे तात। भगवान अन्तर्यामी है, वह सब किसी के दिल की अवस्था को जानते है। अगर जीव कपट रख कर सेवा करता है तो भी वह अपने अन्तरीव रूप से उस कपट को जानते है। यदि वह बाहर से छल कपट से वर्ताव करता है तो भी वह जानते है। इसलिए भाइयो अन्दर और बाहर दो प्रकार से छल- हीन होकर सच्चाई के साथ जो सेवा का अवसर आपको मिला है उसे सफल बनाओ अर्थात स्वामी के सन्मुख रहकर सेवा करो, सन्मुख रहने से आपको शक्ति मिलेगी। इतनी वार्ता सुग्रीव के मुख से सुनकर वह सब योद्धा आज्ञा मांग और चरणों में सिर निवा कर हृदय में भगवान का ध्यान और सुमिरण करते हुए चल पड़े। सब से पीछे हनुमान जी ने सिर निवाया। तब भगवान ने यह विचार कर कि कार्य तो इनसे होगा, अपने निकट बुलाया। सिर के ऊपर कमल सा हाथ धर कर और अपना दास जान कर सीता की पहचान के निमित्त अंगूठी उतर कर दी और बोले- हे महावीर। जानकी जी को बहुत प्रकार से समझा कर हमारा विरह तथा बल बताना और धैर्य देकर शीघ्र वापस लौटना। यह वचन सुन कर हनुमान जी ने अपना जन्म सफल माना और कृपा निधान भगवान के सुन्दर रूप को हृदय में धर कर चल पड़े। हनुमान, अंगद, नल, नील, जाम्बवन्त आदि सब योद्धा अपनी सेना को साथ लिये हुए सीता जी की खोज कर रहे है। जंगल, पहाड़, गुफा, नदियाँ, तालाब और कुंए सब ढूंढे परन्तु सीता जी का कहीं भी पता जब नहीं मिलता, तब कुछ निराश होकर चिन्तातुर हो जाते है। समुन्द्र के किनारे डर्ब बिछाकर बैठे हुए सोचते है कि अब क्या किया जाये, तब अंगद नेत्रों में जल भर के कहता है- हे भाईयो। अब दोनों और से हमारी मृत्यु पास आ गई है क्योंकि इधर तो सीता जी का कुछ पता नहीं चल रहा और उधर वापिस जाने सुग्रीव मारेंगे। अंगद जी के इस प्रकार के वचन सुनकर सब शूरवीर नीचे मुहं करके नेत्रों से जल बरसाने लगते है। इस सब में जाम्बवन्त बुजुर्ग थे और पुराने होने के कारण भगवान की महिमा को जानते थे। सब को दुखी देखकर बोले भाईयो। घबराओ नहीं, इस समय आप परीक्षा के एक ऐसे दौर से गुजर रहे है, जो दौर भक्ति और सेवकाई के रस्ते में अक्सर भक्तो पर आया करते है इसलिए जो कुछ भी रास्ते में आता जाये उसे भगवान की इच्छा समझो और अपने कर्त्तव्य का पालन करते चलो। मोक्ष पद का सुख सबसे ऊपर है, बाकी सम्पूर्ण सुख इसमें आ जाते है। किन्तु भक्ति मार्ग में सेवक को एक छोटे से सुख से लेकर मोक्ष तक के सुख का भी त्याग कर देना चाहिये।
इस प्रकार जब परस्पर वचन हो रहे थे, तब पहाड़ की गुफा में संपाती इनकी बाते सुन रहा था। बाहर निकल आया और इन सब को देखकर दिल में खुश हुआ कि आज विधाता ने बहुत अच्छा आहार दिया है। आज इन सब को भश्रण करूँगा। बहुत दिन से भूखा मरा जाता था। कभी पेट भर भोजन नहीं मिला था। सो आज विधाता ने एक ही बार दे दिया। गीध के वचन सुनकर सब वानर डरे कि अब निश्चय ही मरण होगा। तब जाम्बवन्त सोचने लगे कि संपाती को देखकर यह दशा हुई तो आगे क्या बनेगा। अंगद चूँकि पहले से जानते थे कि यह संपाती जटायु के समान दूसरा कौन भाग्यवान होगा जो श्री रामचन्द्र जी के कार्य में अपना शरीर त्यागकर बैकुण्ठ को गया। यह बाते ऐसे ऊँचे स्वर से कहीं गई कि संपाती सुन ले। फिर अंगद बोले- जो जटायु के समान श्री राम चन्द्र जी के चरण कमलो में चित्त लगता है उसके समान कोई धन्य नहीं है। यह हर्ष शोक युक्त वाणी सुनकर संपाती निकट आ गया। तब सब वानर सुनकर संपाती निकट आ गया। तब सब वानर डरे। जानकी जी की सुधि न मिलने और सुग्रीव के भय से कुछ तो पहले