Monday, January 2, 2017

👉 दूसरे की गलती

👉 दूसरे की गलती



🔵 एक बार गुरू आत्मानंद ने अपने चार शिष्यों को एक पाठ पढाया। पाठ पढाने के बाद वह अपने शिष्यों से बोले- “अब तुम चारों इस पाठ का स्वाध्ययन कर इसे याद करो। इस बीच यह ध्यान रखना कि तुममें से कोई बोले नहीं। एक घंटे बाद मै तुमसे इस पाठ के बारे में बात करुँगा।“

🔴 यह कह कर गुरू आत्मानंद वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद चारों शिष्य बैठ कर पाठ का अध्ययन करने लगे। अचानक बादल घिर आए और वर्षा की संभावना दिखने लगी।

🔵 यह देख कर एक शिष्य बोला- “लगता है तेज बारिश होगी।“

🔴 ये सुन कर दूसरा शिष्य बोला- “तुम्हें बोलना नहीं चाहिये था। गुरू जी ने मना किया था। तुमने गुरू जी की आज्ञा भंग कर दी।“

🔵 तभी तीसरा शिष्य भी बोल पडा- “तुम भी तो बोल रहे हो।“

🔴 इस तरह तीन शिष्य बोल पडे, अब सिर्फ चौथा शिष्य बचा वो कुछ भी न बोला। चुपचाप पढता रहा।

🔵 एक घंटे बाद गुरू जी लौट आए। उन्हें देखते ही एक शिष्य बोला- “गुरूजी! यह मौन नहीं रहा, बोल दिया।“

🔴 दुसरा बोला- “तो तुम कहाँ मौन थे, तुम भी तो बोले थे।“

🔵 तीसरा बोला- “इन दोनो ने बोलकर आपकी आज्ञा भंग कर दी।“

🔴 ये सुन पहले वाले दोनो फिर बोले- “तो तुम कौन सा मौन थे, तुम भी तो हमारे साथ बोले थे।“

🔵 चौथा शिष्य अब भी चुप था।

🔴 यह देख गुरू जी बोले- “मतलब तो ये हुवा कि तुम तीनो ही बोल पडे। बस ये चौथा शिष्य ही चुप रहा। अर्थात सिर्फ इसी ने मेरी शिक्षा ग्रहण की और मेरी बात का अनुसरण किया। यह निश्चय ही आगे योग्य आदमी बनेगा। परंतु तुम तीनो पर मुझे संदेह है। एक तो तुम तीनों ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया; और वह भी एक-दूसरे की गलती बताने के लिये। और ऐसा करने में तुम सबों ने स्वयं की गलती पर ध्यान न दिया।

🔵 आमतौर पर सभी लोग ऐसा ही करते हैं। दूसरों को गलत बताने और साबित करने की कोशिश में स्वयं कब गलती कर बैठते हैं। उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। यह सुनकर तीनो शिष्य लज्जित हो गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की, गुरू जी से क्षमा माँगी और स्वयं को सुधारने का वचन दिया।