ही घबराये हुए थे, परन्तु अब संपाती को देखकर रहा सहा खून भी खुश्क हो गया। जब उसे देखकर सब भागने लगे तब संपाती ने सौगन्ध दिला कर खड़े किये। उन्हें अभयदान देकर संपाती बोला डरो मत। मै भी श्री रामचन्द्र जी का सेवक हूँ। तुम कौन हो अपनी कथा सुनाओ। तब उन्होंने जटायु के मरने का और सीता की सुधि के निमित्त अपने आने का वृतान्त सुनाया। तब संपाती ने भाई की करनी सुनकर बहुत प्रकार से भगवान की महिमा वर्णन की, तब वह अपनी कथा सुनाने लगा। हे शूरवीरो। सुनो, हम दोनों भाई पहले जोबन अवस्था में इर्ष्या वश सूर्ये के निकट उड़ गये। जटायु तो तेज न सह सका और वापस लौट आया। मै अभिमान के वश हो सूर्ये के निकट होने लगा। परन्तु सूर्ये के अपार तेज से मेरे पंख जल गये और घोर चीत्कार कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। एक चन्द्रमा नाम के महात्मा थे, मुझे देखकर उनके दिल में दया आई। बहुत प्रकार से उन महात्मा ने सत्संग सुनाया और देह से उत्पन्न हुए अभिमान को दूर किया। तब वे बोले हे गीधराज। त्रेतायुग में भगवान मनुष्य का शरीर धारण करेंगे और उनकी स्त्री को रावण हर लेगा। उनकी खोज करने को वे दूत भेजेंगे तब उनके मिलने से तुम पवित्र हो जाओगे। तुम्हारे पंख नये जम आवेंगे, तुम चिन्ता मत करो। उन्हें तुम सीता दिखा देना। यह कहकर वह महात्मा अपने आश्रम को गये, उस समय हृदय में कुछ ज्ञान हुआ। फिर संपाती बोला हे भाईयो। मेरी एक कथा और सुनो। जो आपके लिए परम हितकारी है। मेरा सुर्षण नाम का पुत्र इस स्थान पर मेरी सेवा करता था। भूख से व्याकुल होकर एक दिन मैने उससे कहा, बेटा। शीघ्र कहीं से भोजन लाओ, नहीं तो प्राण निकलते है। पुत्र सिर पर आज्ञा धर कर चला। आकाश के मार्ग से एक घोर घने जंगल में जाकर उसने जंगल के अनेक जानवरों को मारा। सूर्ये के अस्त होने पर जब वह भोजन लेकर वापस आया तब मारे भूख के मुझे बड़ा क्रोध आया। मै नीच और क्रोध के वश पुत्र को शाप देने लगा। तब उसने मेरी बाँह पकड़ कर समझाया और कहा पिताजी। मेरी बात चित्त लगाकर सुनो। जब मै वन को शिकार के लिए गया तो वहाँ एक बड़ा उत्पात देखा। एक पुरुष जिसके दस सिर थे और बीस भुजा थी और शीघ्रता से मार्ग में चला जाता था उसके संग में एक सुंदर स्त्री थी। जिसका रूप कोई वर्णन नहीं कर सकता। उस पुरुष को भी एक जन्तु जानकर पीछे से पकड़ा और मारने लगा। परन्तु उस स्त्री को देखकर दया आई और उसे छोड दिया। मेरी बड़ी विनती करके और मुझसे छुटकारा पाकर वह दक्षिण दिशा को चला गया। इस कारण मुझे देर लग गई। वचन सुनते ही मुझे अंगार सा लगा अर्थात क्रोध आ गया। परन्तु अपनी गति न होने के कारण जी में हार गया कि मै अब पंखहीन क्या कर सकता हूँ। पुत्र से कहा अरे। मेरे तो पंख नहीं, तू ऐसा अवसर पाकर क्यों चूक गया। यह कह कर पुत्र के बल को धिक्कार दिया। अरे। तू उसे पकड़ कर मेरे पास क्यों नहीं लाया। वह तो रावण था और श्री रामचन्द्र जी की स्त्री को हरे जाता था। फिर मुझे उस महात्मा जी के वचन हृदय में फर आये कि भगवान सीता की खोज के लिए अपने दूत भेजेंगे। उनके दर्शन पाकर तुम्हारे पंख जम आवेंगे और तुम उनको मिलकर पवित्र होगे। ऐसा विचार कर मन को धीरज हुआ, सो उस दिन से प्रेम के साथ आपका मार्ग देखता था। सो आज उन महात्मा के वचन सत्य हुए। इसलिए मेरे वचनों को हृदय में धारण करो और भगवान का कार्य करो। और सुनो। त्रिकुट पर्वत के ऊपर लंकापुरी है। उस लंकापुरी में रावण का राज्य है। वहाँ अशोक