Friday, December 30, 2016

दुनीचन्द का पिता लक्कड़बग्घे के रूप में

दुनीचन्द का पिता लक्कड़बग्घे के रूप में
एक बार श्री गुरुनानकदेव जी भ्रमण करते हुये एक गांव में पहुँचे। वहाँ दूनीचन्द नाम का एक अत्यन्त धनाढ¬ व्यक्ति रहता था,जो उस ज़माने में सात लाख रुपये का स्वामी था। जिस दिन श्री गुरुनानकदेव जी उस के गाँव में पहुँचे,उस दिन दूनीचन्द अपने पिता की याद में श्राद्ध कर रहा था। श्री गुरुनानकदेव जी के शुभागमन का समाचार सुनकर वह उनके चरणों में उपस्थित हुआ और विनय कर अत्यन्त सम्मान से उन्हें अपने घर ले गया।जब उसने अनेक प्रकार के व्यंजन उनके सामने परोसे, तो उन्होने दुनीचन्द से पूछा-आज तुम्हारे घर क्या है?दूनीचन्द ने विनय की-आज मेरे पिता का श्राद्ध है। उनके निमित्त आज मैने सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है। अन्तर्यामी श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-दूनीचन्द! तुम्हारे पिता कोआज तीन दिन से भोजन प्राप्त नहीं हुआ।वह भूखा बैठा है और तुम कहते हो कि उसके निमित्त तुमने सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है। दूनीचन्द ने पूछा-मेरे पिता इस समय कहाँ हैं?
     श्री गुरुनानक देव जी ने फरमाया-यहाँ से पचास कोस की दूरी पर अमुक स्थान पर एक बघियाड़ के रूप में तुम्हारे पिता बैठे हैं। तुम वहाँ प्रसाद लेकर जाओ,परन्तु डरना नहीं।तुम्हारे वहाँ जाने से उसकी मनुष्य-बुद्धि हो जायेगीऔर वह प्रसाद खा लेगा। दुनीचन्द ने वहाँ पहुँचकर देखा कि एक लकड़बग्घा एक पेड़ के नीचे बैठा है।वह उसके निकट चला गया,प्रसादआगे रखा और प्रणाम कर कहा-पिता जी!आपके निमित्त मैने आज सौ ब्रााहृणों को खाना खिलाया है।सत्पुरुषों की कृपा से लकड़बग्घे की मनुष्य-बुद्धि हो गई। तब दुनीचन्द ने कहा-पिता जी! लकड़बग्घे की देहआपने क्यों पाई?उसने उत्तर दिया-""मेरी यह दशा इसलिए हुई,क्योंकि मैने किसी पूर्ण सतगुरु की शरण ग्रहण नहीं की थी,जिससे मन तथा मन के विकारों के अधीन होकर मैने जीवन बिताया।जब मेरा अन्तिम समय निकटआया,उस समय मेरे घर के निकट ही किसी ने गोश्त पकाया,जिस की गन्ध मुझ तक पहुँचीऔर मेरे मन में गोश्त खाने की इच्छा पैदा हुई। अन्तिम समय की उस वासना के अनुसार ही मुझे यह योनि मिली। इसलिये तुमको चाहिये कि पूर्णगुरु की शरणग्रहण कर उनके पवित्र शब्द की कमाई करो ताकिअन्त समय तुम्हारा ध्यान मालिक की ओर लगा रहे और तुम्हारा जन्म सँवर जाये।'' यह कहकर उसने प्रसाद खा लिया। दुनीचन्द घर वापस आया और श्री गुरुनानकदेव जी के चरणों में समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। और उनका शिष्य हो गया।
          देह छुटै मन में रहै, सहजो जैसी आस।
          देह जन्म तैसो मिलै, तैसे ही घर बास।।

Friday, December 2, 2016

आस्तिक और एक नास्तिक

एक आस्तिक और एक नास्तिक मनुष्य में वाद विवाद चल रहा था। नास्तिक कहता था कि ईश्वर अथवा मालिक के नाम का कोई भी अस्तित्व संसार में नहीं है। आस्तिक बोला,"" नहीं भाई! यह संसार की रचनाऔर इसका प्रबन्ध यों ही तो नहीं हो गया।जिस शक्ति अथवा सत्ता के आधार पर यह सब रचनाऔर इसका प्रबन्ध होता है,तुम उस मालिक के अस्तित्व को मानने से इनकार किस तरह करते हो?''नास्तिक बोला ""यदि तुम्हारे कथनानुसार कोई ईश्वर है मालिक है, तो वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता? बोलो,यदि तुम मुझे उस ईश्वर अथवा मालिक को दिखा तो,तब तो मैं विश्वास कर सकता हूँ अन्यथा नहीं।''इस बात को सुनकर आस्तिक ने उसे समझाया कि ईश्वर का रूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। वह इन ज़ाहिरी आँखों से नहीं देखा जा सकता। किन्तु नास्तिक किसी प्रकार से भी मानने को तैयार न हुआ। तब आस्तिक पुरुष ने उठकर ज़ोर से एक घूंसा उस नास्तिक की कमर में दे मारा।घूँसा लगने से वह नास्तिक चिल्ला उठा,""वाह भाई वा!यह भी खूब रही।जब तुमसे कोई बात न बन सकी, तो अब हाथापाई के ओछेपन पर उतर आये हो?''आस्तिक पुरुष ने उत्तर दिया-""नहीं भाई साहिब!मेरा यह मतलब हरगिज़ नहीं। मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ। अच्छा, तुम ही बताओ कि तुम रोते-चिल्लाते क्यों हो?''
   नास्तिक बोला-""वाह!रोने-चिल्लाने की तो बात ही है तुम्हारा घूँसे से कमर में इतना दर्द हो रहा है, कि कुछ कहा ही नहीं जाता।''आस्तिक ने कहा-""अच्छा, तो तुम दर्द से चिल्ला रहे हो। किन्तु भाई!मुझे तो तुम्हारा
यह दर्द कहीं भी दिखाई नहीं देता। हाँ,ज़रा दिखाओ तो, दर्द कैसा है?'' नास्तिक ने कहा,""अरे तुम भी खूब हो,भला कहीं दर्द भी दिखाई दे सकता है,जो मैं तुम्हें दिखा दूँ?''आस्तिक ने कहा,""बस, तो फिर तुम्हारे इतराज़ का जवाब तुम्हें मिल चुका। जिस तरह दर्द या तकलीफ अनुभव होते हैं,किन्तु देखे नहीं जा सकते, इसी तरह ही ईश्वर अथवा मालिक भी अनुभव के द्वारा जाना जा सकता है। परन्तु इन स्थूलआँखों से उसे देखा नहीं जा सकता।आस्तिक पुरुष का यह उत्तर सुनकर नास्तिक लज्ज़ित हुआ और उसे मालिक के अस्तित्व का विश्वास आ गया।