नाम का एक बाग़ है वहाँ रावण की कैद में बैठी हुई जानकी जी सोचती रहती है। संपाती की वाणी सुनकर सब वानर दक्षिण दिशा को देखने लगे। संपाती बोला तुम यहाँ से उसे नहीं देख सकते परन्तु मै देखता हूँ। क्योंकि गीध की दृष्टि बड़ी अपार होती है। अब मै बूढा हो गया हूँ, नहीं तो आपकी कुछ सहायता अवश्य करता। सौ योजन समुन्द्र की चौडाई है जो कोई बुद्धिमान सौ योजन समुन्द्र लाँघ सके वही भगवान का कार्य कर सकता है जो कोई श्री भगवान का कार्य कर सके, उसके समान कोई बडभागी नहीं है। मुझे देखकर मन में धीरज धरो कि भगवान की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया, फिर पंख जम आये। जब भगवान के सेवको के दर्शन से इतना लाभ हो सकता है तो तुम उस भगवान के सेवक होकर चिंता न करो। यह समुन्द्र सौ योजन का है किन्तु तुम उस भगवान के सेवक जिनका नाम सुमिरण से अनेक पापी संसारी रुपी समुन्द्र से पार हो जाते है जिसका कोई पारावार ही नहीं है।।
          

Wednesday, July 20, 2016

भक्तिवान के लिए सांसारिक धन कंकण पत्थर समान

कमाल साहिब परम संत श्री कबीर साहिब जी के गुरुमुख चेले थे और नाम भक्ति की सच्ची व सार सम्पदा से मालोमाल था। उनकी ख्याति सुनकर काशी नरेश ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। वे एक अत्यंत मूल्यवान हीरा लेकर कमाल साहिब के पास गए और चरणों में हीरा रखते हुए कहा –‘मेरी ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो।’ कमाल साहिब ने कहा कि मैं इस पत्थर के टुकड़े को लेकर क्या करूँगा? काशी नरेश बोले यह पत्थर नहीं बहुमूल्य हीरा है। इसे रख लीजिये, काम आएगा। कमाल साहिब ने हँसते हुए कहा –‘ऐसे कंकड़-पत्थर हजारो की संख्या में इधर उधर बिखरे पड़े है। क्या मैं अब भजन छोडकर उन पत्थरों को बटोरना शुरू कर दूँ?’ काशी नरेश फिर भी जिद्द पर अड़े रहे और बोले- ‘यह हीरा मैं आपकी झोपडी में रख जाता हूँ, आवश्यकता पड़ने पर आप इसे उपयोग में ला सकते हो।’ यह कहकर काशी नरेश ने वह हीरा उनके सामने ही झोपडी में रख दिया और वापिस चले गए। काफी समय के बाद वे फिर कमाल साहिब के चरणों में उपस्थित हुए और उनसे हीरे के विषय में पूछा। कमाल साहिब ने कहा-‘कौन सा हीरा?’ काशी नरेश ने कहा-‘वही हीरा जो मैं आपकी कुटिया में रख गया था।’ कमाल साहिब ने कहा –‘मुझे तो कुछ याद नहीं है जहाँ रखा हो वही से उठा लो।’ काशी नरेश ने देखा तो हीरा वहीँ पर वैसा का वैसा पड़ा हुआ था। हीरे को देखकर काशी नरेश को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने हीरा कमाल साहिब के समक्ष रखते हुए कहा –‘मैं इस हीरे की बात कर रहा हूँ। इसका मूल्य कई लाख है।’ कमाल साहिब हँसते हुए बोले –‘कमाल है। अभी भी आप वही गलती कर रहे है और इस पत्थर को हीरा कह रहे है।’ काशी नरेश समझ गए कि कमाल साहिब की दृष्टी में संसारिक धन-पदार्थ सब तुच्छ है। वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। इसी प्रकार भक्तिमयी रबिया संसारिक दृष्टी से यधपि अत्यंत ही निर्धन थी, परन्तु नाम-भक्ति के सच्चे धन से मालोमाल थी। एक दिन एक धनवान व्यक्ति जिसके मन में रबिया के लिये बड़ा सम्मान था उसके पास आया। वह ऊंट पर सोने की मोहरे बांधके लाया था, जिनका मूल्य हजारो रुपए था। उसने वे स्वर्ण मुद्राएँ उसके सामने रखते हुए कहा कि मेरी ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये।