Friday, November 18, 2016

मन्त्रियों के रोकने पर भी राजा दान करता था

मन्त्रियों के रोकने पर भी राजा दान करता था
     एक राजा को किसी महात्मा ने यह उपदेश किया कि जब तक तुम्हारे हाथ में धन है,तब तक भलाई और परमार्थ के काम किये जाओ। वह राजा विचारवान और श्रद्धालु था। उसने महात्मा जी की बात गाँठ बाँध ली और अनेक स्थानों पर सत्संग एवं भजनाभ्यास के लिये आश्रम बनवाने आरम्भ कर दिये और साधु-महात्माओं के लिये लंगर तथाअन्य प्रकार की सेवा आदि का प्रबन्ध भी कर दिया।
     राजा के मंत्री आदि सांसारिक विचार रखने वाले थे। उनको राजा की यह उदारता एक आँख न भाती थी,अतएव वे सब के सब मिलकर एक साथ राजा को इन कामों से मना करने लगे और यह भी कहा कि राजकाज में और भी सहरुाों प्रकार कीआवश्यकतायें सामने आती रहती हैं,इसलिये राजकोष को इसप्रकार व्यर्थ के कार्यों में लुटाना उचित नहीं।चूँकि राजा दृढ़ निश्चय वाला था,इसलिये वहअपने मार्ग से तनिक भी न डगमगाया।इधर मंत्री भी चुप करके न बैठेऔर बार-बार राजा के कान भरते रहे।अन्त में राजा ने तंग आकर यहआदेश जारी कर दिया कि जो भी मुझे इन धार्मिक कामों में धन व्यय करने से रोकेगा,मैं उसकी जीभ कटवा दूंगा।भय के कारण मंत्री मुखसे कहने से तो रुक गये,परन्तुउनके मन को यह बात सहन नहीं हुई, इसलिये उन्होने एक दिन राजप्रासाद की दीवार पर ये शब्द लिख दिये-""माल जमा कुन ता अज़ खतरा निजात याबी''अर्थात यदि संकटों से बचना चाहते हो तो धन का संचय करो। राजा ने जब ये शब्द पढ़े तो समझ गया कि मंत्री मुझे धन व्यय करने से रोकना चाहते हैं। उसने उन शब्दों के नीचे ये शब्द लिखवा दिये,"'निको कारान रा खतरा व खौफ नेस्त।''अर्थात भलाई के काम करने वालों को किसी प्रकार के संकट एवं भय का सामना नहीं करना पड़ता।मंत्रियों ने देखा कि राजा ने हमारे परामर्श को रद्द कर दिया, फिर भी उन्होने एक बार और उसके नीचे लिखवा दिया,""इन्सान गाह बगाह आमाजगाहे-मुसीबत में शवद'' अर्थात् मनुष्य कभी-कभी संकट का निशाना बन ही जाता है। राजा समझ गया कि उनका संकेत है कि कभी-कभी मनुष्य को संकटों का सामना करना पड़ता है जैसे श्री रामचन्द्र जी महाराज एवं युधिष्ठिर आदि पर भी संकट आये। किन्तु इन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि संचित किया हुआ धन संकटों के आने से पूर्व ही मनुष्य का साथ छोड़ जाता है। यह विचार करके राजा ने उसके नीचे लिखवा दिया,""जमा करदा मालो-ज़र किबल अज मुसीबत ज़ाय में शवद''अर्थात् संचित किया हुआ धन संकटों के आने के पूर्व ही नष्ट हो जाता है।
    मंत्रियों ने भली प्रकारआज़मा कर देख लिया कि राजाअपने निश्चय पर अडिग है,अब यदि अधिक छेड़छाड़ करेंगे तो राजा के क्रोध से बच नहीं सकेंगे,इसलिये सब के सब शान्त होकर बैठ गयेऔर राजा नेअपना सम्पूर्ण जीवन सन्त-महात्माओं की सेवा और सत्संग में रहकर सुख-आनन्द से व्यतीत किया तथा इस लोक में भी ख्याति प्राप्त की और परलोक भी संवार लिया। इस कथा से सिद्ध होता है कि दृढ़ संकल्प में इतनी महान शक्ति है जो दृढ़ निश्चय से भक्तिमार्ग पर चल पड़ता है, वह अपना लोक-परलोक सुगमता से संवार लेता है।

Saturday, November 12, 2016

असीमित पुण्य



एक बार गुजरात की एक रियासत की राजमाता मीलण देवी ने भगवान सोमनाथ जी का विधिवत् अभिषेक किया। उन्होंने सोने का तुलादान कर उसे सोमनाथ जी को अर्पित कर दिया। सोने का तुलादान कर उनके मन में अहंकार भर गया और वह सोचने लगीं कि आज तक किसी ने भी इस तरह भगवान का तुलादान नहीं किया होगा। इसके बाद वह अपने महल में आ गईं। रात में उन्हें भगवान सोमनाथ के दर्शन हुए। भगवान ने उनसे कहा, ‘मेरे मंदिर में एक गरीब महिला दर्शन के लिए आई है। उसके संचित पुण्य असीमित हैं। उनमें से कुछ पुण्य तुम उसे सोने की मुद्राएं देकर खरीद लो। परलोक में काम आएंगे।’

नींद टूटते ही राजमाता बेचैन हो गईं। उन्होंने अपने कर्मचारियों को मंदिर से उस महिला को राजभवन लाने के लिए कहा। कर्मचारी मंदिर पहुंचे और वहां से उस महिला को पकड़ कर ले आए।
गरीब महिला थर-थर कांप रही थी। राजमाता ने उस गरीब महिला से कहा, ‘मुझे अपने संचित पुण्य दे दो, बदले में मैं तुम्हें सोने की मुद्रएं दूंगी।’ राजमाता की बात सुनकर वह महिला बोली, ‘महारानी जी, मुझ गरीब से भला पुण्य कार्य कैसे हो सकते हैं। मैं तो खुद दर-दर भीख मांगती हूं। भीख में मिले चने चबाते-चबाते मैं तीर्थयात्रा को निकली थी।

कल मंदिर में दर्शन करने से पहले एक मुट्ठी सत्तू मुझे किसी ने दिए थे। उसमें से आधे सत्तू से मैंने भगवान सोमेश्वर को भोग लगाया तथा बाकी सत्तू एक भूखे भिखारी को खिला दिया। जब मैं भगवान को ठीक ढंग से प्रसाद ही नहीं चढ़ा पाई तो मुझे पुण्य कहां से मिलेगा?’ गरीब महिला की बात सुनकर राजमाता का अहंकार नष्ट हो गया। वह समझ गईं कि नि:स्वार्थ समर्पण की भावना से प्रसन्न होकर ही भगवान सोमेश्वर ने उस महिला को असीमित पुण्य प्रदान किए हैं। इसके बाद राजमाता ने अहंकार त्याग दिया और मानव सेवा को ही अपना सवोर्परि धर्म बना लिया ।