रबिया ने कहा –‘मैं इनका क्या करुँगी?’ उस व्यक्ति ने कहा कि आप प्रभु की भक्त है इसलिए मैं आपका बहुत आदर करता हूँ। आप इतनी निर्धनता में दिन गुजारे और फटे वस्त्र पहने ये मुझे सहन  नहीं होता। इसलिए मेरी ओर से ये तुच्छ भेंट स्वीकार करनी ही होगी।
राबिया ने कहा –‘मैं इन कंकडो को कहाँ संभालती फिरुंगी? उचित यही है कि आप इन्हें वापिस ले जाओ।’ उस व्यक्ति ने बहुत आग्रह किया, परन्तु रबिया किसी तरह भी वह धन न लेने को राजी हुई। वह व्यक्ति मन ही मन विचार करना लगा कि रबिया के पास ऐसे कौन सी मुद्राए है जिसके कारण ये इन स्वर्ण-मुद्राओ को पत्थरों से अधिक महत्व नही देती? वही वस्तु प्राप्त करने का मुझे यत्न करना चाहिए। यह विचार कर उसने अपना सारा धन दींन दुखियो में बाँट दिया और रबिया के सम्मुख उपस्थित होकर कहा ‘जिस वस्तु के कारण आप स्वर्ण मुद्राओ को पत्थर समझते है, मुझे भी वह प्रदान कीजिये।’ रबिया ने उसे प्रशिद्ध फ़कीर हसन बंसरी के पास जाने का परामर्श दिया। रबिया के परामर्श के अनुसार बंसरी का शिष्यत्व ग्रहण किया। उसकी कृपा से वह भक्ति के सच्चे धन से मालोमाल हो गया। 

Friday, July 15, 2016

सेहत का राज


बादशाह ने बीरबल से पूछा-ये साहूकार किस चक्की का आटा खाते हैं? जो इतने मोटे-ताज़े होते हैं। बीरबल बोला-जहांपनाह! ये लोग जो खाते हैं, वह आप नहीं खा सकते। बादशाह ने फिर पूछा-बीरबल! बताओ तो सही ये क्या खाते हैं? बीरबल ने कहा-मौका आने पर बताऊँगा। एक दिन बादशाह और बीरबल हाथी पर बैठकर शहर में घूमने निकले। बाज़ार में पहुंचे, एक सेठ की दुकान पर भिखारियों की जमात मांगने के लिए आई। एक आने की भीख मांगी, सेठ बोला-एक पैसा दूंगा। भिखारियों ने कहा-एक आना लिए बिना हरगिज़ नहीं जाएंगे। सेठ ने सोचा, बादशाह की सवारी आ रही है। ये लोग मगज़पच्ची कर रहे हैं, यह सोचकर उसने बला टालते हुए कहा-लो एक आना, एक ढीठ भिखारी ने कहा, अब हम नहीं लेंगे, दो आना लेकर जाएंगे, बीरबल ने बादशाह को सेठ की दुकान पर हो रहे तमाशे की ओर संकेत किया। सेठ ने हालात की नज़ाकत को समझते हुए दो आने  दे दिए। इतने में तीसरा भिखारी चिल्लाया-आपने हमारा अमूल्य समय नष्ट किया। अब हम दो आना नहीं, चार आना लेंगे। सेठ ने देखा, बादशाह की सवारी बहुत नज़दीक आ गई। ये पागल लोग दुकान से हट नहीं रहे हैं, इसी खींचातानी व उधेड़बुन में सेठ दुःखी हो गया, आखिर मांगते-मांगते वे लोग एक रुपया लेकर रवाना हुए, जाते-जाते झल्लाते हुए एक भिखारी ने सेठ के मुंह पर थप्पड़ मारा, धक्का-मुक्की में सेठ की पगड़ी नीचे गिर पड़ी, बादशाह बिल्कुल नज़दीक पहुँच गए। सेठ जल्दी से अपनी पगड़ी बाँधकर दुकान पर बैठ गया। चेहरे पर तनिक भी विषाद की रेखा नहीं आने दी। वही मुस्कुराहट, वही उल्लास, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। बीरबल और बादशाह सब कुछ निहार रहे थे। सेठ ने सवारी को एकदम दुकान के पास देखा। मुस्कराते हुए बादशाह को सलाम किया। सवारी आगे बढ़ गई। बीरबल बोला, जहांपनाह, देखा आपने अनूठा तांडव, मांगने वाले रुपए भी ले गए और सेठ को थप्पड़ भी जमा गए। सेठ जी का इतना अपमान होते हुए भी उन्होने गुस्सा नहीं किया। कितनी खामोशी रखी। आपने पूछा कि यह साहूकार लोग क्या खाते हैं। हुज़ूर ये लोग गम खाते हैं, इसीलिए मोटे-ताज़े रहते हैं, क्या ऐसा गम आप खा सकते हैं? बादशाह बोला-बीरबल! ऐसा गम मैं नहीं खा सकता, थोड़े से अपमान पर भी मुझे क्रोध आ जाता है, बीरबल ने हँसते हुए जवाब दिया-इसीलिए आप दुबले-पतले हैं।