Tuesday, November 8, 2016

आयु कुल चार वर्ष


     नौशेरवाँ को जो भी मिले, उसी से कुछ न कुछ सीखने का स्वभाव हो गया था। अपने इस गुण के कारण ही उन्होंने अपने जीवन के स्वल्प काल में ही महत्वपूर्ण अनुभव अर्जित कर लिये थे। राजा नौशेरवाँ एक दिन वेष बदलकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध किसान मिला। किसान के बाल पक गए थे, पर शरीर में जवानों जैसी चेतनता विद्यमान थी। उसका रहस्य जानने की इच्छा से नौशेरवाँ ने पूछा, "महानुभाव! आपकी आयु कितनी होगी?'
     वृद्ध ने मुस्कान भरी दृष्टि नौशेरवां पर डाली और हँसते हुए उत्तर दिया," कुल चार वर्ष।' नौशेरवाँ ने सोचा बूढ़ा दिल्लगी कर रहा है। पर सच-सच पूछने पर भी जब उसने चार वर्ष ही आयु बताई, तो उन्हें कुछ क्रोध आ गया। एक बार तो मन में आया कि उसे बता दूँ- मैं साधारण व्यक्ति नहीं, नौशेरवाँ हूँ, पर उन्होंने विवेक को संभाला और विचार किया कि उत्तेजित हो उठने वाले व्यक्ति सच्चे जिज्ञासु नहीं हो सकते, किसी के ज्ञान का लाभ नहीं ले सकते, इसलिए उठे हुए क्रोध का उफान वहीं शांत हो गया।
     अब नौशेरवां ने नये सिरे से पूछा-' पितामह! आपके बाल पक गए, शरीर में झुरियाँ पड़ गर्इं, लाठी लेकर चलते हैं, मेरा अनुमान है कि आप अस्सी से कम के न होंगे, फिर आप अपने को चार वर्ष का कैसे बताते हैं?' वृद्ध ने इस बार गम्भीर होकर कहा-आप ठीक कहते हैं, मेरी आयु अस्सी वर्ष की है, किन्तु मैने छियत्तर वर्ष धन कमाने, ब्याह-शादी और बच्चे पैदा करने में बिताए। ऐसा जीवन तो कोई पशु भी जी सकता है। इसलिए उसे मैं मनुष्य की अपनी ज़िन्दगी नहीं, किसी पशु की ज़िन्दगी मानता हूँ। इधर चार वर्ष से समझ आई। अब मेरा मन ईश्वर उपासना, जप, तप, सेवा, सदाचार, दया करुणा, उदारता में लग रहा है। इसलिए मैं अपने को चार वर्ष का ही मानता हूँ।' नौशेरवाँ वृद्ध का उत्तर सुनकर संतुष्ट हुए और प्रसन्नता पूर्वक अपने राजमहल लौटकर सादगी, सेवा और सज्जनता का जीवन जीने लगे।

Thursday, November 3, 2016

नामदेव-त्रिलोचन संवाद


          कर से कर्म करो विधि नाना
          मन में राखो कृपानिधाना।।
अर्थात् हाथ-पाँव से बेशक संसार के कार्यव्यवहार करो,परन्तु ह्मदय में परमेश्वर का सुमिरण-चिंतन हर समय बना रहे, सुरत हर समय नाम में जुड़ी रहे। सन्त नामदेव जी जाति के सींपी (दर्ज़ी) थे। कपड़ों पर कढ़ाई (बेल बूटे बनाने) का काम करते थे। जीवन निर्वाह के लिये जैसे सन्त श्री कबीर साहिब जी कपड़ा बुनने का और सन्त रविदास जी जूते गाँठने का काम करते थे,उसी प्रकार सन्त नामदेव जी कपड़े सीने का और उन पर कढ़ाई करने का कार्य करते थे।परन्तु कामकाज करते हुए भीउनकी सुरत सदा परमात्मा के सुमिरण ध्यान में जुड़ी रहती थी।
     एक दिन भक्त त्रिलोचन जी सन्त नामदेव जी से मिलने उनके घर गये। भक्त त्रिलोचन जी भी बड़े उच्चकोटि के भक्त थे, परन्तु वे कोई कामकाज नहीं करते थे।भक्त त्रिलोचन जी जब सन्त नामदेव जी के घर
पर पहुँचे तो उस समय उस समय वे कपड़ों पर कढ़ाई करने में व्यस्त थे,अतः भक्त त्रिलोचन जी के आने का उन्हें पता नहीं चला जिससे भक्त त्रिलोचन जी ने अपने मन में अभी तक यह सोच रखा था कि सन्त नामदेव जी संसार के कार्यों से विरक्त होकर सदा सुमिरणभजन में लीन रहते होंगे,परन्तु उन्हें कपड़े छापने में व्यस्त देखर त्रिलोचन जी मन में विचार करके लगे कि ये तो अभी तक सांसारिक कार्य-व्यवहार में ही आसक्त हैं, इनका मन प्रभु के सुमिरण में क्या लगता होगा? उन्होंने उस समय यह वाणी पढ़ी--
          नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत।।
          काहे छीपहु छाइलै राम न  लावहु चीत।।
    त्रिलोचन जी ने कहा कि हे नामदेव जी! तुम्हें तो माया ने मोह रखा है। तुम यह कपड़ों की कढ़ाई का काम किसलिए कर रहे हो? परमात्मा के साथ चित्त का सम्बन्ध क्यों नहीं जोड़ते? यह सुनकर सन्त नामदेव जी ने उत्तर दिया--
          नामा कहै तिलोचना मुख  ते  राम  संभालि।।
          हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि।।
  हे त्रिलोचन!नामदेव का यह कहना है कि मुख से हर समय प्रभु-नाम की संभाल कर अर्थात हर समय नाम का सुमिरण कर। हाथ-पाँव आदि से बेशक संसार के सब काम कर,परन्तु तुम्हारा चित्त सदा परमात्मा के साथ जुड़ा रहे।